Tuesday 8 December 2015

कामना के मूल में नैसर्गिक काम है, ऐसा कहा जाता है। क्या निसर्ग के
अनुकूल बहना जागरण में सहयोगी नहीं है? कृपा करके समझायें।
निसर्ग और निसर्ग का भेद समझो। वृक्ष हैं, पशु—पक्षी हैं, निसर्ग में हैं लेकिन मूर्च्छित हैं। बुद्ध हैं, कृष्ण हैं, अष्टावक्र हैं, मीरा—कबीर हैं, वे भी निसर्ग में हैं लेकिन अमूर्च्छित हैं जागे हुए हैं। पक्षी जो गीत गुनगुना रहे हैं, वह बिलकुल सोया—सोया है। उसका उन्हें कुछ भी पता नहीं। मीरा जो नाची है, जागकर नाची है। फूल खिल रहे वृक्षों में, वे मूर्च्छित हैं। बुद्ध में जो कमल खिला है वह होश में खिला है।
तो एक तो निसर्ग है आदमी से नीचे। और एक निसर्ग है आदमी से ऊपर। दोनों एक ही निसर्ग हैं लेकिन एक बात का फर्क है—मूर्च्छा— अमूर्च्छा, बेहोशी—होश। और आदमी दोनों के बीच में है। एक तरफ पशु—पक्षियों का संसार है, पौधों —पत्थरों का, पहाडों का, चांद—तारों का, वहां भी बड़ी शांति है। निसर्ग है, प्रकृति है। जैसा होना चाहिए वैसा ही हो रहा है। अन्यथा कुछ हो ही नहीं सकता। अन्यथा करने की स्वतंत्रता भी नहीं है। अगर कोई पक्षी प्रकृति के प्रतिकूल भी जाना चाहें तो जा नहीं सकते, क्योंकि प्रतिकूल जाने के लिए बोध चाहिए। इसलिए यह कहना कि प्रकृति के अनुकूल हैं भी बिलकुल ठीक नहीं है। अनुकूल हैं मजबूरी में क्योंकि प्रतिकूल हो नहीं सकते। कोई उपाय ही नहीं है। उन्हें याद भी नहीं है, पता भी नहीं है, होश भी नहीं है। जो हो रहा है, हो रहा है।
जैसे एक आदमी को हम स्ट्रेचर पर रखकर ले आयें—क्लोरोफाम दिया हुआ आदमी, बेहोश पड़ा है—उसको एक बगीचे में से घुमा दें। जब वह इस बगीचे में से घूमेगा तो फूलों की गंध भी उसके नासापुटों को छुएगी। सूरज की किरणें भी उसके चेहरे पर खेलेंगी। हवाओं के शीतल झोंके भी उसको स्पर्श करेंगे। शायद कुछ लाभ भी होगा—अचेतन जो भी लाभ हो सकता है प्रकृति के पास होने का। शायद जब होश में आयेगा तो कहेगा कि बडा सुंदर सपना देखा। बड़ा अच्छा लग रहा था। पता नहीं क्या था। कुछ साफ—साफ नहीं है, धुंधला— धुंधला है।
लेकिन फिर इसी आदमी को हम होश से भरकर इस बगीचे में लायें, तब बगीचा वही है, आदमी वही है। जरा—सा फर्क पड़ा है। अब होश में है, तब बेहोश था। अब यही फूल, यही वृक्ष, यही सूरज की किरणें एक अपूर्व आनंद को जन्म देंगी।
पशु—पक्षी इस संसार में क्लोरोफाम की अवस्था में हैं, बुद्धपुरुष जाग्रत अवस्था में और हम आदमी बीच में—न तो ठीक से जागे हैं, न ठीक से सोये हैं। इसलिए मनुष्य बड़ी चिंता में है। चिंता का एक ही अर्थ होता है, तनाव। एक खिंचाव पीछे की तरफ, एक खिंचाव आगे की तरफ। पीछे पशु —पक्षी पुकार रहे हैं कि लौट आओ। छोड़ दिया घर अपना, बड़ा सुख था यहां। फिर सो जाओ। इसलिए तो आदमी शराब पीता है कि फिर सो जाये।
शराब का आकर्षण इसीलिए है कि शराब एकमात्र उपाय है आदमी के पास कि फिर पशु—पक्षी हो जाये। और तो कोई उपाय नहीं है। कैसे बेहोश हो जायें! इसलिए हम बेहोश होने की कई तरकीबें खोजते हैं। शराब हो, सेक्स हो, सिनेमा हो, जहां भी हम अपने को भूल पाते हैं थोड़ी देर को, हम वहां जाकर बड़ा मनोरंजन अनुभव करते हैं—विस्मरण में। लेकिन सब एक तरह की शराब है।
