Thursday 23 April 2015

जीवन में “रिचुअल’ की, क्रियाकांड की अपनी जगह है। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह नब्बे प्रतिशत “रिचुअल’ और क्रियाकांड से ज्यादा नहीं है। जीवन को जीने के लिए, जीवन से गुजरने के लिए बहुत कुछ जो अनावश्यक है आवश्यक मालूम होता है। आदमी का मन ऐसा है।

मनुष्यजाति के पूरे इतिहास में हजारों तरह के “रिचुअल’, हजारों तरह के क्रियात्मक खेल विकसित हुए हैं। ये सारे-के-सारे खेल अगर गंभीरता से ले लिए जाएं, तो बीमारी बन जाते हैं। अगर ये सारे खेल की तरह लिए जाएं, तो उत्सव बन जाते हैं। जैसे, जब पहली बार अग्नि का आविष्कार हुआ–और सबसे बड़े आविष्कारों में अग्नि का आविष्कार है। आज हमें पता नहीं किस आदमी ने सबसे पहले अग्नि पैदा की है, लेकिन जिसने भी पैदा की होगी, उससे बड़ी क्रांति अभी तक नहीं हो सकती है। बहुत कुछ आदमी ने फिर खोजा है। और फिर न्यूटन है, और गेलेलियो है और कोपरनिकस है और केपलर है और आइंस्टीन है और मेक्सब्लांट और हजारों खोजी हैं, लेकिन अब तक भी, हमारी अणु की खोज भी, हमारा चांद पर पहुंच जाना भी उतना बड़ा आविष्कार नहीं है जितना बड़ा आविष्कार उस दिन हुआ था जिस दिन पहले आदमी ने अग्नि पैदा कर ली थी।

आज हमें बहुत कठिनाई होगी यह सोचकर, क्योंकि अग्नि आज बिलकुल सहज बात है। माचिस में बंद है। लेकिन सदा ऐसा नहीं था। फिर हमारा जो भी विकास हुआ है मनुष्य का, जैसा मनुष्य आज है, उसमें नब्बे प्रतिशत अग्नि का हाथ है। फिर हमारे जो भी आविष्कार हुए हैं, वे सब बिना अग्नि के हो नहीं सकते। उन सब की बुनियाद में वह अग्नि का आविष्कर्ता खड़ा है।

स्वभावतः जब पहली बार अग्नि किसी ने खोजी होगी, तो हमने अग्नि का भी स्वागत किया था उसके चारों ओर नाचकर। यह जिंदगी की बिलकुल सहज घटना थी। अग्नि को और किसी तरह धन्यवाद दिया भी नहीं जा सकता था। और अग्नि ने एक केंद्रीय अर्थ मनुष्य की जिंदगी में उस दिन बना लिया था। मनुष्य के सारे पुराने धर्म, किसी-न-किसी रूप में अग्नि या सूरज के आसपास विकसित हुए हैं। रात थी अंधकारपूर्ण, खतरनाक, पशुओं का डर था। दिन था उजाले से भरा, निर्भय; हमला कोई कर सके, इसके पहले पता चल जाता था। तो सूर्य बड़ा मित्र मालूम हुआ। अंधकार बड़ा शत्रु बन गया। अंधकार में खतरे थे, भय था, उपद्रव था। सूर्य के साथ सब खतरे तिरोहित हो जाते थे, सब भय मिट जाते थे। तो सूर्य परमात्मा की तरह खयाल में आया था। और जब अग्नि का आविष्कार कर लिया, तो स्वभावतः, रात के अंधकार पर भी हमारी विजय हो गई थी। सूर्य से भी ज्यादा अग्नि प्रीतिकर हो गई थी। इस अग्नि के आसपास नाच का, गान का, नृत्य का, प्रेम का, उत्सव का विकसित हो जाना बिलकुल स्वाभाविक था। वह विकसित हुआ।

कभी आपने खयाल किया कि जब यूरी गागरिन पहली बार अंतरिक्ष की यात्रा करके लौटा तो सारी पृथ्वी उत्सव से भर गई थी। और यूरी गागरिन एक दिन में विश्वविख्यात व्यक्ति हो गया था। ठेठ दूर-देहात के गांवों में भी उसका नाम पहुंच गया था। लाखों लोगों ने अपने बच्चों का नाम यूरी गागरिन के ऊपर रखा–सारी दुनिया में, बिना जाति-पांति-धर्म की फिक्र किए। यूरी गागरिन की हैसियत पाने के लिए किसी आदमी को सत्तर-अस्सी साल मेहनत करनी पड़ती है, तब सारी दुनिया उसे जान पाती है। इस आदमी ने कुछ और नहीं किया, यह सिर्फ पृथ्वी की जो “आर्बिट’ है, उसको पार कर गया। लेकिन बड़ी घटना थी। यूरी गागरिन जहां गया, वहीं लोग दीवाने हो गए उसके दर्शन करने को। बड़े नगरों में लोग मरे, “एक्सीडेंट’ से, जहां यूरी गागरिन गया।

