Wednesday 25 March 2015

जो हो सहज, वही कर्तव्य है। जो करना पड़े जबर्दस्ती, वही अकर्तव्य है। तुम चौंकोगे, क्योंकि तुम्हारी परिभाषा ठीक उल्टी है। तुम तो कर्तव्य उसी को कहते हो जो मजबूरी में करना पड़ता है। बाप बीमार है, पैर दबा रहे हैं—तुम कहते हो, कर्तव्य कर रहे हैं। कर्तव्य कर रहे हैं—मतलब कि ’मरो भी! या ठीक हो जाओ, कर्तव्य तो न करवाओ। अब यह किन पापों का फल भोग रहे हैं, कि अभी फिल्म देखने गए होते, कि क्लब में नाच हो रहा है, कि रोटरी क्लब की बैठक हो रही है, और अब यह बाप के पांव दबाने पड़ रहे हैं! किसने तुमसे कहा था कि हमको जन्म दो?’ ये सब विचार उठ रहे हैं।
कर्तव्य का मतलब तुम समझते हो? कर्तव्य का मतलब है: जिसे तुम करना नहीं चाहते और करना पड़ता है। तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो, तब तुम यह तो नहीं कहते कि यह कर्तव्य है। तब तुम कहते हो : प्रेम! लेकिन जब तुम मां को देखने जाते हो तो कहते हो, कर्तव्य है। तुम अपनी प्रेयसी से मिलने जाते हो, तब तुम नहीं कहते कि कर्तव्य, यद्यपि जब तुम घर लौटते हो पत्नी से मिलने, तब कहते हो, कर्तव्य है। जो करना पड़े।
कर्तव्य का अर्थ ही है: नहीं करना था, फिर भी करना पड़ा। मन से नहीं किया, हृदय से नहीं किया—यह कोई कर्तव्य हुआ? तुम्हारा ’कर्तव्य’ तो गंदा शब्द है। तो मैं तो तुमसे कहता हूं: वही करना, जो सहज हो। धोखा मत देना। अगर पैर न दबाने हों पिता के तो क्षमा माग लेना, कहना कि भाव नहीं उठता, झूठ न करूंगा। ही, सहज उठता हो भाव, तो ही दाबना। मैं मानता हूं कि तुम्हारे पिता भी प्रसन्न होंगे, क्योंकि मेरा यह अनुभव है कि अगर तुम जबर्दस्ती पिता के पैर दाब रहे हो तो पिता प्रसन्न नहीं होते। जबर्दस्ती से कोई प्रसन्नता कहीं नहीं फलती। जब तुम्हीं प्रसन्न नहीं हो तो तुम्हारे हाथ की ऊर्जा और गर्मी और तुम्हारे हाथ की तरंग—तरंग कहेगी कि तुम जबर्दस्ती कर रहे हो, कर रहे हो, ठीक है! करना पड़ रहा है। उधर पिता भी पड़े देख रहे हैं कि ठीक है! मजबूरी है तो कर रहे हो। न तुम प्रसन्न हो, न पिता प्रसन्न हैं। न तुम आनंदित हो, न तुम उन्हें आनंदित कर पाते हो।
जो आनंद से पैदा नहीं होता, वह आनंद पैदा कर भी नहीं पाता। आनंद से बहेगी जो धार, उसी से आनंद फलता है। तो तुम कह देना साफ, भीतर कुछ, बाहर कुछ मत करना। बाहर पैर दाब रहे हैं और बड़े आज्ञाकारी पुत्र बने बैठे हैं और भीतर कुछ और सोच रहे हैं, विपरीत सोच रहे हैं, क्रोधित हो रहे हैं। सोच रहे हैं, समय खराब हुआ, विश्राम कर लेते, वह गया। लेकिन तुम अपने साथ झूठ हो रहे हो और तुम पिता के सामने भी सच नहीं हो। मैं नहीं कहता, ऐसा कर्तव्य करो। मैं कहता हूं तुम क्षमा मांग लेना। कहना कि क्षमा करें।
