Tuesday 21 April 2015

ममत्व बुद्धि को त्यागकर अंतःकरण की शुद्धि के लिए, जो जानते हैं, वे पुरुष शरीर, मन, इंद्रियों से काम करते हैं।
इस संबंध में दोत्तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।

एक, मनुष्य ने जो भी किया है अनंत जीवन में, आज तक, इस घड़ी तक, उस कर्म का एक बड़ा जाल है। और आज ही मैं सब करना बंद कर दूं, तो भी मेरे पिछले अतीत जन्मों के कर्मों का जाल टूट नहीं जाता है। उसका मोमेंटम है। जैसे मैं साइकिल चला रहा हूं। पैडल बंद कर दिए हैं, अब नहीं चला रहा हूं, लेकिन साइकिल चली जा रही है–मोमेंटम है। दो मील से चलाता हुआ आ रहा हूं, साइकिल के चाकों ने गति पकड़ ली है। अगर दो-चार-पांच मिनट मैं बंद भी कर दूं, तो भी साइकिल चलती चली जाती है। फिर अगर उतार हो जीवन में, तब तो मीलों भी चली जा सकती है। चढ़ाव हो, तो जल्दी रुक जाएगी।

और जीवन में हमारे उतार है, चढ़ाव नहीं है। जैसे हम जीते हैं, वह सदा ही उतार में जीते हैं–और नीचे, और नीचे, और नीचे। बच्चे शिखर पर होते हैं, बूढ़े घाटियों में पहुंच जाते हैं। होना नहीं चाहिए। होना चाहिए उलटा, होता यही है। बच्चे एकदम पवित्र सुगंध लेकर आते हैं, बूढ़े सिवाय दुर्गंध के और कुछ भी लेकर जाते हुए मालूम नहीं पड़ते हैं। जिंदगी में हम कमाते कम, लुटते ज्यादा हैं। पाते कम, खोते ज्यादा हैं।

जिंदगी एक उतार है हमारी। रोज हम नीचे उतरते जाते हैं। कल जिसने चोरी की थी, वह आज और भी ज्यादा चोरी करेगा। कल जो झूठ बोला था, आज वह और भी ज्यादा झूठ बोलेगा। कल जो क्रोधी था, वह आज और क्रोधी हो जाएगा। और रोज यह क्रोध, यह हिंसा, यह घृणा, यह काम, यह वासना, रोज बढ़ते चले जाएंगे। फिर मन एक निश्चित आदत बना लेता है। फिर अपनी आदतों को दोहराए जाता है, बढ़ाए चला जाता है।
हम उतार पर हैं। बच्चे श्रद्धा से भरे होते हैं, बूढ़े चालाकी से भर जाते हैं। बच्चे सरल होते, बूढ़े जटिल हो जाते हैं। जिंदगी के सारे अनुभव उन्हें और गङ्ढों में पहुंचा देते हैं।

तो हम उतार पर हैं, एक तो यह बात खयाल में ले लें। और अनंत जन्मों का हमारे कर्मों का मोमेंटम है, गति है। अगर मैं आज सारे काम बंद भी कर दूं, तो कोई अंतर नहीं पड़ता; मेरा मन फिर भी उतरता चला जाएगा।
इसलिए कृष्ण ने इसमें एक बहुत अदभुत बात कही। उन्होंने कहा है कि ऐसे पुरुष, जो निष्काम कर्म में जीते हैं, वे अपने पिछले कर्मों की जो गति है, उसे काटने के लिए कर्म में रत होते हैं। वह जो उन्होंने गति दी है पिछले जन्मों में अपने कर्मों की, वह जो किया है, उसे अनडन करने के लिए, उसे पोंछ डालने के लिए, कर्म में रत होते हैं।

अगर उन्होंने क्रोध किया है अतीत जन्मों में, तो वे क्षमा के कर्म में लग जाते हैं। अगर उन्होंने कठोरता और क्रूरता की है, तो वे करुणा के कृत्य में लीन हो जाते हैं। अगर उन्होंने वासना और कामना में ही जीवन को बिताया है अनंत-अनंत बार, तो अब वे सेवा में जीवन को लगा देते हैं। ठीक जो उन्होंने किया है अब तक, उससे बिलकुल विपरीत, उतार की तरफ जाने वाला नहीं, चढ़ाव की तरफ जाने वाला कर्म वे शुरू कर देते हैं।
लेकिन उसमें भी एक शर्त कृष्ण की है। और वह जिसे खयाल में न रहेगी, वह भूल में पड़ सकता है। वह शर्त यह है कि ममत्व को छोड़कर! क्योंकि कोई आदमी ममत्व के साथ, और ऊपर की यात्रा करना चाहे, तो गलती में है, यह असंभव है।

