Tuesday 3 February 2015

ध्यान का इतना ही अर्थ है कि तुम चुप एक घंटा, दो घंटा, तीन घंटा—जितनी देर तुम्हें मिल जाए, खाली बैठ जाओ, कुछ मत करो। सिर्फ देखते रही, ताकि धीरे— धीरे तुम्हारी आंख पैनी और गहरी हो जाए और तुम्हें यह दिखाई पड़ने लगे कि सभी जो हुआ मेरे जीवन में, मैं ही उसका कारण था। यह प्रतीति आते ही व्यर्थ का बोना बंद हो जाएगा। तब एक सार्थक नृत्य पैदा होता है।
धर्म परम आनंद है; वह त्याग की उदासी नहीं, वह अस्तित्व का भोग है। वह महाभोग में सम्मिलित होना है। वह अस्तित्व के नृत्य के साथ एक हो जाना है। धर्म को तुम त्याग और उदासी की भाषा में सोचना ही मत। वह गलत धर्म है, जो त्याग और उदासी की भाषा में सोचता है। सही धर्म हमेशा नृत्य है। वह आनंद का है। सही धर्म हमेशा बजती हुई बांसुरी है।
आत्मा नर्तक है, अंतरात्मा रंगमंच है। और, यह जो नृत्य हो रहा है, यह कहीं बाहर नहीं हो रहा है; यह तुम्हारे भीतर ही चल रहा है। यह संसार रंगमंच नहीं है; तुम्हारी अंतरात्मा ही रंगमंच है। तुम कितना ही सोचो कि तुम बाहर चले गये हो, कोई बाहर जा नहीं सकता जाओगे कैसे बाहर? तुम रहोगे अपने भीतर ही। वहीं सब खेल चल रहा है। सब खेल वहां चलता है, फिर बाहर उसके परिणाम दिखाई पड़ते है। ऐसे जैसे तुम कभी सिनेमागृह में जाते हो, तो पर्दे पर सब खेल दिखाई पड़ता है; लेकिन खेल असल में तुम्हारी पीठ के पीछे प्रोजैक्टर में चलता होता है, पर्दे पर सिर्फ दिखाई पड़ता है। पर्दा असली रंगमंच नहीं है; लेकिन आंखें तुम्हारी पर्दे पर लगी रहती हैं और तुम भूल ही जाओगे— भूल ही जाते हो कि असली चीज पीछे चल रही है। सारा फिल्म का जाल पीछे है, पर्दे पर तो केवल उसका प्रतिफलन है।

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