Friday 17 April 2015

तो एक बात जो मेरी दृष्टि में बहुत महत्वपूर्ण मालूम पड़ती है वह यह कि संन्यास को बचाना तो अत्यन्त जरूरी है, वह जीवन की गहरी से गहरी सुगंध है। वह जीवन का बड़ा से बड़ा सत्य है। उसे संसार से जोड़ना जरूरी है। अब संन्यासी संसार के बाहर नहीं जी सकेगा। अब उसे संसार के बीच—बाजार में, दुकान में, दफ़र में जीना होगा। तो ही बच सकता है। अब संन्यासी अनप्रोडक्टिव होकर, अनुवादक होकर नहीं जी सकेगा। अब उसे जीवन की उत्पादकता में भागीदार होना पड़ेगा। अब संन्यासी दूसरे पर निर्भर होकर नहीं जी सकेगा। अब उसे स्वनिर्भर ही होना पड़ेगा।

फिर मुझे समझ में नहीं आता कि कोई जरूरत भी नहीं है कि आदमी संसार को छोड़कर भाग जाए तभी संन्यास उसके जीवन में फल सके। यह अनिवार्य भी नहीं है। सच तो यह है कि जहां जीवन की सघनता है, वहीं संन्यास की कसौटी भी है। जहां जीवन का घना संघर्ष है, वहीं संन्यास के साक्षी—भाव का आनन्द भी है। जहां जीवन अपनी सारी दुर्गंधों में है, वहीं संन्यास का जब फूल खिलता है तभी उसके सुगंध की परीक्षा भी है। और संसार में बड़ी ही आसानी से संन्यास का फूल खिल सकता है। एक बार हमें खयाल आ जाए कि संन्यास क्या है तो घर से, परिवार से, पत्नि से, बच्चे से, दुकान से, दफ़र से भागने की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती। और जो संन्यास भागकर ही बच सकता है वह बहुत कमजोर संन्यास है। वैसा संन्यास अब आगे नहीं बच सकेगा। अब हिम्मतवर, करेजियस, साहसी संन्यासी की जरूरत है जो जिन्दगी के बीच खड़ा होकर संन्यासी है।

जहां है व्यक्ति वहीं रूपांतरित हो सकता है। रूपांतरण परिस्थिति का नहीं है, रूपांतरण मनःस्थिति का है। रूपांतरण बाहर का नहीं है, रूपांतरण भीतर का है। रूपांतरण संबंधों का नहीं है, रूपांतरण उस व्यक्तित्व का है जो संबंधित होता है।

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