Friday 25 December 2015

दुनिया में तीन तरह के लोग हैं। पहले, जिन्हें हम मूढ़ कहें, बुद्धिहीन कहें। वे अनुभव से भी नहीं सीखते हैं। बार—बार अनुभव हो, तब भी नहीं सीखते हैं। वे पुन: —पुन: वही भूल करते हैं। वे भूलें भी नयी नहीं करते हैं! वे भूलें भी पुरानी ही दोहराते हैं। उनके जीवन में नया कुछ होता ही नहीं। उनका जीवन कोल्हू के बैल जैसा होता है। बस, उसी में डोलता रहता है। वही चक्कर काटता रहता है। गाड़ी के चाक जैसा घूमता रहता है।
एक आदमी अपनी पत्नी से बहुत पीड़ित था। और कई बार अपने मित्रों से कह चुका था कि अगर यह मेरी स्त्री मर जाए, तो मैं दुबारा सपने में भी विवाह की न सोचूंगा। फिर स्त्री मर गयी, संयोग की बात। और पाच—सात दिन बाद ही वह आदमी नयी स्त्री की तलाश करने लगा। तो उसके मित्रों ने पूछा. अरे! अभी पांच—सात दिन ही बीते। और तुम तो कहते थे, सपने में न सोचूंगा। उन्होंने कहा. छोड़ो भी। जाने भी दो। उस समय की बात उस समय की थी। सब बदल गया अब। सभी स्त्रियां एक जैसी थोड़े ही होती हैं। उसने दुख दिया, तो सभी दुख देंगी, ऐसा थोड़े ही है।
उसने फिर विवाह कर लिया और फिर दुख पाया। तब वह अपने मित्रों से बोला कि तुम ठीक ही कहते थे। अब यह भी अनुभव हो गया कि सभी स्त्रियां एक जैसी हैं। कुछ भेद नहीं पड़ता। सब संबंधों में दुख है। और यह विवाह का संबंध तो महादु:ख है। अब कभी नहीं। अगर भगवान एक अवसर और दे, तो अब कभी न करूंगा विवाह।
पुरानी कहानी है, भगवान ने सुन लिया होगा। एक अवसर और दिया! पत्नी फिर मर गयी। साधारणत: पहली पत्नी नहीं मरती! अक्सर तो ऐसा होता है कि पत्नी पति को मारकर ही मरती है।
तुमने देखा, विधवाएं दिखायी पड़ती हैं। स्त्रियों की शारीरिक उम्र पुरुषों से ज्यादा है; पांच साल ज्यादा है, औसत। अगर आदमी सत्तर साल जीएगा, तो स्त्री पचहत्तर साल जीएगा। और एक मूढ़ता के कारण कि जब हम विवाह करते हैं, तो हम पुरुष की उम्र तीन—चार—पांच साल ज्यादा..। लड़का होना चाहिए इक्कीस का और लड़की होनी चाहिए सोलह की या अठारह की। तो पांच साल का तो स्वाभाविक भेद है, पांच साल का भेद हम खड़ा कर देते हैं। तो पुरुष दस साल पीछे पिछड़ जाता है। तो अगर पुरुष मरेगा, तो उसके दस साल बाद तक उसकी पत्नी के जिंदा रहने की संभावना है।
तो पहली पत्नी ही नहीं मरती! पहली भी मरी। दूसरी मरी। यह कथा सतयुग की होगी। कलयुग में ये बातें कहां! दूसरी स्त्री के मरने के पांच—सात दिन बाद ही वह आदमी फिर स्त्री तलाश करने लगा। मित्रों ने कहा : अरे भई! अब तो सम्हलो। वह आदमी मुस्कुराया और उसने कहा : सुनो। अब मुझे एक बात समझ में आ गयी मन में कि आशा की हमेशा अनुभव पर विजय होती है। अब मुझे फिर आशा बंध रही है कि कौन जाने, तीसरी स्त्री भिन्न हो,! अरे! किसने जाना!