ममत्व नीचे की यात्रा पर सहयोगी है, ममत्व ऊपर की यात्रा पर बाधा है। कर्म निर्मित करने हों, तो ममत्व कीमिया है, केमिस्ट्री है। उसके बिना कर्म निर्मित नहीं होते। और कर्म काटने हों, तो ममत्व तत्काल ही अलग कर देना जरूरी है, अन्यथा कर्म कटते नहीं।

ममत्व से अर्थ क्या है? ममत्व से अर्थ है, एक तो हूं मैं, जैसे मैं खड़ा हो जाऊं धूप में, तो एक तो मैं हूं जो खड़ा हूं, और धूप में मेरी एक छाया बनेगी। वह छाया मेरे चारों तरफ, जहां मैं जाऊंगा, घूमती रहेगी। मैं तो ईगो है और ममत्व ईगो की छाया है, अहंकार की छाया है। मैं तो मेरा खयाल है कि मैं हूं; और मैं अकेला नहीं हो सकता, इसलिए मैं मेरे के एक जाल को फैलाता हूं अपने चारों तरफ।

मेरे के बिना मैं के खड़े होने में बड़ी कठिनाई है। इसलिए मेरे की छाया जितनी बड़ी हो, उतना ही लगता है कि मैं बड़ा हूं। मेरा धन, मेरे मित्र, मेरा परिवार, मेरा मकान, मेरा महल, मेरे पद जितने बड़े हों…।

मैंने सुना है, एक दिन सुबह-सुबह एक लोमड़ी शिकार के लिए निकली है। चली है शिकार को। देखा है कि उसकी बड़ी लंबी छाया बनती है। सूरज निकल रहा है पीछे, बड़ी लंबी छाया है! उस लोमड़ी ने अपनी छाया देखी और सोचा, आज तो एक ऊंट शिकार को मिल जाए, तभी काम चलेगा! स्वभावतः, इतनी बड़ी छाया बनती है, तो लोमड़ी छोटी नहीं हो सकती! लोमड़ी के तर्क में कहीं कोई गलती नहीं है। गणित ठीक है। इतनी बड़ी छाया बन रही है कि एक ऊंट मिले शिकार में, तो ही काम चल सकेगा, लोमड़ी ने सोचा।

दिनभर खोजते दोपहर हो गई है। शिकार मिला नहीं। सूरज सिर पर आ गया है। लोमड़ी भूखी है। नीचे की तरफ देखा, छाया बड़ी छोटी बनती है, न के बराबर। उसने कहा, क्या हुआ! क्या भूख में मैं इतनी सिकुड़ गई? अब तो एक चींटी भी मिल जाए, तो शायद काम चल जाए!

लोमड़ी का तर्क ठीक है। हम अपनी छाया से ही सोचते हैं कि हम कितने बड़े हैं। छाया को नाप लेते हैं, सोच लेते हैं कि इतने बड़े हैं। अगर छाया बड़ी है मेरे की–मेरा मकान बड़ा है, तो मैं बड़ा; और अगर मेरा मकान छोटा है, तो मैं छोटा। मेरे धन का ढेर बड़ा है, तो मैं बड़ा; और मेरे धन का ढेर छोटा है, तो मैं छोटा। मुझे नमस्कार करने वाले लोग ज्यादा हैं, तो मैं बड़ा; और मुझे नमस्कार करने वाले लोग थोड़े हैं, तो मैं छोटा! छाया!

और जिंदगी के शुरू में सभी को वही भूल होती है, जो उस लोमड़ी को हुई थी। जब जिंदगी शुरू होती है, तो हर आदमी सोचता है कि मैं! मेरे जैसा कोई भी नहीं। सारी जमीन भी छोटी पड़ेगी। और जब जिंदगी अंत होने के करीब आती है, तो पता चलता है कि अब तो कुछ भी नहीं रहा, छाया सिकुड़ गई है!

हम छाया को देखकर जीते हैं, इसलिए हम छाया को बढ़ाते रहते हैं, बड़ा करने की कोशिश में लगे रहते हैं। मेरे का अर्थ है, मैं की छाया, शैडो आफ दि ईगो। मैं तो झूठा है। ध्यान रहे, कोई भी झूठ खड़ा करना हो, तो और पच्चीस झूठ का सहारा लेना पड़ता है। सत्य को खड़ा करना हो, तो सत्य अकेला खड़ा हो जाता है, इंडिपेन्डेंट, स्वतंत्र। कोई झूठ अकेला खड़ा नहीं होता। किसी झूठ को आप अकेला कभी खड़ा नहीं कर सकते; उसको तो बैसाखियां लगानी पड़ती हैं और नए झूठों की।

