Thursday 5 March 2015

कृष्ण की अनासक्ति का भी तीनों से कुछ तालमेल है और कुछ बुनियादी भेद हैं। कृष्ण को अगर हम इन तीनों का इकट्ठा जोड़, और कुछ ज्यादा कहें, तो कठिनाई नहीं है। कृष्ण की अनासक्ति उपेक्षा नहीं है। कृष्ण कहते हैं, जिसके प्रति उपेक्षा हो गई, उसके प्रति हम अनासक्त नहीं हो सकते क्योंकि उपेक्षा भी विपरीत आसक्ति है। रास्ते से मैं गुजरा और मैंने आपकी तरफ देखा ही नहीं। देखने में भी एक आसक्ति है, न देखने में भी एक आसक्ति है। सिर्फ विपरीत आसक्ति है कि नहीं देखूंगा। और फिर कृष्ण कहते हैं, उपेक्षा किसके प्रति, क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। जिसके प्रति भी उपेक्षा हुई, वह परमात्मा ही है। यह जगत पूरा-का-पूरा ही अगर परमात्मा है, तो उपेक्षा किसके प्रति? और उपेक्षा करेगा कौन? और जो उपेक्षा करेगा वह अहंकार से मुक्त कैसे होगा? उपेक्षा करेगा कौन? मैं करूंगा उपेक्षा? बुरे की उपेक्षा करूंगा अच्छे के लिए, संसार की उपेक्षा करूंगा मोक्ष के लिए। करेगा कौन? और करेगा किसकी? इसलिए उपेक्षा जैसे नकारात्मक और “कंडेनमेटरी’, निंदात्मक शब्द का उपयोग कृष्ण नहीं कर सकते।
तटस्थता का भी उपयोग वह नहीं कर सकते हैं। क्योंकि कृष्ण कहेंगे कि परमात्मा खुद भी तटस्थ नहीं है, तो हम कैसे तटस्थ हो सकते हैं? तटस्थ हुआ नहीं जा सकता। कृष्ण कहते हैं हम सदा धारा में हैं, तट पर हो नहीं सकते। जीवन एक धारा है, जीवन का तट कोई है ही नहीं जिस पर हम खड़े हो जाएं और तटस्थ हो जाएं और हम कह दें, हम धारा के बाहर हैं। हम जहां भी हैं धारा के भीतर हैं, हम जहां भी हैं जीवन में हैं, हम जहां भी हैं अस्तित्व में हैं, तट पर हम खड़े हो नहीं सकते। होना ही, अस्तित्व ही धारा है। इसलिए तटस्थ हम होंगे कैसे? हां, नदी के किनारे हम तट पर खड़े हो जाते हैं। नदी बहती जाती है, हम तट पर खड़े रहते हैं। लेकिन जीवन की ऐसी कोई नदी नहीं है जिसके किनारे हम खड़े हो जाएं। जीवन की नदी का कोई किनारा ही नहीं है। तो तटस्थता शब्द का प्रयोग वे नहीं कर सकते, उपेक्षा शब्द का वे प्रयोग नहीं कर सकते।

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