परमात्मा और प्रकृति के बीच नर्तक और नृत्य जैसा संबंध है। प्रकृति निर्भर है परमात्मा पर। परमात्मा प्रकृति पर निर्भर नहीं है। परमात्मा न हो, तो प्रकृति खो जाएगी, शून्य हो जाएगी। लेकिन परमात्मा प्रकृति के बिना भी हो सकता है। भेद भी है और अभेद भी, भिन्नता भी है और अभिन्नता भी, दोनों एक साथ।
प्रकृति के बीच परमात्मा वैसे ही है, जैसे नृत्य के बीच नर्तक है। लेकिन जब नर्तक नाचता है, तो शरीर का उपयोग करता है। शरीर की सीमाएं शुरू हो जाती हैं। पैर थक जाएगा, जरूरी नहीं कि नर्तक थके। पैर टूट भी सकता है, जरूरी नहीं कि नर्तक टूटे। पैर चलने से थकेगा, पैर की सीमा है। हो सकता है, नर्तक अभी न थका हो। नर्तक नृत्य करते शरीर के भीतर कैटेलिटिक एजेंट की तरह है।
सारी प्रकृति बर्तती है अपने-अपने गुणधर्म से, परमात्मा की मौजूदगी में। सिर्फ उसकी प्रेजेंस काफी है। बस वह है, और प्रकृति बर्तती चली जाती है। लेकिन वर्तन का कोई भी कृत्य परमात्मा को कर्ता नहीं बनाता है। कर्ता और स्रष्टा में मैं यही फर्क कर रहा हूं। उसके बिना सृष्टि चल नहीं सकती, इसलिए उसे मैं स्रष्टा कहता हूं। वह सृष्टि को चलाता नहीं रोज-रोज, इसलिए उसे मैं कर्ता नहीं कहता हूं।
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