Wednesday 11 March 2015

यहां सारी चेष्टा यही चल रही है कि अब तुम अपना और न बनाओ। अपना बनाना यानी मोह, मेरे का विस्तार। मैं तुम्हें कोई तरह से भी सहयोगी नहीं हो सकता अपने को बढ़ाने में।
काफी दुख नहीं झेल लिया है अपनों से! अब तो छोड़ो। मुझसे तुम इस तरह का संबंध बनाओ, जिसमें मेरा—तेरा हो ही नहीं। नहीं तो वह संबंध भी सांसारिक हो जाएगा। जहां मेरा आया, वहा संसार आया।
क्या तुम बिना मेरे—तेरे को उठाए संबंध नहीं बना सकते? क्या यह संबंध मेरे—तेरे की भीड़ से मुक्त नहीं हो सकता? तुम वहा, मैं यहां; क्या बीच में मेरे—तेरे का शोरगुल होना ही चाहिए? सन्नाटे में यह बात नहीं हो सकेगी?
तुम शून्य बनो—बजाय मेरे का फैलाव करने के—तो तुम मुझसे जुडोगे। मैं शून्य हूं; तुम शून्य बनो, तो तुम मुझसे जुड़ोगे। मैंने मेरे का भाव छोड़ा है, तुम भी मेरे का भाव छोडो, तो मुझसे जुडोगे। मुझसे जुड्ने का एक ही उपाय है. मुझ जैसे हो जाओ, तो मुझसे जुडोगे।
अब तुम कहते हो कि ‘तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं।’
तुमने कितने दरवाजों पर दस्तक दी! कितने लोगों को अपना बनाना चाहा! सब जगह से ठोकर खाकर लौटे; सब जगह से अपमानित हुए; अभी भी होश नहीं आया? फिर वही पुराना राग?
लोग विषय बदल लेते हैं, गीत वही गाए चले जाते हैं! लोग वाद्य बदल लेते हैं, सुर वही उठाए चले जाते हैं। कभी कहते हैं : मेरा धन। कभी कहते हैं. मेरा मकान। फिर कभी कहने लगते हैं. मेरा गुरु; मेरा भगवान; कि मेरा मोक्ष, कि मेरा शास्त्र! क्या फर्क पड़ता है, तुम मेरा शास्त्र कहो कि मेरी दुकान कहो, सब बराबर है। जहां मेरा है, वहा दुकान है। और इसीलिए तो मंदिरों पर भी झगड़े हो जाते हैं, क्योंकि जहां मेरा है, वहां झगड़ा है। जहां मेरा है, वहां उपद्रव है।

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