आशा पर अनुभव नहीं जीत पाता; अनुभव पर आशा जीत जाती है—यह क् का लक्षण है।
दूसरे वे लोग हैं, जिन्हें हम बुद्धिमान कहें। वे अनुभव से सीखते हैं। अनुभव के बिना नहीं सीखते। बुद्धिमान को पुनरुक्ति नहीं करनी पड़ती। एक ही अनुभव काफी होता है। मगर एक अनुभव जरूरी होता है। बिना अनुभव के नहीं बुद्धिमान सीख सकता। मगर एक काफी है। एक बार चख लिया समुद्र के पानी को, तो सारे समुद्रों का पानी चख लिया। बात समाप्त हो गयी। उस स्वाद ने निर्णय दे दिया। अब दुबारा यही भूल नहीं करेगा।
मूढ़ बंधी—बंधायी भूलें करता है। कुछ सीखता ही नहीं। इसका मतलब हुआ—वही—वही भूलें करने का मतलब हुआ—कि कुछ सीखता नहीं कि भूलों को बदल ले। नयी भूलें करे। पुरानी छोड़े। कुछ नए उपाय करे।
बुद्धिमान एक भूल को एक बार करता है। ऐसा नहीं कि बुद्धिमान भूलें नहीं करता। मगर जब करता है, तो नयी भूलें करता है। इसलिए बुद्धिमान विकासमान होता है। वह आगे बढ़ता है। हर अनुभव उसे नया ज्ञान दे जाता है।
तीसरे व्यक्ति होते हैं, जिनको प्रज्ञावान कहा जाता है। वे बुद्धिमान से आगे होते हैं। वे अनुभव में नहीं गुजरते। वे अनुभव को बाहर से ही देखकर जाग जाते हैं। वे दूसरों का अनुभव देखकर भी जाग जाते हैं। उन्हें स्वयं ही अनुभव में जाने की जरूरत नहीं होती।
पहला आदमी ऐसा कि जब गिरेगा आग में, तो एक बार गिरेगा, दो बार गिरेगा। रोज जलेगा; फिर—फिर गिरेगा। दूसरा आदमी ऐसा कि एक बार जल जाएगा, तो सम्हल जाएगा। और तीसरा आदमी ऐसा कि दूसरों को गिरते देखकर, जलते देखकर ही सम्हल जाएगा। उसको प्रज्ञावान कहा है।
रेवत प्रज्ञावान था। उसने देखे होंगे चारों तरफ विवाहित और दुखी लोग। विवाहित और दुखी करीब—करीब पर्यायवाची शब्द हैं। विवाहित—और तुमने सुखी देखा! इस बात को बचाने के लिए कहानियां विवाह के बाद खतम हो जाती हैं। फिर आगे नहीं जातीं, क्योंकि आगे जाना खतरनाक है।
फिल्में भी—बैड—बाजा बज रहा है, शहनाई बज रही है—और खतम हो जाती हैं। विवाह हुआ; खतम हुईं। कहानियां पुरानी कहती हैं कि उन दोनों का विवाह हो गया, फिर वे दोनों सुख से रहने लगे। यहीं जाकर खतम हो जाती हैं। फिर आगे की बात उठाना खतरे से खाली नहीं है।
विवाह के बाद कौन कब सुख से रहा? विवाह के पहले लोग भला सुख से रहे हों। एक आदमी ही जब दुखी था, तो दो होकर दुगना दुख हो जाएगा, हजार गुना हो जाएगा। दो दुखी मिलेंगे, तो सुख पैदा हो कैसे सकता है न: दो जहरों के मिलने से कहीं अमृत बनता है?
और ध्यान रखना, कसूर न स्त्री का है, न पुरुष का। कसूर यही है कि हमारी मौलिक भ्रांति है कि मैं दुखी हूं; कोई स्त्री भी दुखी है; हम दोनों मिल बैठेंगे, साथ—साथ हो जाएंगे, तो दोनों सुखी हो जाएंगे। हम एक असंभव बात की कल्पना कर रहे हैं। मैं दुखी हूं; स्त्री दुखी है। अकेली वह भी दुखी है, अकेला मैं भी दुखी हूं। ये दो दुखी आदमी एक—दूसरे से मिलकर दुख को अनंत गुना कर लेंगे। यह जोड़ ही नहीं होगा; गुणनफल होगा। और तब तड़फेंगे, तब परेशान होंगे।
रेवत ने देखा होगा चारों तरफ। रेवत ने देखे होंगे अपने मां—बाप। रेवत ने देखे होंगे अपने पड़ोसी, अपने बुजुर्ग, अपने परिवार के लोग। और फिर रेवत ने यह भी देखा होगा, सारिपुत्र का सब छोड़कर संन्यस्त हो जाना—बड़े भाई का। फिर उसने यह भी देखा होगा कि सारिपुत्र की आंखों में एक और ही आभा आ गयी। फिर उसने यह भी देखा होगा कि सारिपुत्र पहली दफा आनंदित हुए। ऐसा आनंदित आदमी उसने नहीं देखा था।
ये सब बातें वह चुपचाप देखता रहा होगा। ये सारी बातें इकट्ठी होकर उसके भीतर घनी होती रही होंगी। फिर घोड़े पर सवार करके जब लोग उसे आग की तरफ ले चलने लगे, और जब बैंड—बाजे जोर से बजने लगे, तब उसके भीतर निर्णय की घड़ी आ गयी होगी। उसने सोचा होगा. अब सोच लूं या फिर सोचने का आगे कोई उपाय न रहेगा। कुछ करना हो तो कर लूं? अन्यथा घडीभर बाद फिर करना झंझट से भर जाएगा।
उसने देखा होगा कि सारिपुत्र घर छोड़कर गए, तो उनकी पत्नी कितनी दुखी है। सारिपुत्र परम सुख को उपलब्ध हो गए हैं, लेकिन पत्नी बहुत दुखी है। पति जिंदा है और पत्नी विधवा हो गयी है जीते जी पति के, दुखी न होगी, तो क्या होगा!
