Wednesday 4 February 2015

केंद्र से देखें, तो मनुष्य परमात्मा है। और मनुष्य को उसकी परिधि की तरफ से देखें, तो मनुष्य संसार है। बाहर से पकड़ें मनुष्य को, तो पदार्थ है; भीतर से चिन्मय ज्योति है।
मनुष्य दो का मिलन है–आकार का और निराकार का।
और यही मनुष्य की पीड़ा भी है; यही उसका आह्लाद है। मनुष्य की पीड़ा यही है कि वह एक नहीं, दो से निर्मित है, दो विपरीत तत्वों से। इसलिए उसके भीतर निरंतर तनाव है, खिंचाव है। पदार्थ खींचता है अपनी ओर, आत्मा खींचती है अपनी ओर। और मनुष्यता दोनों के बीच में फंस जाती है, जकड़ जाती है, उलझ जाती है।
अगर एक ही तत्व हो, तो कोई तनाव न हो। मरे हुए आदमी में फिर कोई तनाव नहीं होता; उसकी देह फिर शांत हो जाती है। समाधिस्थ आदमी में भी फिर कोई तनाव नहीं होता; आत्मा ही बचती है। मृतक देह पड़ी हो, तो शरीर बचा है, समाधिस्थ व्यक्ति पड़ा हो, तो उसके लिए भीतर अब आत्मा ही बची है, शरीर भूल गया है। जब तक दोनों हैं–और दोनों के बीच हम डांवांडोल हैं–तब तक चिंता, तनाव, संताप, बेचैनी है। और कहीं भी कोई किनारा लगता मालूम नहीं पड़ेगा। और दोनों ही खींचते हैं अपनी ओर। स्वभावतः ठीक है खींचना। पदार्थ खींचता है नीचे की ओर; आत्मा उठ जाना चाहती है ऊपर की ओर।

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