Wednesday 11 February 2015

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि किसी तरह अशांति के बाहर निकाल लें। मैं उनसे कहता हूं कि तुम अशांति को स्वीकार कर लो। एकदम उन्हें समझ में नहीं आता, क्योंकि वे आए हैं अशांति को छोड़ने। मैं उनसे कहता हूं, अशांति को स्वीकार कर लो। उनके आने का कारण बिलकुल भिन्न है। वे चाहते हैं कि कोई अशांति से छुड़ा दे। कोई विधि होगी, कोई उपाय होगा, कोई औषधि होगी, कोई मंत्र—तंत्र, कुछ यज्ञ—हवन—कुछ होगा, जिससे अशांति छूट जाएगी। और दुनिया में सौ गुरुओं में निन्यानबे ऐसे हैं कि तुम जाओगे तो वे जरूर तुम्हें कुछ कह देंगे कि यह करो तो अशांति छूट जाएगी।
मेरी अड़चन यह है कि मैं जानता हूं अशांति को छोड़ने का कोई उपाय ही नहीं है—स्वीकार करने का उपाय है। और स्वीकार करने में अशांति विसर्जित हो जाती है। मैं जब कहता हूं अशांति विसर्जित हो जाती है तो तुम यह मत समझना कि अशांति छूट जाती है। अशांति होती रहे या न होती रहे, तुम अशांति से छूट जाते हो। तुमसे अशांति छूटे या न छूटे, तुम अशांति से छूट जाते हो।
इस मन की व्यवस्था को समझें। मन अशांत है, तुम कहते हो शांत होना चाहिए। मन तो अशांत था, एक और नई अशांति तुमने जोड़ी कि अब शांत होना चाहिए। मन की अशांति को समझो। तुम्हारे पास दस हजार रुपये हैं, तुम दस लाख चाहते थे, इसलिए मन अशांत है। जितना है उससे तुम तृप्त न थे। जो नहीं है वह तुम मांग रहे थे। ‘नहीं’ की मांग से अशांति आई। अशांति आती है अभाव से। जो है, उससे अशांति कभी नहीं आती है; जो नहीं है, उसकी मांग से आती है।
जो आदमी साधारणत: अशांत है और शांति की झंझट में नहीं पड़ा है, वह उस आदमी से ज्यादा शांत होता है जो शांत होना चाहने की झंझट में पड़ गया है। यह एक और उपद्रव हुआ। अशांत तो तुम थे ही, तर्क था कि जो नहीं है वह होना चाहिए; अब शांति नहीं है, शांति होना चाहिए। एक और नई झंझट शुरू हुई।
जब भी कोई शांत हुआ है, अशांति को स्वीकार करके हुआ है। सुन कर मुझे, समझ कर मुझे कोई राजी हो जाता है कि ‘ अच्छा, तो स्वीकार कर लेते हैं; फिर शांत हो जाएंगे? स्वीकार कर लेते हैं, फिर शांत हो जाएंगे? कब तक शांत होंगे? चलो स्वीकार कर लेते हैं। ‘तो मैं उनसे कहता हूं यह तुमने स्वीकार किया ही नहीं। अभी भी तुम्हारी मांग तो कायम है कि शांत होना है। स्वीकार करने का अर्थ है. जैसा है, वैसा है; अन्यथा हो नहीं सकता। जैसा है, वैसा ही होगा। जैसा हुआ है, वैसा ही होता रहा है।
जब तुम इस भांति स्वीकार कर लेते हो तो पीछे यह प्रश्न खड़ा नहीं होता कि स्वीकार करने से हम शांत हो जाएंगे? और शांति उसी घटना की स्थिति है, जब जो है स्वीकार है। फिर कैसे अशांत होओगे बताओ मुझे? फिर क्या उपाय है अशांत होने का? जो है, जैसा है—स्वीकार है। फिर तुम्हें कौन अशांत कर सकेगा, कैसे अशांत कर सकेगा? फिर तो अगर अशांति भी होगी तो स्वीकार है। फिर तो दुख भी आएगा तो स्वीकार है। फिर तो मौत भी आएगी तो स्वीकार है। तुमने चुनाव छोड़ दिया, तुमने संकल्प छोड़ दिया, तुम समर्पित हो गये। तुमने कहा, अब जो है वही है। और उसी दिन वह महाक्रांति घटती है।

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