Thursday 16 April 2015

हिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम और अप्रमाद संन्यास की कला के आधारभूत सूत्र हैं। और संन्यास एक कला है। समस्त जीवन ही एक कला है। और केवल वे ही लोग संन्यास को उपलब्ध हो पाते हैं जो जीवन की कला में पारंगत हैं। संन्यास जीवन के पार जानेवाली कला है। जो जीवन को उसकी पूर्णता में अनुभव कर पाते हैं, वे अनायास ही संन्यास में प्रवेश कर जाते हैं—करना ही होगा। वह जमीन का ही अगला कदम है। परमात्मा संसार की सीढ़ी पर चढ़कर पहुंचा गया मंदिर है।

तो पहली बात तो आपको यह स्पष्ट कर दूं कि संसार और संन्यास में कोई भी विरोध नहीं है। वे एक ही यात्रा— के दो पड़ाव है। संसार में ही संन्यास विकसित होता है और खिलता है। संन्यास संसार की शत्रुता नहीं है, बल्कि संन्यास संसार का प्रगाढ़ अनुभव है। जितना ही जो संसार को अनुभव कर पाएगा, वह पाएगा उसके पैर संन्यास की ओर बढ़ने शुरू हो गए हैं। जो जीवन को ही नहीं समझ पाते, जो संसार के अनुभव में ही गहरे नहीं उतर पाते वे ही केवल संन्यास से दूर रह जाते हैं। इसलिए पहली बात तो आपको स्पष्ट कर दूं!

मेरी दृष्टि में संन्यास का फूल संसार के बीच में ही खिलता है। उसकी संसार से शत्रुता नहीं, संसार का अतिक्रमण है संन्यास। उसके भी पार चले जाना है। सुख को खोजते—खोजते जब व्यक्ति पाता है कि सुख मिलता नहीं वरन जितना सुख को खोजता है उतने ही दुख में गिर जाता है; शांति को चाहते—चाहते जब व्यक्ति पाता है, कि शांति मिलती नहीं वरन शांति की चाह और भी गहरी अशांति को जन्म दे जाती है; धन को खोजते—खोजते पाता है कि निर्धनता भीतर की और घनीभूत हो जाती है, तब जीवन में संसार के पार आख उठनी शुरू होती है।

वह जो संसार के पार आंखों का उठना है उसका नाम संन्यास है। इसलिए यह जो पांच सूत्र जिनकी हम यहां चर्चा कर रहे हैं, ठीक से समझें तो संन्यास के ही सूत्र हैं। और जिसकी आंखें संसार के पार उठनी शुरू नहीं हुईं उसके किसी भी काम के नहीं हैं। मुझे बहुत से मित्रों ने आकर कहा कि बात कुछ गहरी है और हमारे सिर के ऊपर से निकल जाती है। तो मैंने उनसे कहा, कि अपने सिर को ऊंचा करो ताकि सिर के ऊपर से निकल न जाए।
जिनकी आंखें संसार के जरा भी ऊपर उठती हैं उनके सिर ऊंचे हो जाते हैं और तब ये बातें सिर के ऊपर से नहीं निकलेंगी, हृदय के गहरे में प्रवेश कर जाएंगी। यह बातें गहरी कम, ऊंची ज्यादा हैं। असल में ऊंचाई ही गहराई बन जाती है। और ऊंची अपने आप में नहीं हैं। हम बहुत नीचे संसार में गड़े हुए खड़े हैं इसलिए ऊंची मालूम पड़ती हैं। ऊंचाई सापेक्ष है, रिलेटिव है।

और एक बात ध्यान रहे कि संसार से थोड़ा ऊपर न उठें, संसार से थोड़ा ऊपर न देखें—रहें संसार में, हर्जा नहीं! जमीन पर खड़े होकर भी आकाश के तारे देखे जा सकते हैं। खड़े रहें संसार में, लेकिन आंखें थोड़ी ऊपर उठ जाएं तो यह सारी बातें बड़ी सरल दिखाई पड़नी शुरू होती हैं। वरन यही बातें तब सरल मालूम पड़ती हैं।

संसार की बातें रोज कठिन होती चली जाती हैं। कठिन होंगी ही, क्योंकि जिनका अंतिम फल सिवाय दुख के और जिनकी अंतिम परिणति सिवाय अज्ञान के और जिनका अंतिम निष्कर्ष सिवाय गहन अंधकार के कुछ भी न हो पाता हो वे बातें सरल नहीं हो सकतीं, वे जटिल हैं बहुत। दिखाई चीज कुछ पड़ती है, है कुछ और, धम कुछ पैदा होता है, सत्य कुछ और है। लेकिन हम संसार में इस भांति खोए होते हैं कि और कोई सत्य हो सकता है, इसकी कल्पना भी नहीं उठती।

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