Sunday 8 March 2015

शूद्र है। मन वैश्य है। आत्मा क्षत्रिय है। परमात्मा ब्राह्मण। इसलिए ब्रह्म परमात्मा का नाम है। ब्रह्म से ही ब्राह्मण बना है।
देह शूद्र है। क्यों? क्योंकि देह में कुछ और है भी नहीं। देह की दौड़ कितनी है? खा लो, पी लो, भोग कर लो, सो जाओ। जीओ और मर जाओ। देह की दौड़ कितनी है! शूद्र की सीमा है यही। जो देह में जीता है, वह शूद्र है। शूद्र का अर्थ हुआ. देह के साथ तादात्म्य। मैं देह हूं? ऐसी भावदशा. शूद्र।
मन वैश्य है। मन खाने—पीने से ही राजी नहीं होता। कुछ और चाहिए। मन यानी और चाहिए। शूद्र में एक तरह की सरलता होती है। देह में बड़ी सरलता है। देह कुछ ज्यादा मतों नहीं करती। दो रोटी मिल जाएं। सोने के लिए छप्पर मिल जाए। बिस्तर मिल जाए। जल मिल जाए। कोई प्रेम करने को मिल जाए। प्रेम देने—लेने को मिल जाए। बस, शरीर की मांगें सीधी—साफ हैं, थोड़ी हैं, सीमित हैं। देह की मांगें सीमित हैं। देह कुछ ऐसी बातें नहीं मांगती, जो असंभव है। देह को असंभव में कुछ रस नहीं है। देह बिलकुल प्राकृतिक है।
इसलिए मैं कहता हूं कि सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं, क्योंकि सभी देह की तरह पैदा होते हैं। जब और— और की वासना उठती है, तो वैश्य। वैश्य का मतलब है और धन चाहिए।
देह शूद्र है, और सरल है। शूद्र सदा ही सरल होते हैं। मन बहुत चालबाज, चालाक, होशियार, हिसाब बिठाने वाला है। मन की सब दौडे हैं। मन किसी चीज से राजी नहीं है। मन व्यवसायी है। वह फैलाए चला जाता है। वह जानता ही नहीं, कहा रुकना। वह अपनी दुकान बड़ी किए चला जाता है! बड़ी करते—करते ही मर जाता है।
आत्मा क्षत्रिय है। क्यों? क्योंकि क्षत्रिय को न तो इस बात की बहुत चिंता है कि शरीर की जरूरतें पूरी हो जाएं; जरूरत पड़े तो वह शरीर की सब जरूरतें छोड़ने को राजी है। और क्षत्रिय को इस बात की भी चिंता नहीं है कि और—और। अगर क्षत्रिय को इस बात की चिंता हो, तो जानना कि वह वैश्य है, क्षत्रिय नहीं है।
क्षत्रिय का मतलब ही यह होता है संकल्प का आविर्भाव। प्रबल संकल्प का आविर्भाव। महा संकल्प का आविर्भाव। और महा संकल्प या प्रबल संकल्प के लिए एक ही चुनौती है, वह है कि मैं कौन हूं इसे जान लूं।
शूद्र शरीर को जानना चाहता है। उतने में ही जी लेता है। वैश्य मन के साथ दौड़ता है। मन को पहचानना चाहता है। क्षत्रिय, मैं कौन हूं इसे जानना चाहता है। जिस दिन तुम्हारे भीतर यह सवाल उठ आए कि मैं कौन हूं, तुम क्षत्रिय होने लगे। अब तुम्हारी धन इत्यादि दौड़ो में कोई उत्सुकता नहीं रही। एक नयी यात्रा शुरू हुई—अंतर्यात्रा शुरू हुई।
तुम यह जानते हो कि इस देश में जो बड़े से बड़े ज्ञानी हुए—सब क्षत्रिय थे। बुद्ध, जैनों के चौबीस तीर्थंकर, राम, कृष्ण—सब क्षत्रिय थे! क्यों? होना चाहिए सब ब्राह्मण, मगर थे सब क्षत्रिय। क्योंकि ब्राह्मण होने के पहले क्षत्रिय होना जरूरी है। जिसने जन्म के साथ अपने को ब्राह्मण समझ लिया, वह चूक गया। उसे पता ही नहीं चलेगा कि बात क्या है!
और जो जन्म से ही अपने को ब्राह्मण समझ लिया और सोच लिया कि पहुंच गया, क्योंकि जन्म उसका ब्राह्मण घर में हुआ है, उसे संकल्प की यात्रा करने का अवसर ही नहीं मिला, चुनौती नहीं मिली।
अपना सारा दौड़ना दौड़ लिए, अपना करना सब कर लिए और पाया कि नहीं, अंतिम चीज हाथ नहीं आती, नहीं आती, नहीं आती, चूकती चली जाती है। तब एक असहाय अवस्था में आदमी गिर पड़ता है। जब तुम घुटने टेककर प्रार्थना करते हो, तब असली प्रार्थना नहीं है। जब एक दिन ऐसा आता है कि तुम अचानक पाते हो कि घुटने टिके जा रहे हैं पृथ्वी पर। अपने टिका रहे हो—ऐसा नहीं, झुक रहे हो—ऐसा नहीं, झुके जा रहे हो। अब कोई और उपाय नहीं रहा। जिस दिन झुकना सहज फलित होता है, उस दिन समर्पण।
समर्पण यानी ब्राह्मण। समर्पण यानी ब्रह्म। जो मिटा, उसने ब्रह्म को जाना।
ये चारों पर्तें तुम्हारे भीतर हैं। यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम किस पर ध्यान देते हो। ऐसा ही समझो कि जैसे तुम्हारे रेडियो में चार स्टेशन हैं। तुम कहां अपने रेडियो की कुंजी को लगा देते हो, किस स्टेशन पर रेडियो के कांटे को ठहरा देते हो, यह तुम पर निर्भर है।
ये चारों तुम्हारे भीतर हैं। देह तुम्हारे भीतर है। मन तुम्हारे भीतर है। आत्मा तुम्हारे भीतर। परमात्मा तुम्हारे भीतर।
अगर तुमने अपने ध्यान को देह पर लगा दिया, तो तुम शूद्र हो गए।अगर तुमने अपने रेडियो को वैश्य के स्टेशन पर लगा दिया; तुमने अपने ध्यान को वासना—तृष्णा में लगा दिया, लोभ में लगा दिया, तो तुम वैश्य हो जाओगे। तुमने अगर अपने ध्यान को संकल्प पर लगा दिया, तो क्षत्रिय हो जाओगे। तुमने अपने ध्यान को अगर समर्पण में डुबा दिया, तो तुम ब्राह्मण हो जाओगे।
ध्यान कुंजी है। कुछ भी बनो, ध्यान कुंजी है। 

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