सारिपुत्र घर छोड़कर चले गए, उनके बेटे दीन—हीन और अनाथ हो गए हैं। सारिपुत्र तो परम अवस्था को उपलब्ध हो गए, लेकिन थोड़ी खटक तो है इसमें कि ये बच्चे अनाथ हो गए; यह पत्नी दुखी है। के मां—बाप चिंतित हैं, परेशान हैं। उनको यह बोझ ढोना पड़ रहा है सारिपुत्र की पत्नी और बच्चों का।
ये सब बातें सघन होती रही होंगी। उस घड़ी में इन सारी बातों का जोड़ हो गया। उसने सोचा होगा : अब एक क्षण और रुक जाऊं कि मैं भी उसी जाल में पड़ जाऊंगा। और मैं भी वही करूंगा, जो सारिपुत्र ने किया। बेहतर है, मैं भाग जाऊं। कोई बहाना करके उतर गए होंगे—कि जरा घोड़े से उतर जाऊं। और भागे, सो भागे। फिर घोड़े पर वापस नहीं लौटे।
शायद दूल्हे को घोड़े पर बिठाकर इसीलिए ले जाते होंगे, जिसमें भाग न सके। छुरी इत्यादि लटका देते हैं। यह उसको समझाने को कि तू बड़ा बहादुर है। भगोड़ा थोड़े ही है। देख, घोड़े पर बैठा है! राजा—महाराजा है! और देख, इतनी बारात चल रही है, इतना बैंड—बाजा बज रहा है! उसको सब तरह का भ्रम देते हैं।
जैसे डाक्टर जब किसी का आपरेशन करता है, तो पहले बेहोश करने के लिए क्लोरोफार्म देता है। ये सब क्लोरोफार्म हैं! एक दिन के लिए उसको राजा बना देते हैं—दूल्हा राजा! और एक दिन की अकड़ में वह भूला रहता है और मस्त रहता है। उसे पता नहीं है, इस मस्ती का परिणाम क्या है!
मगर यह रेवत बड़ा होशियार आदमी रहा होगा, प्रज्ञावान रहा होगा। यह उतरा और चुपचाप भाग गया। इसने फिर पीछे लौटकर नहीं देखा। जंगल चला गया। भिक्षु मिल गए मार्ग पर, उन्हीं से दीक्षा ले ली।
अब बहुत ऐसे लोग हैं जो बुद्ध के पास पहुंचकर भी अर्हत न हो सके। और यह आदमी बुद्ध के सामान्य भिक्षुओं से, अज्ञातनाम भिक्षुओं से, जिनके नाम का भी पता नहीं है, कि किनसे उसने दीक्षा ली थी, कोई प्रसिद्ध भिक्षु न रहे होंगे, उनसे दीक्षा लेकर अर्हत्व को उपलब्ध हो गया!
