Thursday 19 March 2015

एक वैज्ञानिक ने जापान में एक प्रयोग किया—चमत्कार जैसा प्रयोग है। उसे प्रयोग करते—करते पौधों पर, यह खयाल आया कि पौधा बीज में से ही पूरा आता है या कि बहुत कुछ तो जमीन से लेता होगा? तो उसने एक प्रयोग किया। एक गमले में उसने सब तरह से जाच—परख कर ली कि कितनी मिट्टी डाली है। एक—एक रत्ती—रत्ती नाप कर सब काम किया। कितना पानी रोज डालता है, उसका भी हिसाब रखा। वृक्ष बड़ा होने लगा, खूब बड़ा हो गया। फिर उसने वृक्ष को निकाल लिया। जड़ें धो डालीं। एक मिट्टी का कण भी उस पर न रहने दिया। और जब मिट्टी तोली तो बड़ा चकित हुआ, मिट्टी उतनी की उतनी है। मिट्टी में कोई फर्क नहीं पड़ा। उस बीज से ही आया है यह पूरा वृक्ष, उस शून्य से ही प्रगट हुआ है। ऐसे ही एक दिन परमात्मा से सारा अस्तित्व प्रगट हुआ।
तुम भी अपना सारा अस्तित्व अपने भीतर बीज की तरह छिपाए बैठे हो। मगर पहचान तो करनी ही होगी कि तुम्हारे भीतर प्रेम का बीज पड़ा है कि सत्य का! और ये दो ही बीज हैं मौलिक रूप से—तुम या तो संकल्प करो या समर्पण करो। संकल्प दुर्धर्ष मार्ग है। इसलिए तो वर्धमान को जैनों ने महावीर कहा। बड़ा गहन संघर्ष है। महावीर उनका नाम ही हो गया धीरे— धीरे, वर्धमान तो लोग भूल ही गए। इतना संघर्ष किया; समर्पण नहीं है वहा, संकल्प है। महावीर कहते हैं : अशरण, किसी की शरण मत जाना!
बुद्ध ने मरते वक्त कहा : अप्प दीपो भव! अपना प्रकाश खुद बन, आनंद! कोई दूसरा तेरा मार्गद्रष्टा नहीँ है।
कृष्णमूर्ति कहते हैं : मैं किसी का गुरु नहीं और तुम किसी को भूल कर गुरु बनाना मत। ठीक कहते हैं। सहारे की जरूरत नहीं है सत्य के खोजी को। सत्य का खोजी बड़ा अकेला चलता है। अकेला चलता है, इसलिए मरुस्थल जैसा होगा ही। वहा से काव्य नहीं फूटता।
बहुत बार मुझसे जैनों ने कहा कि कुंदकुंद पर आप कुछ बोलें। मैं नहीं बोलता। कई बार कुंदकुंद का शास्त्र उठा कर देखता हूं सोचता हूं बोलना तो चाहिए। कुंदकुंद प्यारे हैं! मगर बात मरुस्थल की है। उसमें काव्य बिलकुल नहीं है। काव्य का उपाय ही नहीं है। काव्य के जन्म के लिए प्रेम की थोड़ी—सी धारा तो चाहिए। नहीं तो फूल नहीं खिलते, हरियाली नहीं उमगती, गीत नहीं गूंजते। सब सूखा—सूखा है।
सुखा लेना ही सत्य के खोजी का मार्ग है। इतना सुखा लेना कि सब रस सूख जाए। उसी को तो हम विराग कहते हैं, जब सब रस सूख जाए।
तो अपने भीतर खोज लेना है। अगर तुम्हें लगे कि मरुस्थल ही तुम्हें निमंत्रण देता है, मरुस्थल में आमंत्रण मालूम पड़े, पुकार मालूम पड़े, चुनौती मालूम पड़े, तो हर्ज नहीं है। फिर मरुस्थल ही तुम्हारे लिए उद्यान है। लेकिन अपने भीतर कस लेना, अपने भीतर देख लेना।
और एक बात कसौटी में काम पड़ेगी : जब भी तुम पाओगे कोई मार्ग तुम्हारे अनुकूल पड़ने लगा, तुम तत्‍क्षण खिलने लगोगे, तत्‍क्षण शांति मिलने लगेगी; जैसे अचानक स्वरों में मेल बैठ गया, तुम्हें अपनी भूमि मिल गई, तुम्हारा मौसम आ गया, तुम्हारी ऋतु आ गई—फलने की, फूलने की!