झूठ को खड़ा करना हो, तो पच्चीस झूठों का जाल खड़ा करना पड़ता है। और ऐसा नहीं है कि बात यहीं समाप्त हो जाती है। वे जो पच्चीस झूठ आपने खड़े किए, प्रत्येक उनमें से एक के लिए भी पच्चीस। और यह इनफिनिट रिग्रेस है। और यह रोज करते रहना पड़ेगा।

मैं बड़ा से बड़ा झूठ है मनुष्य की जिंदगी में। अगर इस अस्तित्व में किसी को मैं कहने का हक हो सकता है न्यायसंगत, तो वह सिवाय परमात्मा के और किसी को नहीं हो सकता है। लेकिन उसने कभी कहा नहीं कि मैं हूं। लोग बहुत दफे चिल्लाकर पूछते हैं, कहां हो तुम? तो भी बोलता नहीं। लोग खोजने भी निकल जाते हैं, पहाड़ की कंदराओं को खोद डालते हैं, नदियों के उदगम तक चले जाते हैं, सारी जमीन छान डालते हैं, आकाश-पाताल एक कर देते हैं, फिर भी उसका पता नहीं चलता कि कहां है वह!

जिसे अधिकार है कहने का कि कह सके मैं, वह चुप है। और जिन्हें कोई अधिकार नहीं है, वे जिंदगीभर सुबह से सांझ तक बोलते रहते हैं–मैं, मैं, मैं। शायद इसीलिए परमात्मा नहीं बोलता, क्योंकि वह आश्वस्त है कि है। और हम इसीलिए बोलते हैं कि हमें कोई भरोसा नहीं है। बोल-बोलकर भरोसा पैदा करते रहते हैं कि हूं! चौबीस घंटे दोहरा-दोहराकर भरोसा पैदा करते रहते हैं अपने ही मन में, आटोहिप्नोटिक, खुद को सम्मोहित करते रहते हैं कि मैं हूं। इसलिए अगर कोई आपके मैं को जरा-सी भी चोट पहुंचा दे, तो आप तिलमिला उठते हैं। क्योंकि आपका झूठ बिखर सकता है।

इस मैं के बड़े झूठ को खड़ा करने के लिए मेरे का जाल फैलाना पड़ता है, उसको कृष्ण ममत्व कहते हैं। मेरे का जाल।

मैं अकेला खड़ा नहीं रह सकता। अगर आपसे आपका मकान छीन लिया जाए, तो आप यह मत सोचना कि सिर्फ मकान छिना, आपके मैं की भी दीवालें गिर गई हैं। अगर आपसे आपका धन छीन लिया जाए, तो सिर्फ तिजोड़ी खाली नहीं होती, आप भी खाली हो जाते हैं। आपसे आपका पद छीन लिया जाए, तो पद ही नहीं छिनता, आपके भीतर की अकड़ भी छिन जाती है।

वह मैं मेरे के छिनने से क्षीण होता है। मेरे के बढ़ने से बड़ा होता है। तो जिसे भी धोखे में रखना है अपने को कि मैं हूं, उसे मेरे को बनाए जाना चाहिए, बढ़ाए जाना चाहिए। और जिसे धोखा तोड़ना हो, उसे ममत्व को छोड़कर देखना चाहिए कि मेरे को छोड़कर मैं बचता हूं?

जिसने मेरे को छोड़ा, वह अचानक पाता है, मैं भी खो गया। और जब तक मैं न खो जाए, तब तक कर्मों की धारा बंद नहीं होती। और जब तक मेरा न खो जाए और मैं न खो जाए, तब तक ऊर्ध्व यात्रा, ऊपर की यात्रा शुरू नहीं होती। मैं का पत्थर हमारी गर्दन में लटका हुआ हमें नीचे डुबाए चला जाता है।

अहंकार से बड़ा पाप नहीं है। बाकी सारे पाप उसी से पैदा होते हैं। संततियां हैं। मूल अहंकार है। फिर लोभ, और क्रोध, और काम, सब उस अहंकार के आस-पास जन्म लेते चले जाते हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, ममत्व को छोड़ दे जो!


मेरा क्या है? हाथ, जब मैं विदा होंऊगा, बिलकुल खाली होंगे। और जिसे मैं ले जा न सकूंगा, वह मेरा कैसे है? और जिसे मैं मेरा कह रहा हूं, वह मेरे पहले भी था; मैं उसे लाया नहीं, वह मेरा कैसे है? और जिसे मैं मेरा कह रहा हूं, मुझसे पहले न मालूम कितने लोगों ने उसे मेरा कहा है। वे सब खो गए। वह अभी भी बना है। हम भी खो जाएंगे, वह फिर भी बना रहेगा।

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