Thursday 12 February 2015

तुम्हारे भीतर शिवत्व तो बैठा ही हुआ है। वह तुम्हारा सदा का खजाना है। उसे पाने के लिए देर नहीं करने की जरूरत है, सिर्फ आंख मोड़कर देखने की जरूरत है। अगर वह कहीं भविष्य में होता, तो फिर कठिनाई थी, फिर समय लगता, जन्म—जन्म लगते, पहुंचते। वह तुम्हारे भीतर है। इसलिए शिवत्व को पाना नहीं है, केवल आविष्कृत करना है; सिर्फ उघाड़ना है—जैसे कोई प्याज के छिलकों को उघाड़ता चला जाए। फिर क्या घटता है?—एक—एक छिलका निकलता है, दूसरा छिलका सामने आ जाता है। उघाड़ते ही चले जाओ, उघाडते ही चले जाओ, एक घड़ी आएगी, जब सब छिलके निकल जाएंगे, सिर्फ शून्य हाथ लगेगा। ऐसे ही आदमी के ऊपर छिलके हैं। और शिवत्व तो शून्य जैसा है। इन छिलकों को हम थोड़ा समझ लें, तो उघाड़ने की आसानी हो जाए तो तुम्हारा जीवन भी शिव जैसा हो जाए और तुम्हारा बोलना भी जप हो जाए।
पहली पर्त क्या है? पहली पर्त शरीर की है। और अधिक लोग इस पहली पर्त से ही अपने को एक मानकर जी लेते हैं। वे ऐसे ही है जैसे किसी महल की सीढ़ियों पर बैठकर जी रहे हों, उन सीढ़ियों को ही घर बना लेते है। उन्हें पता ही नहीं कि सीढ़ियां घर नहीं है, सिर्फ घर तक पहुंचने का उपाय है।
पहली पर्त है शरीर की और शरीर में ही तुम जी लेते हो। वह एक तादात्‍म्‍य है, जिससे लगता है कि मैं शरीर हूं। शरीर मेरा है, मैं नहीं; और ‘मेरा’ कभी भी ‘मैं’ नहीं हो सकता। जो भी मेरा है, वह मेरे हाथ में हो सकता है लेकिन ‘मैं’ नहीं हूं। तुम्हारा पैर कोई काट दे, तो भी तुम न कटोगे, पैर ही कटेगा। तुम्हारा शरीर अगर होते तुम, तो पैर कट जाने पर तुम्हें लगता कि अब मैं कुछ कम हो गया; एक पैर कट गया, इतना मै कम हो गया। लेकिन पैर कट जाए, आंखें चली जायें, कान खो जायें, हाथ टूट जायें, तुम्हारे पूरेपन में जरा भी अंतर नहीं पड़ता। शरीर अपंग हो जाता है, लेकिन तुम पूरे ही होते हो।
इसलिए शायद कुरूप से कुरूप आदमी भी भीतर अपने को कुरूप नहीं मान पाता; क्योंकि भीतर तो तुम सुंदर ही होते हो। शायद इसीलिए कुरूप से कुरूप आदमी भी राजी नहीं हो पाता कि मैं कुरूप हूं। और पापी से पापी आदमी भी राजी नहीं हो पाता कि मैं पापी हूं। बुरे से बुरा आदमी भी एक भीतरी झलक से भरा रहता है कि मैं शुभ हूं। बुरे से बुरे आदमी को भी तुम गौर से देखो तो वह यही कहता है कि हो गयी भूल, लेकिन मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं हो गयी गलती, लेकिन मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं। वह कृत्य को गलत मान सकता है, लेकिन खुद को गलत नहीं मान सकता है। वह ठीक है। उसे पता नहीं है कि क्यों ऐसा लगता है।

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