तो खयाल रखना असली सवाल तुम्हारी प्रगाढ़ता का है। तुम बुद्ध के पास होकर भी चूक सकते हो, अगर प्रगाढ़ नहीं हो। अगर तुम्हारे भीतर त्वरा और तीव्रता नहीं है, अगर सारे जीवन को दाब पर लगा देने की हिम्मत नहीं है, तो बुद्ध के पास भी चूक जाओगे। और अगर सारे जीवन को दाव पर लगा देने की हिम्मत है, तो किसी साधारणजन से दीक्षा लेकर भी पहुंच जाओगे।
एकांत , मौन और ध्यान—इन तीन चीजों में रेवत संलग्न हो गया। अकेला रहने लगा, चुप रहने लगा और अपने भीतर विचारों को विदा करने लगा। यही तीन सूत्र हैं समाधि के।
एकांत ! ऐसे रहो, जैसे तुम अकेले हो। कहीं भी रहो—ऐसे रहो, जैसे तुम अकेले हो। न कोई संगी है, न कोई साथी। भीड़ में भी रहो, तो अकेले रहो। परिवार में भी रहो, तो अकेले रहो। इस बात को जानते ही रहो भीतर, एक क्षण को यह सूत्र हाथ से मत जाने देना। एक क्षण को भी यह भांति पैदा मत होने देना कि तुम अकेले नहीं हो, कि कोई तुम्हारे साथ है। यहां न कोई साथ है; न कोई साथ हो सकता है। यहां सब अकेले हैं। अकेलापन आत्यंतिक है। इसे बदला नहीं जा सकता। थोडी—बहुत देर को भुलाया जा सकता है, बदला नहीं जा सकता।
और सब भुलावे एक तरह के मादक द्रव्य हैं। एक प्रकार के नशे हैं। कैसे तुम भुलाते हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। कोई शराब पीकर भुलाता है। कोई धन की दौड़ में पड़कर भुलाता है। कोई पद के लिए दीवाना होकर भुलाता है। कैसे तुम भुलाते हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। लेकिन थोड़ी देर को भुला सकते हो। बस।
और जब भी नशा उतरेगा, अचानक पाओगे. अकेले हो।
संन्यासी वही है, जो जानता है कि मैं अकेला हूं और भुलाता नहीं अपने अकेलेपन को। भुलाना तो दूर, अपने अकेलेपन में रस लेता है। और प्रतीक्षा करता है कि कब मौका मिल जाए कि थोड़ी देर अपने अकेलेपन का स्वाद लूं। थोड़ी देर आंख बंद करके अपने में डूब जाऊं, अकेला रह जाऊं। वही मेरी नियति है। वही मेरा स्वभाव है। उसी स्वभाव से मुझे पहचान बनानी है।
दूसरों से पहचान बनाने से कुछ भी न होगा; अपने से पहचान बनानी है। दूसरों को जानने से क्या होगा? अपने को ही न जाना और सबको जान लिया, इस जानने का कोई मूल्य नहीं है। मूल में तो अज्ञान रह गया।
तो रेवत एकांत में बैठ गया। मौन रखने लगा। बोलना बंद कर दिया।
बोलने को है क्या? जब तक जान न लो, तब तक बोलने को है क्या? जब तक जान न लो, तब तक बोलना खतरनाक भी है, क्योंकि तुम जो भी बोलोगे, वह गलत होगा। तुम जो भी लोगों से कहोगे, वह भटकाने वाला होगा। तुम भटके हो, और औरों को भटकाओगे!
बोलना तो तभी सार्थक है, जब कुछ जाना हो : जब कुछ अनुभव हुआ हो। जब कोई बात तुम्हारे भीतर प्रखर होकर साफ हो गयी हो। जब तुम्हारे भीतर ज्योति जली हो और तुम्हारे पास अपनी आंखें हों, तब बोलना। तब तक तो अच्छा है, चुप ही रहना। तुम अपना कूड़ा—करकट दूसरे पर मत फेंकना। तुम्हीं दबे हो, औरों पर कृपा करो। मत किसी को दबाओ अपने कूड़े—करकट से।
लेकिन लोग बड़े उत्सुक होते हैं! लोग अकेले—अकेले में घबडाने लगते हैं। राह खोजने लगते हैं कि कोई मिल जाता। किसी से दो बात कर लेते। बात करने का मतलब कुछ कचरा वह हमारी तरफ फेंकता, कुछ कचरा हम उसकी तरफ फेंकते। न हमें पता है, न उसे पता है। इसको लोग बातचीत कहते हैं!
