Tuesday 10 March 2015

नुष्‍य शून्य होने की बजाय दुख से भरा होना ज्यादा पसंद करता है।
भरा होना ज्यादा पसंद करता है। खाली होने से भयभीत है। चाहे फिर दुख से ही क्यों न भरा हो। सुख न मिले, तो कोई बात नहीं है। दुख ही सही। लेकिन कुछ पकड़ने को चाहिए। कोई सहारा चाहिए।
दुख भी न हो, तो तुम शून्य में खोने लगोगे। सुख का किनारा तो दूर मालूम पड़ता है, दुख का किनारा पास। वहीं तुम खड़े हो। जो पास है, उसी को पकड़ लेते हो कि कहीं खो न जाओ। कहीं इस अपार में लीन न हो जाओ!
कहते हैं न. डूबते को तिनके का सहारा। दुख तुम्हारा तिनका है।
बचाने योग्य कुछ भी नहीं है। दुख ही पा रहे हो। लेकिन कुछ तो पा रहे हो! ना—कुछ। से कुछ सदा बेहतर! इसलिए जान—जानकर भी आदमी दुख को पकड़ तुम जरा उस दिन की बात सोचो, जब तुम्हारे भीतर कोई दुख न बचे, कोई चिंता न हो—तुम घबड़ा जाओगे। तुम सह न पाओगे। तुम उद्विग्न हो उठोगे। तुम बेचैन हो जाओगे। तुम कोई न कोई दुख रच लोगे। तुम जल्दी ही कोई दुख पैदा कर लोगे। अगर वास्तविक न होगा, तो काल्पनिक पैदा कर लोगे। बिना दुख के तुम न रह सकोगे।
इसलिए भी कि बिना दुख के तुम होते ही नहीं। मैं ही दुख पर जीता है। जहां दुख गया, मैं गया। अहंकार दुख का भोजन करता है। दुख ही अहंकार में खून बनकर बहता है। हड्डी—मांस—मज्जा बनता है। जहां दुख नहीं, वहां तुम नहीं। इसलिए भी तुम दुख को पकड़ते हो कि इसी के सहारे तो तुम हो।
तुमने कभी खयाल किया तुम अपने दुखों को बढ़ा—चढ़ाकर कहते हो! जितने होते हैं, उनसे बहुत बड़ा करके कहते हो। क्यों? दुख को बढाकर कहने में क्या सुख होता होगा?
एक सुख होता है कि बड़े दुख के साथ अहंकार बड़ा होता है। छोटी—मोटी बीमारियां छोटे —मोटे लोगों को होती हैं। बड़ी बीमारियां बड़े लोगों को होती हैं! छोटे—मोटे दुख, दो कौड़ी के दुख कोई भी भोग लेता है। तुम महंगे दुख भोगते हो। तुम्हारे दुख बहुत बड़े हैं। तुम दुखों का पहाड़ ढोते हो। तुम कोई छोटे—मोटे दुख से नहीं दबे हो। तुम पर सारी दुनिया की चिंताओं का बोझ है।
तुम अपने दुखों को बड़ा करके बताते हो। तुम बढ़ा—चढ़ाकर बात करते हो। ओर कोई तुम्हारे दुख को छोटा करने की कोशिश करे, तो तुम उससे नाराज होते हो। तुम उसे कभी क्षमा नहीं करते!
आदमी बहुत अदभुत है। तुम अपने दुख की कथा कह रहे हो और कोई उदास होकर सुने, या उपेक्षा करे, तो तुम्हें चोट लगती है, कि मैं अपने दुख कह रहा हूं और तुम सुन नहीं रहे हो! तुम्हें चोट इस बात से लगती है कि तुम मेरे अहंकार को स्वीकार नहीं कर रहे हो! मैं इतने दुखों से दबा जा रहा हूं; तुम्हें इतनी भी फुर्सत नहीं?
दुख के द्वारा तुम दूसरों का ध्यान आकर्षित करते हो। और अक्सर यह तरकीब मन में बैठ जाती है—गहरी बैठ जाती है—कि दुख से ध्यान आकर्षित होता है। बचपन से ही सीख लेते हैं। 

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