जीवन को जितने दूर तक बन सके, छोटे से छोटे काम से ले कर, सहज करना उचित है, क्योंकि सहज ही धीरे — धीरे समाधि बन जाता है। वही करना जो तुम्हारे आनंद से हो रहा हो। और तुम लंबे अर्से में पछताओगे नहीं। हो सकता है, तत्क्षण अड़चन मालूम पड़े। लेकिन झूठ झूठ है और तत्‍क्षण कितना ही सुविधापूर्ण मालूम पड़े, अंततः तुम्हें जाल में उलझा जाएगा। तुम साफ—साफ होना। इसको मैं प्रामाणिक होना कहता हूं।
तय करने की बात ही नहीं है। जो सुखद, जो प्रीतिकर—वही कर्तव्य। जो प्रीतिकर नहीं, जो सुखद नहीं—वही अकर्तव्य। तुम्हें उल्टा सिखाया गया है, इसलिए उलझन पैदा हो रही है। तुम्हें सिखाया गया है प्रीतिकर—अप्रीतिकर का कोई सवाल नहीं है, सहज—असहज का कोई सवाल नहीं है—अरे जैसा चाहते हैं, वैसा करो तो कर्तव्य; तुम जैसा चाहते हो, वैसा करो तो अकर्तव्य हो गया। तो हर व्यक्ति दूसरे के हिसाब से जी रहा है। इसलिए तो कम लोग जी रहे हैं, अधिक लोग तो मरे—मराए हैं, जी ही नहीं रहे हैं। यह कोई जीने का ढंग है? दूसरों की अपेक्षाएं पूरी करने में जीवन बिता रहे हो, फिर कैसे सुगंध होगी, फिर कैसे संगीत जन्मेगा, फिर तुम कैसे नाचोगे? सदा दूसरे की आकांक्षा पूरी कर रहे हो।
तुम अपेक्षा दूसरे की पूरी करो, दूसरे तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी कर रहे हैं। न वे प्रसन्न हैं, न तुम प्रसन्न हो। जगत बिलकुल उदास हो गया है।
नहीं, यही मेरी मौलिक क्रांति है जो मैं तुम्हें देना चाहता हूं। तुम वही करो जो तुम्हारा आनंद है, चाहे कुछ भी कीमत हो। तुम कभी वह मत करो जो तुम्हारा आनंद नहीं है। चाहे उसके लिए तुम्हें कितना ही चुकाना पड़े, तुम आखिर में पाओगे कि तुम जीते, हारे नहीं। और मैं तुमसे यह भी कहता हूं कि चाहे शुरू—शुरू में लोग तुमसे परेशान हों; क्योंकि उनकी आदतें खराब कर ली हैं तुमने इसलिए, समाज विकृत हो गया है इसलिए, लेकिन धीरे— धीरे तुम्हारी प्रामाणिकता समझेंगे। तुम पर भरोसा किया जा सकता है, ऐसा मानेंगे, क्योंकि तुम प्रामाणिक हो।
सत्य अंततः किसी को भी नुकसान नहीं पहुंचाता। शुरू—शुरू में कई दफे लगता है कि नुकसान पहुंचाता है। असत्य मत होओ और भावों को तो कभी झुठलाओ मत। अगर इस प्रक्रिया में तुम पड़ गए झुठलाने की तो तुम धीरे — धीरे झूठ का एक संग्रह हो जाओगे, जिसमें से जीवन की आग बिलकुल खो जाएगी, राख ही राख रह जाएगी। और अगर तुम सहज बनने लगो तो तुम अचानक पाओगे परमात्मा को खोजने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता; तुम्हारी सहजता के ही झरोखे से किसी दिन परमात्मा भीतर उतर आता है। क्योंकि परमात्मा यानी सहजता।

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