Tuesday 28 April 2015

जीवन के गर्भ में क्‍या छुपा है उसकी शुन्‍य अंधेरी तलहेटी की जड़े किस स्‍त्रोत की और बह रही है…..कहां से और किन छुपे रहस्‍यों से उनको पोषण मिल रहा है….ये कुदरत का एक अनुठाओर अनसुलझा रहस्‍य है। और यही तो है जीवन का आंनद….लेकिन न जाने क्‍या हम इस रहस्‍य को जानना चाहते है, कभी ज्‍योतिष के माध्‍यम से, कभी दिव्‍य दृष्‍टी या और तांत्रिक माध्‍यमों से परंतु सब नाकाम हो जाते है। और कुदरत अपने में अपनी कृति को छपाये ही चली आ रही है।

ठीक इसी तरह कभी नहीं सूलझाया जा सकता उस रहस्‍य का नाम परमात्‍मा है। परंतु कृति के परे प्रकृति और कही दूर अनछुआ सा कर्ता जो पास से भी पास और दूर से भी दूर। परंतु जब कृति जब प्रकृति में उतपति ओर लवलीन होती है, तब हम ठगे से सोचते है ये क्‍या इस बीज में कैसे हो सकता है इतना विशाल वृक्ष….कोई बुद्धि मानने को तैयार नहीं होती। लेकिन बीज जैसे ही मिटता है, उस अंधेरे के गर्भ में मिटना और उत्‍पति युगपत घटित होती है…दूसरी और एक वृक्ष की उत्‍पति होती है। वो कोमल पत्‍ते जब धरा से अपना मुख मंडल पहली बार बहार निकालते है और देखते है उस आसमान को सूर्य की चमक को उन रहस्‍यमय बादलो को…चारों और फैले पशु पक्षियों के कलरव को चाँद तारों को तब उसे खुद अपने पर यकिन नहीं होता….ओह…..निरंजन….इतना रहस्‍य। ठीक इस तरह से प्रत्‍येक मनुष्‍य का जीवन चल रहा होता है। और एक दिन मेरे जीवन में वह रहस्‍य का पल आ गया।

जब मेरे बीज को किसी ने अंधकार भरे रहस्‍यों में छूपा दिया और और प्रेम के उस उत्‍ताप से जब उसमें से कोमल अंकूरो को बहार निकलते देखा तो मैं मानने को तैयार नहीं था। इतना सब मेरे ही आस पास घटित हो रहा था। और मैं उसे कभी महसूस क्‍यों नहीं कर पाय, क्‍यों उस देख नहीं पाया….क्‍यों उस मधुर राग के ताल और सूरोंसे अनभिक रह गया। क्‍या मेरे पास कान, आँख आरे समझ नहीं थी। परंतु मैं क्‍या कोई भी प्राणी ये मानने को तैयार नहीं होता की वह कुछ नहीं जानता।

जानना ही हमारा भ्रम है, बुद्धि से हम क्‍या जान सकते है….उसकी सीमा होती है। लेकिन जब कोई अपने को पहली बार जानता है कि मैं कुछ नहीं जानता….तब ही पहला कदम उठता है जानने के लिए।

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