‘हंसता हुआ संन्यास’, पहला सूत्र तुम्हारे खयाल में होना चाहिए। अगर हंस न सको तो समझना कि संन्यासी नहीं हो। पूरी जिंदगी एक हंसी हो जानी चाहिए। संन्यासी ही हंस सकता है। उदासी एवं गंभीरता संन्यासी के लिए एक रोग जैसा है। इसलिए आज तक संन्यासी होना एक ऐसा बोझ—सा और भारी गंभीरता का काम रहा है, जिसमें सिर्फ रुग्ण और बीमार आदमी ही उत्सुक होते रहे है। स्वस्थ आदमी न तो उदास हो सकता, न गंभीर हो सकता।

नव—संन्यासी तो नाचता—गाता, प्रसन्न होगा। इसका यह मतलब नहीं है कि वह उथला होगा। सच तो यह है कि गंभीरता गहरेपन का सिर्फ धोखा है। वह गहरी होती नहीं, सिर्फ दिखावा है। जितना गहरा आदमी होगा उतना प्रफुल्ल होगा। जितना भीतर जाएगा, उतना बाहर प्रसन्न होता चला जाएगा। भीतर जाने की परीक्षा और कसौटी ही यही है कि वह कितना बाहर प्रसन्न और हल्का होता चला जाता है। जिंदगी बाहर उड़ने लगे, वेटलेस, भारशून्य हो जाए तभी समझना कि भीतर गति हो रहा’, है।

इस मुल्क में संन्यास को हंसता हुआ बनाना पहला बड़ा काम — हे। गांव—गांव, गली—गली, घर—घर हंसी गूंज जाए। संन्यासी हमारा जहां प्रवेश करे वहां प्रफुल्लता छा जाए, वहां उदासी न बचे। हमारे संन्यासी को कोई कहीं देखे तो खुशी से भर जाए। उसके चेहरे, उसके व्यक्‍तित्व, उसके ढंग, उसके पूरे जीवन से प्रसन्नता निकले। लेकिन यह इसलिए कहता हूं कि संन्यास के, साथ गंभीर होना ऐसोसिएट, संयुक्त हो गया है।

तुम्हारा चूंकि पहला ग्रुप, समूह होगा संन्यासियों —तब, तुम पर बहुत कुछ निर्भर करेगा कि तुम्हारे पीछे जो लोग आएंगे… अगर तुम उदास रहे तो वे उदास होते चले जाएंगे। आदमी बिलकुल ‘इमिटेटिव’ है, बिलकुल नकलची है। एक कमरे में अगर बीस आदमी उदास बैठे है तो जो आएगा वह भी उदास हो जाएगा। सोचेगा कि हमने कोई गडबड़ी की तो फंस जाएंगे।’तो तुम पर बहुत कुछ निर्भर करेगा। तुम पर सब कुछ निर्भर करेगा कि तुम्हारे पीछे जो लोग आएंगे, तुम जैसे: होओगे, वे वैसे बनते चले जाएंगे।

फिर जो धर्म हंस नहीं सकता वह ‘धर्म बहुत नहीं फैल सकता, क्योंकि इस जगत में कोई भी रोना नहीं चाहता। जो रो रहा है, वह भी मजबूरी में रो रहा है, वह भी रोना नहीं चाहता। जो उदास है वह भी मजबूरी में उदास है, वह भी उदास होना नन्हों चाहता। इसलिए अगर हम उदास तरह की व्यवस्था बना लें तो उसमें थोडा—सा उदास वर्ग उत्सुक हो जाता है। हम हंसते हुए, जीवन को कहीं अस्वीकार नहीं करते, नकारते नहीं, उसे पूरा परमात्मा मानकर स्वीकार करते हैं, उसे नृत्यपूर्वक स्वीकार करते हैं, अहोभावपूर्वक स्वीकार करते हैं।

तो मैंने जो कहा कि तुम जाओ सड्कों पर और गांव में और नाचो और गाओ, वह किसी भगवान की स्‍तुति में उतना नहीं जितना तुम्हारे आह्लाद की अभिव्यक्ति है। वह किसी भगवान की स्तुति का उतना सवाल नहीं है, जितना तुम्हारी प्रसन्नता को खिलने—फूलने का मौका मिले, उसका सवाल है। और ‘भगवान की स्‍तुति तो हो ही जाती है, जब भी हम आनंदित होकर एक क्षण भी जीते हैं तो हमारे आनंद का वह फूल उसके चरणों में पहुंच जाता है।

अभी वहां देखकर मुझे खयाल आया कि वैसी भूल तुमसे नहीं होना चाहिए। तुम अपने गीत में, नृत्य में व्यवस्था भी देना तो भी व्यवस्था को गौण रखना, प्राण को ही प्रमुख रखना। व्यवस्था होगी, लेकिन वह गौण होगी। उसको तोड्ने की हिम्मत तुममें सदा हो। किसी विशेष ढांचे में ही नाचना है, ऐसा भी नहीं है। लेकिन तोड्ने की हिम्मत भी किसी क्षण में होनी चाहिए। क्योंकि जब बहुत व्यवस्था ऊपर बैठ जाती है, बहुत नियम और बहुत ढांचा बन जाता है तो भीतर से प्राण सिकुड़ जाते हैं और मर जाते हैं।