तो पीछे प्रकृति खींच रही है कि तुम क्यों परेशान हो गये? आदमी, तू व्यर्थ परेशान है, लौट आ। यहां सब सुंदर है। इसीलिए तो तुम कभी जब समुद्र किनारे जाते हो, सुंदर लगता। हिमालय की शुभ्र चोटियों को देखते बर्फ से ढंका हुआ, सुंदर लगता है। वृक्षों की हरियाली भी बड़ी निकट खींचती मालूम पडती है। पशु—पक्षियों का जीवन गहन आकर्षण रखता। लेकिन जा भी नहीं सकते पीछे। शराब पीकर भी कितनी देर भूलोगे? फिर—फिर होश आ जाता है। होश आ चुका है।
फिर एक और आकर्षण है, बुद्धपुरुष आ जाते हैं। महावीर, कृष्ण, कबीर, क्राइस्ट तुम्हारे बीच से गुजर जाते हैं। उनकी मौजूदगी एक और अपूर्व प्यास को जगाती कि ऐसे ही हम कब हो जायें? यह बड़ी दूसरी पुकार है। है प्रकृति की ही पुकार, लेकिन अब मूर्च्छा की तरफ से नहीं, अमूर्च्छा की तरफ से।
और जब तक आदमी बीच में है तब तक संकट में है। तब तक त्रिशंकु की तरह है—न जमीन पर न आकाश में, अटका बीच में। दोनों तरफ खींचा जा रहा, तोड़ा—मरोड़ा जा रहा, खंड—खंड हो रहा, विक्षिप्त हुआ जा रहा, विभक्त। या तो पीछे गिर जाये, जो हो नहीं सकता, या आगे उठ जाये, जो हो सकता है। लेकिन आगे उठना कठिन है। असंभव नहीं, कठिन है। पीछे गिरना सरल है, लेकिन असंभव है। फर्क समझ लेना। फिर से पशु बन जाना सरल है लेकिन असंभव है। सरल इसलिए कि हम पशु रहे हैं पहले र वह हमारी आदतों का हिस्सा है। हमारे अचेतन में वे आदतें अब भी पड़ी हैं। जब तुम क्रोध में आगबबूला हो जाते हो तो पशु बन जाते हो। सरल है क्रोध करना, लेकिन कितनी देर रहोगे? फिर क्रोध के बाहर तो आना ही पड़ेगा। कोई सतत तो क्रोध में नहीं रह सकता। कामवासना में उतर जाना सरल तो है लेकिन कामवासना में जो विस्मरण आता है क्षण भर को, वह कितनी देर का रहेगा? वह क्षणभंगुर है। बबूले की तरह आया, गया, फूटा। फिर तुम वापिस अपने जगह खडे हो पहले से भी जीर्ण —जर्जर, पहले से भी टूटे —फूटे, पहले से भी ज्यादा विषादग्रस्त। ऐसा कौन आदमी होगा जिसको कामसंभोग के बाद पश्चात्ताप नहीं होता है? ऐसा कौन आदमी होगा जिसको क्रोध करने के बाद पश्चात्ताप नहीं होता है कि यह मैंने क्या किया! ऐसा कौन आदमी होगा जो क्रोध करके भी यह समझाने की लोगों को कोशिश नहीं करता है कि मैंने क्रोध नहीं किया।
क्यों? यह कोशिश क्यों है समझाने की? क्योंकि क्रोध का मतलब है कि तुम पशु हुए। यह बात अहंकार को चोट देती है कि मैं और पशु जैसा व्यवहार किया? तो हम लीपापोती करते हैं, समझाने की कोशिश करते हैं कि क्रोध नहीं किया। यह तो ऐसे ही दिखावा था; कि ऐसे ही खेल—खेल में कर लिया, कि यह तो उसके ही हित के लिए किया था। वह मेरा बेटा है, अगर उसको न मारता चांटा तो वह बिगड़ जाता। तुम्हारे बाप भी तुमको मारे, न तुम बचे बिगड़ने से, न तुम्हारा बेटा बचनेवाला है, न तुम्हारे बाप बचे थे। कोई भी नहीं बचता।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने बेटे को बड़े जोर से चांटा मारा। बेटा खड़ा रहा, उसने कहा, ‘एक बात पूछनी है पिताजी’ —उसकी आंख से आंसू बह रहे हैं—’कि आपके पिता भी आपको इसी तरह मारते थे?’ उसने कहा, ‘ही, मारते थे।’ ‘ और उनके पिता भी उनको इसी तरह मारते थे?’ उसने कहा, ‘हौ उनको भी मारते थे।’ ‘ और उनके पिता?’ तो मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘मुझे पता तो नहीं लेकिन मारते रहे होंगे।’
‘और उनके पिता?’
