Thursday 12 February 2015

तुम परमात्मा हो। तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारा मंत्र है। यह बडी—से—बडी बात है, जो तुम्हारे संबंध में कही जा सकती है। और, अगर यह तुम्हारा मंत्र बन जाए और यह तुम्हारे जीवन में ओतप्रोत हो जाए तुम्हारे रोएं—रोएं में समा जाए इसकी झंकार, तो तुम धीरे—धीरे पाओगे कि जो तुमने सोचा, वह तुम होने लगे; जो तुमने आ भीतर, वह तुम्हारे जीवन में आना शुरू हो गया है।
धर्म की शुरुआत—तुम नहीं हो, परमात्मा है—इस सूत्र से होती है। माना तुम सोये हो; माना कि तुम बहुत अर्थों में बुरे हो; माना कि बहुत भूल—चूक तुमने की है; लेकिन इससे तुम्हारे स्वभाव में कोई भी फर्क नहीं पड़ता। निर्मलता तुम्हारा स्वभाव है। तुम कितना ही बुरा किये हो, इस बात का स्मरण आ जाए कि ‘मैं परमात्मा हूं,, सब बुराई कट जाएगी। तुम्हें एक—एक बुराई को अलग—अलग काटना हो तो तुम वह भी कर सकते हो; तब जन्मों—जन्मों तक बुराई न कटेगी; क्योंकि अनंत है बुराई और एक—एक बुराई को जो काटने चलेगा, वह कभी भी काट न पाएगा।
जब तुम एक बुराई को काटते हो, तो तुम दस बुराइयां पैदा भी कर रहे हो। एक बुराई काटते हो, निन्यानबे बुराइयां तो तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। वे तुम्हारी एक भलाई को भी रंग देंगी,उसे भी बुरा कर देंगी। इसलिए, तुम पुण्य भी करते हो, तो वह भी पाप जैसा हो जाता है। तुम अमृत भी छूते हो तो जहर हो जाता है; क्योंकि शेष सब बुराइयां उस पर टूट पड़ती हैं। तुम मंदिर भी बनाओ तो भी उससे विनम्रता नहीं आती; उससे अहंकार भरता है। और, अहंकार के बड़े सूक्ष्म रास्ते हैं! व्यर्थ से भी अहंकार भरता है।

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