Thursday 24 December 2015

लम्‍बी थी यात्रा, पर बड़ी प्रीतिकर थी। मैं तो चाहता था—सदा चले। बुद्ध के साथ उठना, बुद्ध के साथ बैठना; बुद्ध की हवा में डोलना, बुद्ध की किरणों को पकड़ना, फिर से जीना उस शाश्वत पुराण को; बुद्ध और बुद्ध के शिष्यों के बीच जो अपूर्व घटनाएं घटीं, उन्हें फिर से समझना—बूझना—गुनना; उन्हें फिर हृदय में बिठालना—यात्रा अदभुत थी।
पर यात्रा कितनी ही अदभुत हो, जिसकी शुरुआत है, उसका अंत है। हम कितना ही चाहें, तो भी यहां कुछ शाश्वत नहीं हो सकता। यहां बुद्ध भी अवतरित होते हैं और विलीन हो जाते हैं। औरों की तो बात ही क्या! यहां सत्य भी आता है, तो ठहर नहीं पाता। क्षणभर को कौंध होती है, खो जाता है। यहां रोशनी नहीं उतरती, ऐसा नहीं। उतरती है। उतर भी नहीं पाती कि जाने का क्षण आ जाता है।
बुद्ध ने ठीक ही कहा है—यहां सभी कुछ क्षणभंगुर है। बेशर्त, सभी कुछ क्षणभंगुर है। और जो इस क्षणभंगुरता को जान लेता है, उसका यहां आना बंद हो जाता है। हम तभी तक यहां टटोलते हैं, जब तक हमें यह भांति होती है कि शायद क्षणभंगुर में शाश्वत मिल जाए! शायद सुख में आनंद मिल जाए। शायद प्रेम में प्रार्थना मिल जाए। शायद देह में आत्मा मिल जाए। शायद पदार्थ में परमात्मा मिल जाए। शायद समय में हम उसे खोज लें, जो समय के पार है।
पर जो नहीं होना, वह नहीं होना। जो नहीं होता, वह नहीं हो सकता है।
यहां सत्य भी आता है, तो बस झलक दे पाता है। इस जगत का स्वभाव ही क्षणभंगुरता है। यहां शाश्वत भी पैर जमाकर खड़ा नहीं हो सकता! यह धारा बहती ही रहती है। यहां शुरुआत है; मध्य है; और अंत है। और देर नहीं लगती। और जितनी जीवंत बात हो, उतने जल्दी समाप्त हो जाती है। पत्थर तो देर तक पड़ा रहता है। फूल सुबह खिले, सांझ मुरझा जाते हैं।
यही कारण है कि बुद्धों के होने का हमें भरोसा नहीं आता। क्षणभर को रोशनी उतरती है, फिर खो जाती है। देर तक अंधेरा—और कभी—कभी रोशनी प्रगट होती है। सदियां बीत जाती हैं, तब रोशनी प्रगट होती है। पुरानी याददाश्तें भूल जाती हैं, तब रोशनी प्रगट होती है। फिर हम भरोसा नहीं कर पाते।
यहां तो हमें उस पर ही भरोसा ठीक से नहीं बैठता, जो रोज—रोज होता है। यहां चीजें इतनी स्‍वप्‍नवत हैं! भरोसा हो तो कैसे हो। और जो कभी—कभी होता है सदियों में, जो विरल है, उस पर तो कैसे भरोसा हो! हमारे तो अनुभव में पहले कभी नहीं हुआ था, और हमारे अनुभव में शायद फिर कभी नहीं होगा।
इसलिए बुद्धों पर हमें गहरे में संदेह बना रहता है। ऐसे व्यक्ति हुए! ऐसे व्यक्ति हो सकते हैं? और जब तक ऐसी आस्था प्रगाढ़ न हो कि ऐसे व्यक्ति हुए हैं, अब भी हो सकते हैं, आगे भी होते रहेंगे—तब तक तुम्हारे भीतर बुद्धत्व का जन्म नहीं हो सकेगा। क्योंकि अगर यह भीतर संदेह हो कि बुद्ध होते ही नहीं, तो तुम कैसे बुद्धत्व की यात्रा करोगे? जो होता ही नहीं, उस तरफ कोई भी नहीं जाता।
जो होता है—सुनिश्चित होता है—ऐसी जब प्रगाढ़ता से तुम्हारे प्राणों में बात बैठ जाएगी, तभी तुम कदम उठा सकोगे अज्ञात की ओर।