मनुष्य का मन उस सबके प्रति उत्सव से भर जाता है जो नया है, जिससे नए का आगमन होता है। नए बच्चे के जन्म पर ही हम बैंडबाजा नहीं बजाते और उत्सव से भर जाते, जब भी इस जगत में नया कुछ पैदा होता है, तो हमारा चित्त उत्सव से उसका स्वागत करता है और उचित है कि ऐसा हो। क्योंकि जिस दिन आदमी नए के स्वागत में भी उत्सवपूर्ण नहीं रहेगा, उस दिन समझना चाहिए कि आदमी के भीतर कुछ महत्वपूर्ण मर गया है।
यह मैंने इसलिए कहा कि हम यज्ञ को समझ सकें। यह उन लोगों का आविष्कार था, जिनकी जिंदगी में अग्नि पहली बार आयी थी और इस अग्नि के लिए वे उत्सव मना रहे थे। वे इसके चारों ओर नाच रहे थे। और जो कुछ श्रेष्ठ उनके पास था, उन्होंने अग्नि को दिया। क्या दे सकते थे? उनके पास गेहूं था, उन्होंने गेहूं दिया। उनके पास सोमरस था–उस दिन की सुरा थी–वह उन्होंने दी; उनके पास जो श्रेष्ठतम गाय होती, वह उन्होंने अग्नि को दी; उनके पास जो भी था, वह उन्होंने अग्नि को भेंट किया। एक देवता अवतरित हुआ था, जिसने जिंदगी को सब बदल दिया था। उसके उत्सव में उन्होंने सब यह किया। यह बहुत सहज था। लेकिन, यह बहुत “सोफिस्टिकेटेड’ नहीं था। यह बिलकुल ग्रामीण-चित्त से उठी हुई बात थी, और ग्राम ही थे जगत में, ग्रामीण-चित्त ही था।

गीता के समय तक ऐसा यज्ञ बेमानी हो गया था। क्योंकि गीता के समय तक अग्नि घर-घर की चीज हो गई थी। उसके आसपास नाचना व्यर्थ मालूम होने लगा था। उसमें गेहूं फेंकना, मंत्र पढ़ना सार्थक नहीं रह गया था। और हजारों लोग इसका विरोध कर चुके थे इस बीच की प्रक्रिया में। क्योंकि उनको कुछ भी पता नहीं था कि अग्नि का पहला आगमन जिनकी जिंदगी में हुआ था, वे उसे भगवान की तरह ही स्वीकार कर सकते थे। उनके लिए उतना बड़ा वरदान था। इसलिए गीता ने फिर शब्दों पर नई कलमें लगाईं और कृष्ण ने नए शब्द ईजाद किए, ज्ञानयज्ञ। यज्ञ था शब्द पुराना, ज्ञान से उसे जोड़ा। जैसे अभी विनोबा ने नई कलम लगाई, भूदान-यज्ञ। यज्ञ था शब्द पुराना, भूदान से उसे जोड़ा।

कृष्ण के समय तक जीवन काफी “सोफिस्टिकेटेड’, काफी विकसित हुआ था। और जब अग्नि के आसपास नाचना अपने-आप में अर्थपूर्ण न था। अब तो ज्ञान की अग्नि जलाने की बात कृष्ण ने उठाई। लेकिन स्वभावतः पुराने शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। अब अगर नाचना ही था तो ज्ञान की ज्योति के आसपास नाचना था। और अब कुछ भेंट भी करना था तो गेहूं के दानों से क्या भेंट होगी, अब अपने को ही दान कर देना था। ज्ञानयज्ञ का अर्थ है, ज्ञान की अग्नि में स्वयं को जो समर्पित कर देता है। ज्ञानयज्ञ का अर्थ है, कि अब साधारण अग्नि से नहीं, ज्ञान की अग्नि से, जिसमें व्यक्ति जलता है और समाप्त हो जाता है। यह अग्नि का प्रतीक लेकिन जारी रहा।


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