तो उसने कहा, ‘मतलब क्या है तेरा? अरे सभी पिता मारते रहे हैं।’
तो उस बेटे ने कहा, ‘पिताजी, इतनी सदियों से यह क्रूर व्यवहार चल रहा है, अब समय हो गया कि बंद किया जाये। और इससे सार क्या हुआ? सदियों—सदियों से आप कहते हैं कि पिता मारते रहे मारते रहे, बेटे पिटते रहे और बेटे फिर बेटों को पीटते रहे, यह चलता रहा और कुछ फर्क तो हुआ नहीं। सब वैसा का वैसा है। तो अब समय आ गया कि जो सदा से चली आई धारा है, अब तोड़ो।’ बात तो ठीक कह रहा है बेटा। न तुम्हारे पिता तुम्हें रोक सके, न तुम अपने बेटे को रोक सकोगे। न तुम्हारे पिता तुम्हें रोकने के लिए मार रहे थे, न तुम रोकने के लिए मार रहे हो। रोकने के लिए मार रहे हो यह तो व्याख्या है एक पाशविक व्यवहार की, जिसको तुम करने से नहीं रुक पा रहे हो। उस पशुता को छिपाने के लिए यह आवरण है, मुखौटा है। तुम एक सुंदर बात कह रहे हो एक असुंदर बात को छिपा लेने के लिए। तुम कीटों के ऊपर फूल रख रहे ताकि काटे दिखाई न पड़े। यह मलहम—पट्टी है। यह कोई बहुत सार्थक नहीं है।
लेकिन क्रोध हरेक को पछतावे से भरता है। कुछ न कुछ करना पड़ता है क्रोध के बाद। कामवासना भी पछतावे से भरती है। शराबी भी रोज—रोज तो शराब पीकर फिर—फिर कसम खाता है अब न पीयूंगा। पीनी पड़ती है यह दूसरी बात है लेकिन कसम तो खाता है बार—बार। निर्णय तो बहुत बार करता है, बार—बार टूट जाता है यह दूसरी बात है, लेकिन निर्णय नहीं करता ऐसा मत सोचना। बुरे से बुरा आदमी भी निर्णय करता है बाहर आ जाने के।
क्यों? क्योंकि यह पीछे गिरना किसी को भी शोभा नहीं देता। यह अहंकार को कष्टपूर्ण है। सरल तो है लेकिन असंभव है। क्षण भर को हम भुलावा डाल सकते हैं लेकिन फिर भुलावा टूट जाता है। इस स्थिति में हम सदा के लिए वापिस नहीं लौट सकते।
इसलिए मैं कहता हूं एक प्रकृति तुम्हारे पीछे रह गई है, एक प्रकृति तुम्हारे आगे है, तुम मध्य में अटके हो। जो आगे है वह कठिन है लेकिन संभव है। बुद्ध होना कठिन है, दुर्गम है मार्ग, है खड्ग की धार, कृपाण पर चलना, लेकिन संभव है। बुद्ध को हुआ, महावीर को हुआ, कृष्ण, क्राइस्ट को हुआ। मोहम्मद, मूसा को हुआ, तुम्हें हो सकता है। फिर तुम प्रकृति में प्रवेश कर जाओगे। फिर निसर्ग में प्रवेश कर जाओगे।
मनुष्य अकेला एक प्राणी है जो निसर्ग में नहीं है, मध्य में है, अटका है, आधा— आधा है, अधूरा है। तुमने किसी कुत्ते को सोचा, अगर तुम कहो कि यह कुत्ता अधूरा है तो क्या यह बात सार्थक मालूम होगी! सब कुत्ते पूरे हैं। तुम किसी कुत्ते को नहीं कह सकते कि तुम अधूरे हो। सब कुत्ते पूरे कुत्ते हैं। लेकिन किसी आदमी को तो तुम कह देते हो कि तुम बहुत अधूरे आदमी हो। और यह बात सार्थक है। सब कुत्ते पूरे, सब बिल्लियां पूरी, सब शेर, सिंह पूरे, आदमी अधूरा है। आदमी को पूरा होना है। बुद्ध को हम कहते पूर्ण, कृष्ण को कहते पूर्ण, अष्टावक्र को कहते पूर्ण। आदमी को पूर्ण होना है। आदमी को जैसा होना है, अभी है नहीं।
तुम्हारा प्रश्न है कि ‘कामना के मूल में नैसर्गिक काम है।’
