Tuesday 17 March 2015

जगत जैसे दर्पण है; हम अपने को ही बार—बार देख लेते हैं; अपनी ही प्रतिछवि बार—बार खोज लेते हैं। जो हम हैं, वही हमें दिखाई पड़ जाता है। साधारणत: हम सोचते हैं, जो हमें दिखाई पड़ रहा है, बाहर है। फूल में सौंदर्य दिखा तो सोचते हैं, सुंदर होगा फूल। नहीं, सौंदर्य तुम्हारी आंखों में हैं। वही फूल दूसरे को सुंदर न भी हो। किसी तीसरे को उस फूल में न सौंदर्य हो, न असौंदर्य हो, कोई तटस्थ भी हो। किसी चौथे को उपेक्षा हो। जो तुम्हारे भीतर है वही झलक जाता है। किसी बात में तुम्हें रस आ जाता है—रस तुम्हीं उडेलते हो। किसी दूसरे को जरूरी नहीं कि उसी में रस आ जाये। तुम डोल उठते हो किसी गीत को सुनकर और किसी दूसरे प्राण की वीणा जरा भी नहीं बजती।

किसी ने प्रश्न भी पूछा है कि आप कहते हैं, जो दृश्य है वह द्रष्टा कभी नहीं; और कृष्णमूर्ति कहते हैं, दृश्य द्रष्टा ही है। ये दोनों बातें तो विरोधाभासी हैं, कौन सच है?
ये बातें विरोधाभासी नहीं हैं—दो अलग तलों पर हैं। पहला तल है, पहले शान की किरण जब फूटती है तो वह इसी मार्ग से फूटती है, जान कर कि जो दृश्य है वह मुझसे अलग है। समझने की कोशिश करें। तुम जो देखते हो, निश्चित ही तुम देखने वाले उससे अलग हो गये। जो भी तुमने देख लिया, तुम उससे पार हो गये। तुम, जो दिखाई पड़ गया, वह तो न रहे। दृश्य तो तुम न रहे। दृश्य तो दूर पड़ा रह गया। तुम तो खड़े हो कर देखने वाले हो गये।
तुम यहां मुझे देख रहे हो तो निश्चित ही तुम मुझसे अलग हो गये। तुम मुझे सुन रहे हो, तुम मुझसे अलग हो गये। जो भी तुम देख लेते, छू लेते, सुन लेते, स्पर्श कर लेते, स्वाद ले लेते, जिसका तुम्हें अनुभव होता है, वह तुमसे अलग हो जाता है। यह ज्ञान की पहली सीढ़ी है।
जैसे ही यह सीढ़ी पूरी हो जाती है और तुम दृश्य से अपने द्रष्टा को मुक्त कर लेते हो, तब दूसरी घटना घटती है। पहला तुम्हें करना होता है, रूस अपने से होता है। दूसरी घटना बड़ी अपूर्व है। जैसे ही तुमने दृश्य से द्रष्टा को अलग कर लिया, फिर द्रष्टा द्रष्टा भी नहीं रह जाता। क्योंकि द्रष्टा बिना दृश्य के नहीं रह सकता; वह दृश्य के साथ ही जुड़ा है। जब दृश्य खो गया तो द्रष्टा भी खो गया। तुम द्रष्टा की परिभाषा कैसे करोगे? दृश्य के बिना तो कोई परिभाषा नहीं हो सकती। दृश्य को तो लाना पड़ेगा। और जिस द्रष्टा की परिभाषा में दृश्य को लाना पड़ता है वह दृश्य से अलग कहां रहा? वह एक ही हो गया। दृश्य के गिरते ही द्रष्टा भी गिर जाता है। पहले दृश्य को गिरने दो, फिर दूसरी घटना अपने से घटेगी। तुमने दृश्य खींचा, अचानक तुम पाओगे द्रष्टा भी गया। तब तुम्हें कृष्णमूर्ति का दूसरा वचन समझ में आयेगा. ‘दि आब्जर्वर इज दि आब्जर्ब्द।’ वह जो दृश्य है, द्रष्टा ही है।

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