Sunday 29 March 2015

 जिसके सुख—दुख के अनुभव समाप्त हो गए, वह दूसरे के सुख—दुख से भी प्रभावित नहीं होता। तुम्हें कठिनाई होगी यह बात सोच कर, क्योंकि तुम सोचते हो कि उसे तो बहुत प्रभावित होना चाहिए तुम्हारे सुख—दुख से। नहीं, उसे तो दिखाई पड़ गया कि सुख—सुख होते ही नहीं हैं। तो तुम्हारा सुख—दुख देख कर तुम पर दया आती है, लेकिन सुखी—दुःखी नहीं होता। सिर्फ दया आती है कि तुम अभी भी सपने में पड़े हो!
ऐसा समझो कि दो आदमी सोते हैं, एक ही कमरे में, दोनों दुख—स्वप्न में दबे हैं, दोनों बड़ा नारकीय सपना देख रहे हैं। एक जग गया। निश्चित ही जो जग गया अब उसे सपने के सुख—दुख व्यर्थ हो गए। क्या तुम सोचते हो दूसरे को पास में बड़बड़ाता देख कर, चिल्लाता देख कर, उसकी बात सुन कर कि वह कह रहा है,’हटो, यह राक्षस मेरी छाती पर बैठा है,’ यह दुखी—सुखी होगा? यह हंसेगा और दया करेगा। यह कहेगा कि पागल! यह अभी भी सपना देख रहा है। यह इसके राक्षस को हटाने की कोशिश करेगा कि इसकी छाती पर राक्षस न हो? राक्षस तो है ही नहीं, हटाओगे कैसे? हटाने के लिए तो होना चाहिए। यह तो देख रहा है कि सज्जन अपनी ही मुट्ठी बांधे छाती पर, पड़े हैं। और गुनगुना रहे हैं कि राक्षस बैठा है, यह रावण बैठा दस सिर वाला मेरे ऊपर! इसको हटाओ!
यह जो जाग गया है, क्या करेगा? यह इस आदमी को भी जगाने की कोशिश करेगा। इसके दुख को हटाने की नहीं—इसको जगाने की। फर्क साफ समझ लेना। जब बुद्ध तुम्हें दुखी देखते हैं, तो तुम्हारे दुख को मान नहीं सकते कि है; क्योंकि वे तो जानते हैं दुख हो ही नहीं सकता, भ्रांति है। तुम्हें जगाने की कोशिश करते हैं। तुम्हें भागते देख कर कि तुम रस्सी को सांप समझ कर भाग रहे हो, वे एक दीया ले आते हैं। वे कहते हैं, जरा रुको तो, जरा इस सांप को गौर से तो देखें, है भी? उस प्रकाश में रस्सी तुम्हें भी दिखाई पड़ जाती है, तुम भी हंसने लगते हो।
ज्ञानी पुरुष तुम्हारे सुख—दुख से जरा भी प्रभावित नहीं होता। और जो प्रभावित होता हो, वह ज्ञानी नहीं है। यद्यपि तुम्हारे सुख—दुख से दया उसे जरूर आती है। कभी—कभी हंसता भी है—देख कर सपने का बल, व्यर्थ का बल; देख कर झूठ का बल!
ज्ञानी पुरुष तुम्हें सुख—दुख में डूबा देख कर जानता है कि तुम अभी भी सोये सपना देख रहे हो। छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन यश है न वैभव है मान है न सरमाया जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया जो है यथार्थ कठिन उसका तू कर पूजन छाया मत छूना मन होगा दुख दूना मन।
तुम्हारे सब दुख छाया, झूठे हैं, माया! बुद्धपुरुष को, समाधिस्थ पुरुष को जो यथार्थ है, दिखाई पड़ता है। जिसे अपना यथार्थ दिखाई पड़ गया, उसे सबका यथार्थ दिखाई पड़ जाता है। फिर भी तुम पर दया करता है—दया करता है कि तुम अभी भी सोये हो। दया करता है, क्योंकि कभी वह भी सोया था। और जानता है कि तुम्हारी पीडा गहन है, झूठी है, फिर भी गहन है। जानता है, तुम तड़प रहे हो; माना कि जिससे तुम तड़प रहे हो वह है नहीं। क्योंकि वह भी तड़पा है। वह भी कभी ऐसा ही रोया है, गिड़गिड़ाया है। वह पहचानता है।
वह भी कभी खेल—खिलौनों से खेला है। कभी गुडियाएं टूट गयी हैं, कभी विवाह रचाते—रचाते नहीं रच पाया है तो बड़े दुख हुए हैं। कभी बना—बना कर तैयार किया था ताश का महल, हवा का झोंका आया है और गिरा गया है, तो बच्चे की आंखों से झर—झर आंसू झरे हैं, ऐसे आंसू उसको भी झरे थे। वह जानता है। वह पहचानता है। वह भलीभांति तुम्हारे दुख में सहानुभूति रखता है। लेकिन फिर भी हंसी तो उसे आती है, क्योंकि बात तो झूठी है। है तो सपना ही। भला तुम्हारे सामने हंसे न; सौजन्यतावश, सज्जनतावश तुम्हें थपथपाये भी; तुमसे कहे भी कि बड़ा बुरा हुआ, होना नहीं था—लेकिन भीतर हंसता है।

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