Friday 13 March 2015

आज से दो हजार साल पहले कोई ब्राह्मण मरता तो शूद्र के घर में पैदा होता, सौ मैं निन्यानबे मौके पर सम्भव नहीं था। शूद्र के घर में पैदा नहीं हो सकता था। आत्मा का आवागमन इतना ही कठिन था। क्योंकि आवागमन ही नहीं था। चित्त तो सारे संस्कार लेता है। जिस शूद्र को कभी छुआ नहीं, जिसकी छाया से बचे, जिसकी छाया पड़ गयी तो सान किया, अलंध्य खाई रही जिसके और हमारे बीच।
मरने के बाद आत्मा यात्रा नहीं कर सकती। क्योंकि यात्रा जो चित्त कराएगा वह चित्त बिलकुल ही खिलाफ है। कोई यात्रा नहीं हो सकती। इसलिए महावीर के समय तक बहुत कभी ऐसा मौका होता था कि कोई आदमी कोई धर्म परिवर्तन में पैदा हो जाए। यह सम्भव नहीं था। धाराएं इतनी बंधी थीं, लीकें इतनी साफ थीं कि आप इस जन्म में ही अपने धर्म के भीतर घुमते थे। ऐसा नहीं है, आप अगले जन्म में भी उसी धर्मों के भीतर घूमते थे। अब यह सम्भव नहीं रहा। अब चीजें जैसे बाहर उदार हो गयी हैं वैसे भीतर भी उदार हो गयी हैं। वह चित्त की बात है।
आज मुसलमान के साथ बैठकर खाना खाने में किसी ब्राह्मण को कोई तकलीफ कम हुई है और भी कम होती चली जाएगी। और जिसको कम नहीं हुई है वह आज का आदमी नहीं है। उसके पास चित्त पांच सौ साल पुराना है। आज के आदमी को तो बिलकुल कम हो गयी है। आज तो सोचना भी उसे बेहूदा मालूम पड़ता है कि इस तरह की बात सोचे। इससे भीतरी आवागमन का भी द्वार खुल गया है, यह खयाल में ले लेना जरूरी है।
इधर पांच सौ वर्ष में रोज द्वार खुलता चला गया है। वह जो भीतर का द्वार खुल गया है उसके कारण, आज कुछ बातें कही जा सकती हैं। अगर मैंने अपने पिछले जन्मों में अनेक मार्गों पर घूमकर देखा हो तो मेरे लिए बहुत आसान हो जाता है कि मैं कुछ कह सकूं। अगर आज एक तिब्बती साधक मुझसे पूछता हो तो उससे मैं कह सकता हूं। लेकिन तभी कह सकता हूं जब कि किसी न किसी यात्रा में तिब्बतन जो मिल्‍यू है, तिब्बती जो वातावरण है, उसमें मैं जिया हूं अन्यथा मैं नहीं कह सकता हूं। और अगर मैं कहूंगा तो ऊपरी होगा, बहुत गहरा नहीं हो सकता। जब तक कि मैं किसी जगह से नहीं गुजरा होऊं तब तक मैं बहुत कुछ नहीं कह सकता।

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