Thursday 5 February 2015

भय शायद आंतरिक मार्ग पर सबसे बड़ी कठिनाइयों में एक है। और ऐसा भय नहीं, जिससे हम संसार में परिचित हैं, कुछ और ही तरह का भय है। भय दो प्रकार के हैं। एक तो भय है, जिसका प्रत्यक्ष कारण सामने होता है। कोई आदमी छाती के सामने छुरा लेकर खड़ा है, आप भयभीत होते हैं। इस भय का कारण प्रत्यक्ष है, सामने है। एक और भय है।
एक तो भय का यह आयाम है, जहां कारण होते हैं। कारण बाहर होते हैं, भीतर आप भयभीत होते हैं। कारण भी भय पैदा नहीं करते। सिर्फ जो भय भीतर सोया है, उसे जगा देते हैं; वह जो भीतर छिपा है, उसे प्रकट कर देते हैं। कोई छुरा लेकर छाती के सामने खड़ा हो, तो उसके छुरे से भय पैदा नहीं होता। भय तो भीतर है, छुरे से प्रकट हो जाता है। लेकिन कारण है, साफ है।
दूसरा भय और भी गहरा है, जो छुरे के कारण या किसी बाहय स्थिति के कारण नहीं अनुभव होता, बल्कि भीतर जो भय पड़ा है, उसके कंपन से ही प्रतीत होता है। अकारण प्रतीत होता है। अध्यात्म के मार्ग पर वह जो अकारण भय प्रतीत होता है, वही बाधा है। और जैसे-जैसे व्यक्ति संसार से दृष्टि हटाने लगता है, वैसे-वैसे कारण विलीन होने लगते हैं। और खुद का ही भय कंपित होने लगता है। अब कोई कंपाने वाला नहीं होता, अपना ही भय है।
कारण वाले भय से तो छूटना आसान है; क्योंकि कारण की रुकावट की जा सकती है, कारण से बचाव किया जा सकता है। कोई छुरा लेकर खड़ा हो, तो आप तलवार लेकर खड़े हो सकते हैं। अपने चारों तरफ सुरक्षा की दीवाल बना सकते हैं। बीमारी हो, तो औषधि का इंतजाम हो सकता है। बाहर जो कारण हैं, उनके विपरीत कारण बाहर निर्मित किए जा सकते हैं। और भय से सुरक्षा मिल जाती है। लेकिन जब अकारण भय का पता चलता है कि भय बाहर से नहीं आ रहा, कोई उसे जगा नहीं रहा, भय मेरे भीतर ही है, मेरी आत्मा में ही है। मैं अपने से ही कंप रहा हूं, कोई मुझे कंपा नहीं रहा। यह कंपन मेरा ही है, मेरे अस्तित्व में ही यह कंपन छिपा है। तब बड़ी कठिनाई होती है कि उपाय क्या हो? इस भय को मिटाने के लिए क्या किया जाए? इससे सुरक्षित होने के लिए कौन सा आयोजन हो?
जितना ही भीतर होता है कंपन, उतने ही आप दृढ़ नहीं हो पाते हैं। जितना होता है भीतर कंपन, आपको अपनी ही बात का कोई भरोसा नहीं हो पाता। आप जानते हैं कि जो आप कह रहे हैं, वह कहते समय भी आप कंप रहे हैं। आप जानते हैं, जो आप निर्णय ले रहे हैं, निर्णय लेते समय भी कंप रहे हैं। आप जानते हैं कि आपका संकल्प सदा अधूरा है। और अधूरा संकल्प, संकल्प नहीं है। अधूरे संकल्प का कोई अर्थ ही नहीं होता। कोई आदमी कहे कि मैं आधा तैयार हूं, उसका कोई अर्थ नहीं होता। तैयारी या तो पूरी होती है या नहीं होती। आप अगर कहें कि मैं छलांग लगाने को आधा तैयार हूं, तो कैसे छलांग होगी? एक पैर तैयार नहीं है और एक पैर तैयार है–आधे आप तैयार हैं। छलांग होगी कैसे? छलांग तो तभी हो सकती है, जब तैयारी पूरी हो। जरा सा भी विपरीत भाव मन में है, तो छलांग नहीं हो सकती। और जो भय से कंप रहा

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