Sunday 8 February 2015

बोधिसत्व शरीर से मुक्त हो जाता है। जगत उसे देख नहीं पाता, लेकिन वह जगत को देख पाता है। जगत उसे समझ नहीं पाता, लेकिन वह जगत को समझ पाता है। और जगत को न मालूम कितने उपायों से वह सहायता भी पहुंचाता है। उसका कोई धन्यवाद भी उसे नहीं मिलता है। मिलने का कोई कारण भी नहीं, क्योंकि जिन्हें सहायता पहुंचाई जाती है, वे उसे देख भी नहीं सकते हैं।

जाग्रत व्यक्ति का संकल्प होता है, उसकी स्वेच्छा होती है, वह जो चाहे करे।  यह कहता है, स्वेच्छा से जीने के लिए तू बाध्य होगा। कोई तुझे बाध्य न कर सकेगा कि रुक और सेवा कर, रुक और करुणा से लोगों को जगा; और सोए, पीड़ित, दुखी, विक्षिप्त लोगों की बीमारी दूर कर, उनके लिए औषधि बन, उनके लिए चिकित्सक बन। कोई तुझे बाध्य न करेगा, लेकिन तू स्वयं ही बाध्य होगा। यह तेरी स्वेच्छा ही होगी, तू स्वयं ही चुनेगा कि मैं रुक जाऊं।
“लेकिन तू मनुष्यों के द्वारा न देखा जाएगा, और न उनका धन्यवाद ही तुझे मिलेगा। और अभिभावक-दुर्ग को बनानेवाले अन्य अनगिनत पत्थरों के बीच तू भी एक पत्थर बन कर जीएगा। करुणा के अनेक गुरुओं के द्वारा निर्मित उनकी यातनाओं के सहारे ऊपर उठा और उसके रक्त से जुड़ा यह दुर्ग मनुष्य-जाति की रक्षा करता है। क्योंकि मनुष्य मनुष्य है, इसलिए यह उसे भारी विपदाओं और शोक से बचाती है।’
यह एक प्रतीक है सत्य समझने योग्य। पहली तो बात यह है कि बोधिसत्व का कृत्य दिखाई नहीं पड़ता। बोधिसत्व भी दिखाई पड़ जाए, तो भी उसका कृत्य दिखाई नहीं पड़ता। वह जो कर रहा है, वह सूम है। वह जो कर रहा है, वह आपके अचेतन में वहां काम कर रहा है, जहां का आपको भी पता नहीं है। उसके करने के अपने रास्ते हैं।


No comments:

Post a Comment