यह बातचीत महंगी है। क्योंकि दूसरा भी अपने अज्ञान को छिपाता है और अपनी बातों को इस तरह से कहता है, जैसे जानता हो। तुम भी अपने अज्ञान को छिपाते हो और अपनी बातों को इस तरह से कहते हो, जैसे तुमने जाना है। दोनों एक—दूसरे को धोखा दे रहे हो। और अगर दूसरे नै मान लिया तुम्हारी बात को, तो गड्डे में गिरेगा। तुम खुद गड्डे में गिरते रहे हो। तुम्हारी बात मानकर जो चलेगा, वह गड्ढे में गिरेगा।
इसलिए तो कोई किसी की सलाह नहीं मानता। तुमने देखा, दुनिया में सबसे ज्यादा चीज जो दी जाती है, वह सलाह है। और सबसे कम जो चीज ली जाती है, वह भी सलाह है।
कोई किसी की मानता नहीं। बाप की बेटा नहीं मानता। भाई की भाई नहीं मानता। मित्र की मित्र नहीं मानता। अध्यापक की शिष्य नहीं मानता।
एक लिहाज से अच्छा है कि लोग किसी की मानते नहीं। अरे, गिरना है तो कम से कम अपने ही गड्डे में गिरो। दूसरे की सलाह लेकर दूसरे के गड्डे में क्यों गिरना! अपने गड्डे में गिरोगे, तो शायद कुछ अनुभव भी होगा। अपनी तरफ से गिरोगे, अपने हाथ से गिरोगे, तो शायद निकलने की संभावना भी है। अवश, दूसरे की सलाह से गिरोगे, तो निकलने की संभावना भी न रह जाएगी।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं : अपने ही पैर से चलकर जो नर्क तक पहुंचा है, वह वापस भी लौट सकता है। जो दूसरों के कंधों पर चढ़कर पहुंच गया है, वह गौडा है। वह वापस कैसे लौटेगा त्र: उसका लौटना बहुत असंभव हो जाएगा।
और नर्क तक ले जाने वाले लोग तो तुम्हें बहुत मिल जाएंगे। एक ढूंढो, हजार मिल जाएंगे। लेकिन नर्क से स्वर्ग तक लाने वाला तो बहुत मुश्किल है। नर्क में कहां पाओगे ऐसा आदमी जो तुम्हें स्वर्ग तक ले जाए? यहां से नर्क तक जाने के लिए तो सब गाडियां बिलकुल भरी हैं, लबालब भरी हैं। लेकिन नर्क से इस तरफ आने वाली गाड़ियां चलती कहां हैं! उनको चलाने वाला नहीं है कोई।
अच्छा ही है कि कोई किसी की सलाह नहीं मानता।
रेवत भाग गया। एकांत में बैठ गया। चुप हो गया। बोलता ही न था।
और जब तुम एकांत में रहोगे और चुप रहोगे, तो भीतर विचार कब तक चलेंगे? कब तक चलेंगे? उनका मौलिक आधार ही कट गया। जड ही कट गयी। तुमने पानी सींचना बंद कर दिया। वही—वही विचार कुछ दिन तक गूंजेंगे—गूंजेंगे— गूंजेंगे; धीरे— धीरे तुम भी ऊब जाओगे, वे भी ऊब जाएंगे।
रोज—रोज नया कुछ होता रहे, तो विचार में धारा बहती रहती है, प्राण पड़ते रहते हैं। अब अकेले में बैठ गए, न बोलना है, न चालना है। कब तक सिर में वही विचार घूमते रहेंगे? धीरे— धीरे मुर्दा हो जाएंगे। गिर जाएंगे। सूखे पत्तों की तरह झड़ जाएंगे। नए पत्ते तो अब आते नहीं। पुराने पत्ते एक बार झड़ गए, तो मन निर्विचार हो जाएगा। उस दशा का नाम ही ध्यान है।
वहां उन्होंने सात वर्ष समग्रता से साधना की।
और साधना हो ही तब सकती है, जब कोई समग्रता से करे। कुछ भी बचाया, तो चूक जाओगे। निन्यानबे डिग्री पर भी पानी भाप नहीं बनता। सौ डिग्री पर ही बनता है। और जब तुम भी सौ डिग्री उबलोगे, तो ही रूपांतरित होओगे। एक डिग्री भी बचाया, तो रूपांतरित नहीं हो पाओगे।
इसलिए रूपांतरण के लिए समग्र रूप से दाब लगाने की क्षमता और साहस चाहिए। लोग दुकानदार हैं। और परम सत्य को पाने के लिए जुआरी चाहिए, जो सब दाब पर लगा दे। दुकानदार दो—दो पैसे का हिसाब लगाकर दाव पर लगाता है—कि कितना लाभ होगा? अगर लाभ नहीं होगा, तो हानि कितनी होगी? अभी इतना लगाऊं। पहले देखूं थोड़ा लगाकर। फिर लाभ हो, तो थोड़ा और ज्यादा लगाऊंगा। फिर लाभ हो, तो थोडा और ज्यादा लगाऊंगा!

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