Sunday 19 April 2015

इधर मेरे हजारों लोगों पर ध्यान-प्रयोग करने के जो नतीजे हैं, उनमें एक नतीजा यह है कि पहली दफा जैसी झलक मिलती है, फिर बड़ी कठिन हो जाती है। फिर जब तक वह पहली झलक भूल नहीं जाती, दूसरी झलक नहीं मिलती। कभी महीनों लग जाते हैं भूलने में। जब बिलकुल हारऱ्हारकर आदमी सोचता है, कि अरे! वह भी मिली न होगी। कल्पना कर ली होगी। जब पहली झलक भूल जाती है तब दूसरी झलक मिलती है। दूसरी, तीसरी, चौथी झलक के बाद यह समझ में आना शुरू होता है कि मैं जो मांग रहा था, वह बाधा बन रही थी।
निरुद्देश्य आने से ही कुछ हुआ। अब ऐसी निरुद्देश्यता को कायम रखना। अब खतरा है। त्रिवेणी पूछती है कि घर जाकर यह ध्यान कायम रहेगा न? अब खतरा है। जो हुआ है, बिना मांगे हुआ है। अब भी क्यों मांगना? जब अभी बिना मांगे हो गया है तो फिर भी बिना मांगे होता रहेगा।

अब खतरा है। अब खतरा यह है कि जो रस उसे मालूम हुआ है, अब वह चाहेगी कि वह घर पर कायम रहे। लौट-लौटकर उसको फिर पाना चाहेगी। इस चाह से ही मर जाएगा। अब निरुद्देश्य न रही त्रिवेणी। अब त्रिवेणी को उद्देश्य मिल गया। अब दुबारा अगर वह पूना आएगी तो भी खतरा है। जरूर आएगी। आना पड़ेगा उसे। क्योंकि वह जो रस मिला, अब उसकी वासना जगेगी। अब वह बार-बार आएगी। अब मैं भी उससे डरा हूं। क्योंकि जब वह बार-बार आएगी और न पाएगी तो मुझ पर नाराज होगी।

इसलिए अभी से सावधान कर देता हूं। बात ही छोड़ो। जैसी आयी थी निरुद्देश्य, ऐसी ही घर वापस लौट जाओ। जैसे निरुद्देश्य मन से मुझे यहां चाहा, मुझे प्रेम किया, ऐसे ही घर पर भी करना। आनंद मत मांगना, ध्यान मत मांगना। मांगना ही मत कुछ। घटेगा। खूब-खूब घटेगा। जितना घटा है वह तो सिर्फ शुरुआत है। यह तो अभी एक झाला आया है। अभी तो मूसलाधार वर्षा होगी। मगर मांगना मत। यह तो सिर्फ शुरुआत है। और जब दुबारा यहां आओ तो अपेक्षा लेकर मत आना। फिर ऐसे ही आ जाना। कठिन होगा। क्योंकि इस बार तो निरुद्देश्य आना स्वाभाविक हुआ था। अब दूसरी बार बड़ा कठिन होगा। लेकिन अगर समझा कि पहली दफा निरुद्देश्य जाने से घट गया था तो अब उद्देश्य लेकर क्यों जाएं?

चले आना, जब आने की सुविधा बने। यह सोचकर मत आना कि वहां जाकर खूब आनंद होगा; कि वहां खूब ध्यानमग्नता आएगी; कि डूबेंगे। यह सोचकर ही मत आना। फिर ऐसे आना जैसे अजनबी हो। फिर घटेगा। जितना घटा उससे बहुत ज्यादा घटेगा। और इस सूत्र को अगर समझ लिया तो घटता ही रहेगा।
परमात्मा शुरू होता है, अंत कभी भी नहीं होता। हमारे पात्र भर जाते हैं, फिर भी बरसता रहता है। पात्र ऊपर से बहने लगते हैं, फिर भी बरसता रहता है। बाढ़ आ जाती है, बरसता ही रहता है। लेकिन अड़चन खड़ी होती है कि जैसे ही हमने अपेक्षा की कि हम सिकुड़े। हमारा पात्र बंद हुआ। हम अपात्र हुए।

“बिना किसी उद्देश्य के यहां आ गई। इरादा कुछ और था–दक्षिण भारत घूमने जाऊंगी। किंतु आपके प्रवचन सुनकर कुछ ऐसी पागल हुई कि संन्यास भी ले लिया…।’

ठीक कहती है। संन्यास एक तरह का पागलपन है। संन्यास एक तरह की मस्ती है। हिसाब-किताब की दुनिया के बाहर है। तर्क-वितर्क की दुनिया के बाहर है। सोच आदि को जो एक किनारे हटाकर रख देता है वही संन्यस्त होने का अधिकारी है। जो कहता है, लोक-लाज खोई। जो कहता है, अब फिक्र नहीं कि लोग क्या कहेंगे। जो कहता है, दूसरों के मत का अब कोई प्रभाव नहीं। अब हम अपने ढंग से जीएंगे। जीवन हमारा है, हम अपने ढंग से जीएंगे, अपने ढंग से नाचेंगे। न हम किसी को जोर-जबर्दस्ती करते कि वह हमारे ढंग का हो। न हम किसी को जोर-जबर्दस्ती करने देंगे कि हम उसके ढंग के हों। न हम किसी को दबाएंगे, न हम दबेंगे।

संन्यास बड़ी गहरी उदघोषणा है। वह इस बात की उदघोषणा है कि अब न तो मैं किसी पर आग्रह थोपूंगा अपना कि वह मेरे जैसा हो, और न मैं चाहूंगा कि कोई चेष्टा करे मुझे अपने जैसा बनाने की। तो न तो मैं किसी का मालिक बनूंगा, और न किसी को मालिक बनने दूंगा। न मैं किसी की स्वतंत्रता छीनूंगा, और न किसी को मेरी स्वतंत्रता छीनने दूंगा।

दोहरी उदघोषणा है संन्यास। अब जो मेरी मौज है, वैसे ही जीऊंगा। यद्यपि इसका यह अर्थ नहीं कि तुम अपनी मौज में किसी को कष्ट दो। क्योंकि कष्ट देने का तो अर्थ हुआ, उदघोषणा इकहरी हो गई। तुम दूसरे पर अपने को थोपने लगे।


जीवन के परम रहस्यों में एक है कि न तो दूसरे के जीवन में बाधा देना और न किसी को अवसर देना कि तुम्हारे जीवन में बाधा दे। बड़ा कठित है। आसान है बात, या तो दूसरे के जीवन पर हावी हो जाओ, दूसरे की छाती पर बैठ जाओ, मूंग दलो; यह आसान है। या दूसरे को अपनी छाती पर बैठ जाने दो, वह मूंग दले, यह भी आसान है। और यही अक्सर घटता है। या तो तुम किसी की छाती पर मूंग दलोगे, या कोई तुम्हारी छाती पर मूंग दलेगा। इसलिए मैक्यावेली ने कहा है, इसके पहले कि दूसरा तुम्हारी छाती पर मूंग दले, देर मत करो; उचको, झपटो, बैठ जाओ दूसरे की छाती पर, तुम मूंग दलना शुरू करो। नहीं तो कोई न कोई तुम्हारी छाती पर दल देगा।

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