इसलिए बुद्ध की चर्चा की। इसलिए और बुद्धों की भी तुमसे चर्चा की है। सिर्फ यह भरोसा दिलाने के लिए; तुम्हारे भीतर यह आस्था उमग आए कि नहीं, तुम किसी व्यर्थ खोज में नहीं लग गए हो, परमात्मा है। तुम अंधेरे में नहीं चल रहे हो, यह रास्ता खूब चला हुआ है। और भी लोग तुमसे पहले इस पर चले हैं। और ऐसा पहले ही होता था—ऐसा नहीं। फिर हो सकता है। क्योंकि तुम्हारे भीतर वह सब मौजूद है, जो बुद्ध के भीतर मौजूद था। जरा बुद्ध पर भरोसा आने की जरूरत है।
और जब मैं कहता हूं. बुद्ध पर भरोसा आने की जरूरत, तो मेरा अर्थ गौतम बुद्ध से नहीं है। और भी बुद्ध हुए हैं। क्राइस्ट और कृष्ण, और मोहम्मद और महावीर, और लाओत्सु और जरथुस्त्र। जो जागा, वही बुद्ध। बुद्ध जागरण की अवस्था का नाम है। गौतम बुद्ध एक नाम है। ऐसे और अनेकों नाम हैं।
गौतम बुद्ध के साथ इन अनेक महीनों तक हमने सत्संग किया।
धम्मपद के तो अंतिम सूत्र का दिन आ गया, लेकिन इस सत्संग को भूल मत जाना। इसे सम्हालकर रखना। यह परम संपदा है। इसी संपदा में तुम्हारा सौभाग्य छिपा है। इसी संपदा में तुम्हारा भविष्य है।
फिर—फिर इन गाथाओं को सोचना। फिर—फिर इन गाथाओं को गुनगुनाना। फिर—फिर इन अपूर्व दृश्यों को स्मरण में लाना। ताकि बार—बार के आघात से तुम्हारे भीतर सुनिश्चित रेखाएं हो जाएं। पत्थर पर भी रस्सी आती—जाती रहती है, तो निशान पड जाते हैं।
इसलिए इस देश ने एक अनूठी बात खोजी थी, जो दुनिया में कहीं भी नहीं है। वह थी—पाठ। पढना तो एक बात है। पाठ बिलकुल ही दूसरी बात है। पढ़ने का तो अर्थ होता है एक किताब पढ़ ली, खतम हो गयी। बात समाप्त हो गयी। पाठ का अर्थ होता है जो पढ़ा, उसे फिर पढा, फिर—फिर पढ़ा। क्योंकि कुछ ऐसी बातें हैं इस जगत में, जो एक ही बार पढ़ने से किसकी समझ में आ सकती हैं! कुछ ऐसी बातें हैं इस जगत में, जिनमें गहराइयों पर गहराइयां हैं। जिनको तुम जितना खोदोगे, उतने ही अमृत की संभावना बढ़ती जाएगी। उन्हीं को हम शास्त्र कहते हैं।
किताब और शास्त्र में यही फर्क है। किताब वह, जिसमें एक ही पर्त होती है। एक बार पढ़ ली और खतम हो गयी। एक उपन्यास पढ़ा और व्यर्थ हो गया। एक फिल्म देखी और बात खतम हो गयी। दुबारा कौन उस फिल्म को देखना चाहेगा! देखने को कुछ बचा ही नहीं। सतह थी, चुक गयी।
शास्त्र हम कहते हैं ऐसी किताब को, जिसे जितनी बार देखा, उतनी बार नए अर्थ पैदा हुए। जितनी बार झांका, उतनी बार कुछ नया हाथ लगा। जितनी बार भीतर गए, कुछ लेकर लौटे। बार—बार गए और बार—बार ज्यादा मिला। क्यों ग्र क्योंकि तुम्हारा अनुभव बढ़ता गया। तुम्हारे मनन की क्षमता बढ़ती गयी। तुम्हारे ध्यान की क्षमता बढ़ती गयी।
बुद्धों के वचन ऐसे वचन हैं कि तुम जन्मों —जन्मों तक खोदते रहोगे, तो भी तुम आखिरी स्थान पर नहीं पहुंच पाओगे। आएगा ही नहीं। गहराई के बाद और गहराई। गहराई बढ़ती चली जाती है।
पाठ तो तभी समाप्त होता है, जब तुम भी शास्त्र हो जाते हो, उसके पहले समाप्त नहीं होता। पाठ तो तब समाप्त होता है, जब शास्त्र की गहराई तुम्हारी अपनी गहराई हो जाती है।

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