Saturday 28 March 2015

जो जानते हैं, वे वही नहीं कहते—जो जानते हैं। क्योंकि जो जाना जाता है जीवन की आत्यंतिक गहराई में उसे तो सतह पर ला कर शब्द नहीं दिये जा सकते। जो जाना जाता है वह तो कभी कहा नहीं जाता। उसे कहा ही नहीं जा सकता। शब्द बड़े संकीर्ण और बड़े छोटे हैं। फिर भी जानने वाले कुछ कहते हैं। वे क्या कहते हैं? और जब वे कुछ कहते हैं तो तुम यह मत खयाल करना कि वे सत्य के संबंध में कुछ कहते हैं। वे असल में तुम्हारे और सत्य के संदर्भ में कुछ कहते हैं। इस भेद को समझ लेना।
महावीर ने सत्य को जाना, बुद्ध ने सत्य को जाना। अष्टावक्र ने सत्य को जाना। लेकिन जब वे बोलते हैं तो सत्य उतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना सुनने वाला महत्वपूर्ण होता है। वे सुनने वाले से बोलते हैं, अन्यथा बातचीत व्यर्थ हो जाएगी। वे तुम्हारे संदर्भ में बोलते हैं। निश्चित ही जनक अलग तरह का श्रोता है; अर्जुन से बहुत भिन्न है। अगर जनक होता कृष्ण के सामने तो कृष्ण ने भी अष्टावक्र—गीता ही कही होती। और अगर अष्टावक्र के सामने अर्जुन होता तो अर्जुन से भी अष्टावक्र ने जो कहा होता वह कृष्ण की गीता से भिन्न नहीं होता।
ऐसा समझो, जब किसी शानी पुरुष के सामने कोई खड़ा होता है पूछने, अगर यह व्यक्ति बहुत अहंकारी है तो ज्ञानी पुरुष कहेगा. ऐसे जीओ जैसे भाग्य से सब तय है। क्योंकि इसके अहंकार की बीमारी से यह ग्रसित है। इसे इसके अहंकार से नीचे उतारना है। तो उस ज्ञान की शून्यता से एक आवाज उठेगी ’दैव, भाग्य! तुम्हारे किए कुछ भी नहीं होता।’ क्योंकि अहंकारी को तो यह लगता है, मेरे किए ही सब हो रहा है; मैं करने वाला हूं। उसके अहंकार के पीछे कर्ता ही तो छिपा है। तो सदगुरु कर्ता को खिसकाने लगेगा। एक दफा कर्ता हट गया तो अहंकार ऐसे गिर जाता है, जैसे ताश के पत्तों का घर।
लेकिन अगर पूछने वाला आलसी है, तामसी है—अहकारी नहीं, राजसी नहीं, तामसी है, सुस्त है, अकर्मण्य है और कहता है, जो होना है सो होगा, अपने किये क्या होता; और बैठा रहता है गोबर—गणेश बना—तो ज्ञानी पुरुष उसके संदर्भ में बोलेगा। वह कहेगा’ उठो, पुरुषार्थ के बिना कभी कुछ नहीं होता। कुछ करो! ऐसे बैठे—बैठे—बैठे गंवाओ मत! थोड़ा हलन—चलन लाओ जीवन में! थोड़ी ऊर्जा को जगाओ। ऐसे बैठे—बैठे परमात्मा न मिलेगा : यात्रा पर निकलो।’
क्यों?
अगर भाग्य की बात यह अज्ञानी सुन ले तो उस भाग्य की बात को सुन कर यह तो बड़ा निश्चित हो जाएगा। यह तो कहेगा यही तो हम कहते थे। तो हम तो शान को उपलब्ध ही हैं। हम तो कुछ करते नहीं, बैठे रहते हैं। घर के लोग पीछे पड़े हैं, नासमझ हैं! कोई कहता है, नौकरी करो; कोई कहता है, धंधा करो; कोई कहता है कुछ करो—मगर हम तो अपने शांत बैठे रहते हैं।

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