Monday 2 February 2015

अगर तुम सोचते हो कि भाग्य के कारण तुम दुखी हो रहे हो तो फिर तुम्हारे हाथ के बाहर हो गयी बात। भाग्य को तुम कैसे बदलोगे? भाग्य तुमसे ऊपर है। और, तुम अगर सोचते हो कि तुम्हारी विधि में ही विधाता ने लिख दिया है—जो हो रहा है, तो तुम एक परतंत्र यंत्र हो जाओगे; तो तुम आत्मवान न रहोगे।
आत्मा का अर्थ ही यह है कि तुम स्वतंत्र हो; और, चाहे कितनी ही पीड़ा तुम भोग रहे हो, तुम्हारे ही निर्णय का फल है। और, जिस दिन तुम निर्णय बदलोगे, उसी दिन जीवन बदल जाएगा। फिर, जीवन को देखने के ढंग पर सब कुछ निर्भर करता है।
जिंदगी को देखने के ढंग पर निर्भर करता है। तुम ही बनाते हो फिर तुम ही देखते हो और फिर तुम ही व्याख्या करते हो। तुम बिलकुल अकेले हो। तुम्हारे संसार में कोई दूसरा कभी प्रवेश नहीं करता। प्रवेश कर भी नहीं सकता। कोई प्रवेश भी करता है तो वह तुमने ही आज्ञा दी है। इससे एक कठिनाई है, इसलिए तुम इसे भूले हुए हो।
कठिनाई यह है कि यह अनुभव करना कि मैं ही जिम्मेवार हूं तब तुम दुखी न हो सकोगे। और अगर दुखी होना चाहते हो तो शिकायत न कर सकोगे। और, उन दोनों में बड़ा रस है।
कौन उत्सुक है तुम्हारे दुख में? और, दुख की बातें सुनकर दूसरा भी उदास ही होगा; कोई दूसरे के जीवन में फूल तो नहीं खिल जाएंगे। लेकिन, तुम सुनाये जा रहे हो। और दूसरा तभी तक सुनता है, जब तक उसे आशा रहती है कि तुम भी उसकी सुनोगे। अन्यथा वह फिसल जाएगा। तुम उन्हीं आदमियों को कहते हो कि उबानेवाले है, जो तुम्हें बोलने का मौका ही नहीं देते। तो एक समझौता है—तुम हमें उबाओ हम तुम्हें उबाएं। तुम अपने दुख की कथा कहकर हमें परेशान करो; हम अपने दुख की कथा कहकर तुम्हें परेशान करें और बराबर हो जाएं।

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