Thursday 12 February 2015

सौ में निन्यानवे मौके पर जिस प्रेम को हम जानते हैं वह ईर्ष्या का ही दूसरा नाम है। हम बड़े कुशल हैं। हम गंदगी को सुगंध छिड़ककर भुला देने में बड़े निपुण हैं। हम घावों के ऊपर फूल रख देने में बड़े सिद्ध हैं। हम झूठ को सच बना देने में बड़े कलाकार हैं। तो होती तो ईर्ष्या ही है, उसे हम कहते प्रेम हैं। ऐसे प्रेम के नाम से ईर्ष्या चलती है। होती तो घृणा ही है, कहते हम प्रेम हैं। होता कुछ और ही है।


एक देवी ने और प्रश्न पूछा है। पूछा है कि 'मैं सूफी ध्यान नहीं कर पाती और न मैं अपने पति को फी ध्यान करने दे रही हूँ। क्योंकि सूफी ध्यान में दूसरे व्यक्तियों की आँखों में आँखें डाल कर देखना होता है। वहाँ स्त्रियाँ भी हैं। और पति अगर किसी स्त्री की आँख में आँख डाल कर देखे और कुछ से कुछ हो जाए तो मेरा क्या होगा? और वैसे भी पति से मेरी ज्यादा बनती नहीं है।'

जिससे नहीं बनती है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए जाते हैं। जिसको कभी चाहा नहीं है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए चले जाते हैं। प्रेम हमारी कुछ और ही व्यवस्था है - सुरक्षा, आर्थिक, जीवन की सुविधा। कहीं पति छूट जाए तो घबराहट है। पति को पकड़ कर मकान मिल गया होगा, धन मिल गया होगा- जीवन को एक ढाँचा मिल गया है। इसी ढाँचे से अगर तुम तृप्त हो तो तुम्हारी मर्जी। इसी ढाँचे के कारण तुम परमात्मा को चूक रहे हो, क्योंकि परमात्मा प्रेम से मिलता है। प्रेम के अत‍िरिक्त परमात्मा के मिलने का और कोई द्वार नहीं है। जो प्रेम से चूका वह परमात्मा से भी चूक जाएगा।

भय और प्रेम साथ-साथ हो कैसे सकते हैं? इतना भय कि पति कहीं किसी स्त्री की आँख में न आँख डाल कर देख लें! तो फिर प्रेम घटा ही नहीं है। फिर तुम्हारी आँख में आँख डालकर पति ने नहीं देखा और न तुमने पति की आँख में आँख डालकर देखा है। न तुम्हें पति में परमात्मा दिखाई पड़ा है, न पति को तुममें परमात्मा दिखाई पड़ा है। तो यह जो संबंध है, इसको प्रेम का संबंध कहोगे?

अगर प्रेम घटे तो भय विसर्जित हो जाता है। तब पति सारी दुनिय की स्‍त्रियों की आँख में आँख डाल कर देखता रहे तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। हर स्त्री की आँख में तुम्हीं को पा लेगा। हर स्त्री की आँख में तुम्हारी ही आँख मिल जाएगी क्योंकि हर स्त्री तुम्हारी ही ‍प्रतिबिंब हो जाएगी। हर स्त्री को देख कर तुम्हारी ही याद आ जाएगी। लेकिन प्रेम तो घटता नहीं; किसी तरह संभाले है अपने को।

ऐसे ही तुम्हारे सब प्रेम के संबंध हैं। एक-दूसरे पर पहरा है। एक-दूसरे के साथ दुश्मनी है, प्रेम कहाँ! प्रेम में पहरा कहाँ? प्रेम में भरोसा होता है। प्रेम में एक आस्था होती है। प्रेम में एक अपूर्व श्रद्धा होती है। ये सब प्रेम के ही फूल हैं - श्रद्धा, भरोसा, विश्वास। प्रेमी अगर विश्वास न कर सके, श्रद्धा न कर सके, भरोसा न कर सके, तो प्रेम में फूल खिले ही नहीं। ईर्ष्या, जलन, वैमनस्य, द्वेष, मत्सर तो घृणा के फूल हैं। तो फूल तो तुम घृणा के लिए हो और सोचते हो प्रेम का पौधा लगाया है। नीम के कड़वे फल लगते हैं तुममें और सोचते हो आम का पौधा लगाया है। इस भ्रांति को तोड़ो।

इसलिए जब मैं तुमसे कहता हूँ कि प्रेम सत्य तक जाने का मार्ग बन सकता है तो तुम मेरी बात को सुन तो लेते हो लेकिन भरोसा नहीं आता। क्योंकि तुम प्रेम को भलीभांति जानते हौ। उसी प्रेम के कारण तुम्हारा जीवन नरक में पड़ा है। अगर मैं इसी प्रेम की बात कर रहा हूँ तो निश्चित ही मैं गलत बात कर रहा हूँ। मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूँ - उस प्रेम की, जिसकी तुम तलाश कर रहे हो, लेकिन जो तम्हें अभी तक मिला नहीं है। मिल सकता है, तुम्हारी संभावना है। और जब तक न मिलेगा तब तक तुम रोओगे, तड़पोगे, परेशान होओगे। जब तक तुम्हारे जीवन का फूल न खिले और जीवन के फूल में प्रेम की सुगंध न उठे, तब तक तुम बेचैन रहोगे। अतृप्त! तब तक तुम कुछ भी करो, तुम्हें राहत न आएगी, चैन न आएगा। खिले बिना आप्तकाम न हो सकोगे। प्रेम तो फूल है।

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