तो तुमसे मुझे बहुत व्यवस्था की फिक्र नहीं है। तुम्हें बहुत प्राणवान होना है। हां, जितना प्राणवान होने पर भी व्यवस्था चल सके उतना चलाना, उससे ज्यादा नहीं। ध्यान प्राणवान होने पर रखना, व्यवस्था पर नहीं।
निश्‍चित ही संन्यास का जैसे ही हम नाम लेते हैं तो संन्यास के साथ जो हजार बातें जुड़ी रही हैं उन्हें तुम्हारा भी जोड्ने का मन होगा। उसको जरा सोच—समझकर जोड़ना, क्योंकि मैं तुम्हें निपट कोई मरी—मराई, पुरानी परंपरा से नहीं जोड रहा हूं। सच तो यह है कि संन्यास की एक नई ही अवधारणा तुम्हारे साथ जन्म लेती है। तुम्हारे साथ पृथ्वी पर एक नये ही संन्यासी को भेज रहा हूं। आज तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगा, कल दिखाई पडेगा, जब हजारों आएंगे उस धारा में तब तुम्हें दिखाई पडेगा कि घटना कितनी बड़ी थी। जो प्राथमिक घटना में सम्मिलित होते हैं, उन्हें बहुत देर में पता चलता है कि घटना कितनी बड़ी थी, यह तो पीछे पता चलता है। तो तुम्हारे ऊपर दायित्व भी बहुत बडा है—बोझ का नहीं, दायित्व का। दायित्व यही बड़ा है कि तुम किसी तरह का बोझ मत इकट्ठा कर लेना, नहीं तो पीछे लोग उसे घसीटते चले जाएंगे।

संन्यास का मतलब ही यही है मेरी दृष्टि में एक व्यक्ति ने जिंदगी को एक काम समझना बंद किया, खेल समझना शुरू किया—काम नहीं खेल, ‘वर्क ‘ नहीं ‘प्ले ‘। अब तुम्हारे लिए जिंदगी काम नहीं है। अब तुम दफ्तर में भी काम कर रहे हो, तो भी काम नहीं है। अगर तुम चौके में खाना भी बना रहे हो, तो भी काम नहीं है। अगर तुम बुहारी भी लगा रहे हो, तो भी काम नहीं है। तुम संन्यासी हो, तुम्हारे लिए कुछ भी अब काम नहीं है। काम करना नहीं पड़ेगा, काम होगा, लेकिन तुम्हारे लिए अब सब खेल है। तुम्हारा दृष्टिकोण खेल का ही होगा। और खेल में ही बुहारी भी लगाई जा सकती है और खेल में बड़ा काम भी किया जा सकता है, लेकिन तब खेल से पीड़ा नहीं आती।

जैसे ही जिंदगी खेल बनती है, वैसे ही उसमें हायरेरिकी, ऊपर—नीचे का मामला खत्म हो जाता है। तुम्हारे भीतर कोई ऊपर—नीचे नहीं है—किसी भी कारण से नहीं—न कोई शान में, न उम्र में, न किसी और वजह से। तुम्हारे पीछे भी लोग आएंगे वे भी तुमसे कोई पीछे नहीं होंगे। जो जब भी आए, वह जैसे ही खेल की दुनियां में सम्मिलित हुआ, वैसे ही काम की दुनियां के जो नियम थे वे लागू नहीं होंगे।

अहंकार अपने तरह के ढांचे बनाता है। वे ढांचे हम नहीं बनने देंगे। तो तुमसे मैं कहूंगा कि पैर छूना किसी के भी, तुम झुक जाना कहीं भी। सड़क चलते हुए कोई तुम्हें दिखाई पड जाए—तुम गए हो नाचने और कोई तुम्हें दिखाई पड़ जाए—तुम्हारा मन हो तो एक क्षण मत रुकना, तुम उसके पैर छूना। तुम कहीं भी झुकना। तुम्हारे लिए सब मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे बराबर है। तुम कहीं भी झुकना। तुम्हें सारे लोगों के हृदयों को अनेक—अनेक मार्गों से अपने करीब लाना है। तुम्हारी जिम्मेदारी इतनी बड़ी है जितनी किसी संन्यासी की कभी नहीं थी। क्योंकि कोई संन्यासी था जो महावीर के सामने झुकता था और राम के सामने अकड़ा रहता था। कोई संन्यासी था, जो कृष्ण के सामने झुकता था, बुद्ध के सामने अक्खा रहता था। कोई बुद्ध के सामने झुकता था तो कृष्ण के सामने अक्खा रहता था।

तुम्हें मैं पहली दफा पृथ्वी पर एक ऐसा संदेश देने को कह रहा हूं कि सब तुम्हारे हैं, क्योंकि कोई हमारा नहीं है। इसका मतलब ठीक से समझ लेना। सब हमारे तभी हो सकते हैं, जब कोई हमारा नहीं है। अगर कोई भी हमारा है तो फिर सब हमारे नहीं हो सकते हैं। सारे मंदिर, मस्जिद तुमको सौंपता हूं सब तुम्हारे हैं। तुम सब जगह जाना।