Saturday 14 March 2015

ध्यान के लिए संकल्प चाहिए। संकल्प का अर्थ होता है सारी ऊर्जा को एक बिंदु पर संलग्न कर देना। संकल्प का अर्थ होता है अपनी ऊर्जा को विभाजित न करना। क्योंकि अविभाज्य ऊर्जा हो, तो ही कहीं पहुंचना हो सकता है।
जैसे सूरज की किरणें हैं। अगर इनको तुम इकट्ठा कर लो, एक जगह कर लो, तो आग पैदा हो जाए। बिखरी रहें, तो आग पैदा नहीं होती। ऐसी ही मनुष्य की जीवन ऊर्जा है। एक जगह पड़े, एक बिंदु पर गिरने लगे, तो महाशक्ति प्रज्वलित होती है। पच्चीस धाराओं में बहती रहे, तो धीरे—धीरे खो जाती है। जैसे नदी रेगिस्तान में खो जाए। कहीं पहुंचती नहीं।
तुम दो तरह से जी सकते हो संकल्पहीन या संकल्पवान। संकल्पहीन का अर्थ होता है : तुम्हारे जीवन में पच्चीस धाराएं हैं। धन भी कमा लूं पद भी कमा लूं प्रतिष्ठा भी बना लूं। साधु भी कहलाऊं; ध्यान भी कर लूं; मंदिर भी हो आऊं, दुकान भी चलती रहे। तुम्हारा जीवन पच्चीस धाराओं में विभाजित है। इसलिए कुछ भी पूरा नहीं हो पाता। न दुकान पूरी होती, न मंदिर पूरा होता। न धन मिलता, न ध्यान मिलता। ऊर्जा संगृहीत होनी चाहिए, तो संकल्प का जन्म होता है। एक धारा में गिरे, अखंडित गिरे, तो कुछ भी असंभव नहीं है। जीवन में चीजें असंभव इसलिए मालूम हो रही हैं, क्योंकि तुम टूटे हो खंड—खंड, टुकड़े—टुकड़े में। तुम एक नहीं हो, इसलिए जीवन में बहुत सी चीजें असंभव हैं। तुम एक हो जाओ, तो कुछ भी असंभव नहीं है। संकल्प का यही अर्थ होता है।
यात्रा तो व्यक्ति को स्वयं ही करनी है। भरोसे की कमी है। गुरु की जरूरत है भरोसे के कारण। जिस दिन तुम्हारी यात्रा पूरी हो जाएगी, उस दिन तुम पाओगे : गुरु मे कुछ भी नहीं किया और बहुत कुछ भी किया।
कुछ भी नहीं किया इस अर्थों में कि जिस दिन तुम यात्रा पूरी कर लोगे, तुम पाओगे कि गुरु पास—पास तैरता रहा; तुम्हें भरोसा बना रहा कि अगर डूबूंगा, तो कोई बचा लेगा। लेकिन तैरते तुम रहे। तुम तैरकर पहुंचे अपने आप। शायद गुरु ने हाथ भी न लगाया हो; लेकिन पास—पास तैरता रहा।
तो एक अर्थ में तो कुछ भी नहीं किया म हाथ भी नहीं लगाया। हाथ लगाने की जरूरत ही नहीं है। तुम पहुंच सकते हो, इतनी शक्ति परमात्मा ने प्रत्येक को दी है कि वापस मूलस्रोत तक पहुंच जाए। इतना पाथेय सभी के भीतर रखा है। इतना कलेवा तुम लेकर ही पैदा हुए हो कि यात्रा पूरी हो जाए, और भोजन चुके नहीं।
लेकिन तुममें भरोसे की कमी है और वह भी स्वाभाविक है। कभी जिस मार्ग पर चले नहीं, उस मार्ग पर चलने में भरोसा हो कैसे! श्रद्धा का अभाव है। आत्मश्रद्धा नहीं है। तुम्हें डर है कि मुझसे न हो सकेगा। और तुम्हारे डर के कारण हैं, सुनिश्चित कारण हैं। छोटी—छोटी चीजें की हैं और नहीं हो सकीं। कभी सिगरेट पीते थे और छोड़ना चाही—नहीं छूटी। वर्षों मेहनत की और नहीं छूटी। कितनी ही बार तय किया और नहीं छूटी। और हर बार तय करके गिरे; और हर बार तय करके पछताए; और फिर पीया, और फिर भूल की; फिर अपराध हुआ। धीरे— धीरे ग्लानि बढ़ती गयी; आत्म—विश्वास खोता गया। एक बात साफ हो गयी कि तुम्हारे किए कुछ होने वाला नहीं है। क्षुद्र सी बात नहीं छूटती!

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