Monday 20 April 2015

आदमी जीवन में जो-जो सपने देखता है, जब तक देखता रहता है, तब तक प्रीतिकर होते हैं। जब सपने हाथ में आ जाते हैं, तो बड़े अप्रीतिकर हो जाते हैं।

जिस चीज को प्रेम करें, अगर प्रेम जारी रखना हो, तो जरा दूर ही रहना, निकट मत जाना। निकट गए कि प्रेम उजड़ जाएगा, विकर्षण जगह ले लेगा। क्योंकि सारा आकर्षण अनजान, अपरिचित, दूर जो है, आशा में है, होप। जितनी ज्यादा आशा मिश्रित मालूम होती है, उतना आकर्षण मालूम होता है। हाथ में आ गए तथ्य विकर्षित हो जाते हैं। बहुत देर हाथ में रह गए तथ्य, फेंकने जैसे हो जाते हैं। जिसे चाहा था बहुत मांगों से, उससे दूर हटने की आकांक्षा पैदा हो जाती है। अप्रीतिकर हो जाता है वही, जो प्रीतिकर था।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जिन्हें लोग प्रीतिकर समझते हैं, जिन्हें लोग अप्रीतिकर समझते हैं…।
किन्हें समझते हैं लोग? दूर की आशाओं को लोग प्रीतिकर समझते हैं। इंद्रियों को प्रलोभन जहां से मिलता है, वहां प्रीतिकर मालूम होता है सब। जहां-जहां इंद्रियां पहुंच जाती हैं, वहीं अप्रीति बैठ जाती है; वहीं अंधेरा छा जाता है; वहीं हटने का मन हो जाता है। इसीलिए तो जो हम पा लेते हैं, बस वह बेकार हो जाता है। आंखें फिर कहीं और अटक जाती हैं।

लेकिन एक और अर्थ में भी इस बात को समझ लेना जरूरी है। कोई आपके गले में फूल की मालाएं डाल रहा है। प्रीतिकर लगता है। स्वागत, सम्मान, प्रतिष्ठा प्रीतिकर लगती है। कोई जूते की मालाएं डाल दे गले में, अप्रीतिकर लगता है।

कृष्ण कहते हैं, ये व्याख्याओं से जो भीतर आंदोलित हो जाता है, वह प्रभु की सतत आनंद की स्थिति में प्रवेश नहीं कर सकता। क्योंकि गले में डाले गए फूल कि गले में डाले गए कांटे, चेतना को इससे अंतर नहीं पड़ना चाहिए। चेतना को अंतर पड़ता है, इसका अर्थ यह हुआ कि बाहर के लोग आपको प्रभावित कर सकते हैं। और जब तक बाहर के लोग आपको प्रभावित कर सकते हैं, तब तक भीतर की धारा में प्रवेश नहीं होता।
बाहर से जो प्रभावित होगा, उसकी चेतना बाहर की तरफ बहती रहेगी। जब बाहर से कोई बिलकुल अप्रभावित, तटस्थ हो जाता है, तभी चेतना अंतर्गमन को उपलब्ध होती है।

जब मिले स्वागत, जब मिले सम्मान, जब प्रेम की वर्षा होती लगे, तब भी भीतर साक्षी रह जाना, देखना कि लोग फूल डाल रहे हैं। जब मिले अपमान, जब बरसें गालियां, तब भी साक्षी रह जाना और जानना कि लोग कांटे फेंक रहे हैं, गालियां फेंक रहे हैं। लेकिन देखना भीतर यह कि स्वयं चलित तो नहीं हो जाते, स्वयं तो नहीं बह जाते फूलों और कांटों के साथ! स्वयं तो खड़े ही रह जाना भीतर।

ऐसे प्रत्येक अवसर को जो तटस्थ साक्षी का क्षण बना लेता है, वह धीरे-धीरे अंतर-समता को उपलब्ध होता है। धीरे-धीरे ही होती है यह बात। एक-एक कदम समता की तरफ उठाना पड़ता है। लेकिन जो कभी भी नहीं उठाएगा, वह कभी पहुंचेगा नहीं।

बहुत छोटे-छोटे मौकों पर–जब कोई गाली दे रहा हो, तब उसकी गाली पर से ध्यान हटाकर भीतर ध्यान देना कि मन चलित तो नहीं होता। और ध्यान देते ही मन ठहर जाएगा। यह बहुत मजे की बात है। जब कोई गाली देता है, तो हमारा ध्यान गाली देने वाले पर चला जाता है। अगर कृष्ण की बात समझनी हो, तो जब कोई गाली दे, तो ध्यान जिसको गाली दी गई है, उस पर ले जाना।

जैसे ही ध्यान भीतर जाएगा, हंसी आएगी। गाली बाहर रह जाएगी; गाली देने वाला बाहर रह जाएगा; आप किनारे पर खड़े हो जाएंगे। गाली से अछूते, कमल के पत्ते की तरह पानी में। चारों तरफ पानी है और आप अस्पर्शित, अनटच्ड रह जाएंगे। उस क्षण इतने आनंद की प्रतीति होगी, जिसका हिसाब नहीं।


जिसने भी गाली के क्षण में या सम्मान के क्षण में भीतर खड़े होने को पा लिया, जस्ट स्टैंडिंग को पा लिया, वह इतने अतिरेक आनंद से भर जाता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। क्यों? क्योंकि पहली बार वह स्वतंत्र हुआ। अब कोई उसे बाहर से चलित नहीं कर सकता है। अब वह यंत्र नहीं है, मनुष्य हुआ। हम बटन दबाते हैं, बिजली जल जाती है। हम बटन दबाते हैं, बिजली बुझ जाती है। बिजली परतंत्र है, बटन दबाने से जलती और बुझती है। किसी ने गाली दी; हमारे भीतर दुख छा गया। किसी ने कहा कि आप तो बड़े महान हैं; हमारे भीतर खुशी की लहर दौड़ गई। तो हममें और बिजली में बहुत फर्क न हुआ, बटन दबाई…

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