कभी—कभी ऐसा होता है, किसी की वाणी सुनते ही —तत्‍क्षण तुम्हारे भीतर एक खटके की तरह कुछ हो जाता है, द्वार खुल जाते हैं। किसी को देखते ही किसी क्षण अचानक प्रेम उभय आता है। किसी के पास पहुंचते ही अचानक बड़ी गहन शांति घेर लेती है, आनंद के स्रोत फूटने लगते हैं। यह अकारण नहीं होता। जहां भी तुम्हारा मेल बैठ जाता है, जहां भी तुम्हारी तरंग मेल खा जाती है, वहीं यह हो जाता है।
यहां मैं बोलता हूं; साफ दिखाई पड़ जाता है—कौन तरंगित हुआ, कौन नहीं तरंगित हुआ। कुछ पत्थर के रोड़े की तरह बैठे रह जाते हैं, कुछ डोलने लगते हैं। किसी के हृदय को छू जाती है बात, कोई बुद्धि में ही उलझा रह जाता है।
तुम मेरे पथ के बीच लिए काया भारी भरकम क्यों जम कर बैठ गए कुछ बोलो तो!
क्यों तुमको छूता है मेरा संगीत नहीं?
तुम बोल नहीं सकते तो झूमो, डोलो तो!
रागों की रोकी जा सकती है राह नहीं, रोड़ो, हठधर्मी छोड़ो मुझसे मन जोडो।
तुमसे भी मधुमय शब्द निकल कर गूंजेंगे तुम साथ जरा मेरी धारा के हो लो तो!
जब भी तुम्हारा कहीं मेल खा जाए, तब तुम और सब चिंताएं छोड़ देना। जहां तुम्हारा मन का रोड़ा पिघलने लगे, जहां तुम्हारे सदा के जमे हुए, चट्टान जैसे हो गए हृदय में तरंगें उठने लगें, तुम डोलने लगो, जैसे बीन को सुन कर सांप डोलने लगता है… तो तुम चकित होओगे? सांप के पास कान नहीं होते। वैज्ञानिक बड़ी मुश्किल में पड़े जब पहली दफे यह पता चला कि सांप के पास कान होते ही नहीं, वह बीन सुन कर डोलता है। सुन तो सकता नहीं तो डोलता कैसे है? तो या तो बीन—वादक कुछ धोखा दे रहा है, सांप को किसी तरह से प्रशिक्षित किया है। तो बीन—वादकों को दूर बिठाया गया, बीच में पर्दा डाला गया, कि हो सकता है बीन—वादक डोलता है, उसको देख कर सांप डोलता है। आख है सांप के पास, कान तो है नहीं। तो बीच में पर्दे डाल दिए गए, बीन—वादक को दूर कर दिया; लेकिन फिर भी सांप डोलता है। तब एक अनूठी बात पता चली और वह यह कि सांप के पास कान तो नहीं है, लेकिन बीन से जो तरंग पैदा होती है, उससे उसके पूरे शरीर पर तरंग पैदा होती है। कान नहीं है। उसकी पूरी काया डोल जाती है।
जब कोई बात छूती है, तो सब डोल जाता है। तो जिस बात से तुम डोलने लगो, वही तुम्हारा मार्ग है। जिस बात से रस घुलने लगे तुम्हारे भीतर, वही तुम्हारा मार्ग है। फिर तुम सुनना मत, और क्या कोई कहता है। तुम अपने हृदय की सुनना और अपने रस के पीछे चल पड़ना।

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