सच है बात। कामना के मूल में नैसर्गिक काम है लेकिन नैसर्गिक काम पशुओं में भी है। और नैसर्गिक काम ही बुद्धपुरुषों में राम हो गया है। उसने एक नया रूप लिया है, एक नई भाव— भंगिमा ली है। वही ऊर्जा रूपांतरित हो गई है, एक कीमिया से गुजर गई है।
एक तो हीरा है पड़ा हुआ कचरे—पत्थर में, कूड़े में, मिट्टी से भरा, और एक हीरा है फिर किसी जौहरी के द्वारा तराशा गया, सब गलत अलग किया गया। कोहिनूर जब पाया गया था तो आज जितना उसका वजन है उससे तीन गुना वजन था। मगर तब वह एक बदशकल पत्थर था। हजार चूके थीं उसमें। काटते —काटते, छाटते—छाटते, निखारते—निखारते अब केवल एक बटा तीन बचा है, लेकिन अब उसकी बात कुछ और। अब कुछ बात है। अब उसकी एक भाव— भंगिमा है, जो अनूठी है। अब वह पूर्ण हीरा है। अब जो —जो गलत था, जो—जो व्यर्थ था, जो —जो नहीं होना था, वह सब काट दिया गया है, अलग कर दिया है। आज अगर तुम्हारे सामने वह पुराना पत्थर पड़ा हो और यह कोहिनूर रखा हो तो तुम पहचान ही न सकोगे कि इन दोनों के बीच कोई संबंध भी हो सकता है।
तुम अभी एक अनगढ़ पत्थर हो, इस पर निखार आ जाये। यही ऊर्जा काम की अगर पारखी के हाथ में पड जाये, जौहरी के हाथ में पड़ जाये, तो यही ऊर्जा ऐसे अदभुत रूप और सौंदर्य को प्रगट करती है, ऐसी महिमा को प्रगट करती है। इसी महिमा को तो हम बुद्धत्व कहते हैं। कोई मनुष्य आ गया, पूर्ण हुआ। इसी महिमा को तो हम भगवत्ता कहते हैं।
भगवत्ता का इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे भीतर जो मूर्च्छित निसर्ग था वह अगच्छइrत निसर्ग हो गया। जो प्रकृति सोयी पड़ी थी, जागकर खड़ी हो गई। राम जब सोये पड़े होते हैं तो काम है। और जब काम जागकर खड़ा हो जाता है तो राम। बस इतना ही फर्क है।
तुमने देखा, रात जब तुम सोते हो तो जमीन पर सो जाते हो। जब तुम सुबह खड़े होते हो तो तुम्हारा कोण बिलकुल बदल जाता है। तुम जमीन से नब्बे का कोण बनाने लगते जब तुम सुबह खड़े होते हो। रात जब तुम सोते हो, तुम जमीन के समानांतर हो जाते हो। तुम्हीं हो रात सोये हुए, तुम्हीं हो सुबह खड़े हुए लेकिन कितना फर्क है! मूर्च्छा में तो तुम बिलकुल पत्थर—मिट्टी हो जाते हो। सुबह जब जागकर खड़े होते हो तो तुम जीवंत होते हो।
और भी एक बड़ी जाग है अभी होने को। अभी तो जाग की तुमने पहली किरणें ही जानी हैं। अभी जाग का पूरा सूरज कहां उगा? अभी तो प्राची लाल ही हुई है। जब पूरा सूरज उगता है और जब बुद्धत्व का प्रकाश भीतर होता है तब तुम जानोगे वस्तुत: निसर्ग क्या है!
पशु—पक्षी नैसर्गिक हैं, उन्हें होश नहीं। बुद्धपुरुष भी नैसर्गिक हैं, उन्हें होश है। आदमी दोनों के बीच में उलझा है, न इस तरफ न उस तरफ। इसलिए आदमी बड़ा बेचैन है। जब तक तुम आदमी हो, बेचैनी रहेगी। बेचैनी आदमी का भाग्य है —दुर्भाग्य कहो। इससे पार होना पड़ेगा। पीछे गिरना सरल है लेकिन असंभव। आगे जाना कठिन है लेकिन संभव; इसलिए आगे को चुनो।
जिसे तुमने अब तक जीवन समझा है वह तो क्षणभंगुर है। जिसे तुमने अब तक कामवासना का खेल समझा है वह तो बिलकुल स्वन्नवत है। झूठ में और उसमें बहुत फर्क नहीं है, आभास मात्र है।

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