Tuesday 29 December 2015

‘जो सारे संयोजनों को काटकर भयरहित हो जाता है, उस संग और आसक्ति से विरत को मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
श्रावस्‍ती नगरवासी—सीधे—सादे लोग—एकत्र होकर सारिपुत्र के गुणों की प्रशंसा कर रहे थे।
सारिरपुत्र बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में एक। जिन्होंने बुद्ध के जीते जी बुद्धत्व प्राप्त किया—उनमें से एक। सारिपुत्र स्वयं भी कभी बहुत बड़ा पंडित था। जब पहली बार बुद्ध के पास आया था, तो बुद्ध से विवाद करने आया था। पाच सौ अपने शिष्यों को साथ लाया था। लेकिन बुद्ध के पास आकर विवाद का मौका नहीं बना। विवाद के पहले हार हो गयी। बुद्ध को देखते ही हार हो गयी।
बड़ा संवेदनशील रहा होगा। पांडित्य तो था, लेकिन पांडित्य पर बहुत पकड़ न रही होगी। पांडित्य तो था, लेकिन पांडित्य से हटकर देखने की क्षमता रही होगी। इसलिए बुद्ध को देखते ही रूपांतरित हो गया। शिष्यों से अपने कहा था, भूल जाओ विवाद की बात। यह आदमी विवाद करने योग्य नहीं है। यह आदमी लड़ने योग्य नहीं है। यह आदमी ऐसा है, जिसके चरणों में हम बैठें। मैं तो बुद्ध का शिष्यत्व स्वीकार करता हूं। तुम मेरे शिष्य हो, अगर तुम मुझे समझे हो, तो मेरे साथ झुक जाओ। खुद दीक्षित हुआ; अपने पांच सौ शिष्यों को भी दीक्षित किया।
बुद्ध के पास हजारों शिष्य थे, उनमें सारिपुत्र सबसे बड़ा बौद्धिक व्यक्ति था—लेकिन बुद्धि में सीमित नहीं। और जल्दी ही उसमें फूल खिलने शुरू हो गए। जल्दी ही उसमें सुवास आनी शुरू हो गयी। जो झुकने को इतना तत्पर हो! आया था विवाद करने और निर्विवाद झुक गया! जिसके पास ऐसी सरल दृष्टि हो; ऐसा सहज भाव हो, अगर जल्दी ही वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया, तो कुछ आश्चर्य नहीं है।
श्रावस्ती के भोले— भाले लोग, सीधे—सादे लोग सारिपुत्र के गुणों की प्रशंसा कर रहे थे।
ऐसे गुण थे ही सारिपुत्र में जिनकी प्रशंसा की जाए। यही देखते हो : विवाद करने आया हो और बिना एक प्रश्न उठाए झुक जाए और शिष्यत्व स्वीकार कर ले! बड़े पांडित्य के बोझ से दबा हो, शास्त्रों का ज्ञाता हो, और शास्त्रों को ऐसे हटा दे, जैसे कोई दर्पण से धूल को हटा देता है! इतनी सुगमता से, इतनी सरलता से, बिना दंभ के, बिना अहंकार के, बिना अकड़ के। न केवल खुद झुका, बल्कि अपने पांच सौ शिष्यों को भी झुका दिया।
सारिपुत्र ने से कभी कोई प्रश्न ही नहीं पूछा फिर। आया था उत्तर देने; प्रश्न ही नहीं पूछा। उनकी छाया हो गया। उनमें लीन हो गया।
गुण खूब थे सारिपुत्र में; गुणी था। गांव के लोग ठीक ही प्रशंसा करते थे। लेकिन एक बुद्ध—विरोधी ब्राह्मण भी यह सुन रहा था और ईर्ष्या और क्रोध से जला जा रहा था। तभी भीड में से किसी ने कहा? हमारे आर्य ऐसे सहनशील हैं कि आक्रोशन करने वालों या मारने वालों पर भी क्रोध नहीं करते हैं। यह बात मिथ्या—दृष्टि ब्राह्मण की आग में घी का काम कर गयी।
मिथ्या—दृष्टि का अर्थ होता है : जिसे उलटा देखने की आदत पड़ गयी है। उलटी खोपड़ी! सीधी बात को भी जो उलटा करके। जो सीधा देख ही नहीं सकता। जिसकी दृष्टि में बड़ी गहरी भ्रांति बैठ गयी है,;
सारिपुत्र की प्रशंसा हो रही है, उसे प्रशंसा से आग लग रही है।
ऐसे बहुत लोग हैं, जो किसी की भी प्रशंसा नहीं सुन सकते। जो केवल निंदा सुन सकते हैं। इसीलिए तो लोग ज्यादातर निंदा करते हैं। क्योंकि निंदा ही सुनने वाले लोग हैं। जहां दो—चार आदमी मिले कि निंदा शुरू हो जाती है!
प्रशंसा करना भी अपने आप में एक कविता है। क्योंकि प्रशंसा वही कर सकता है, जिसके पास सम्यक दृष्टि हो। प्रशंसा के लिए सबसे बड़ा गुण जरूरी है कि जो अपने को हटाकर दूसरे को देख सके। जो दूसरे के बड़प्पन में पीड़ित न हो जाए; जिसके अहंकार को चोट न लगे, जो दूसरे की भव्य प्रतिमा को देखकर क्रोध से न भर जाए—कि यह कौन है, जो मुझसे ज्यादा भव्य है? यह कौन है, जो मुझसे ज्यादा दिव्य है? यह कौन है, जो मुझसे ज्यादा श्रेष्ठ है? मुझसे ज्यादा श्रेष्ठ कोई भी नहीं हो सकता—ऐसी पीड़ा जिसे पैदा हो जाती है, वह मिथ्या—दृष्टि है।
‘मिथ्या—दृष्टि किसी की प्रशंसा बर्दाश्त नहीं कर सकता, क्योंकि वह किसी की प्रशंसा को अपनी निंदा मानता है। दूसरा बड़ा है, तो मैं छोटा हो गया—यह उसका तर्क है। दूसरा सुंदर है, तो मैं कुरूप हो गया—यह उसका तर्क है। दूसरा चरित्रवान है तो फिर मेरा क्या!
मिथ्या—दृष्टि दूसरे की निंदा सुन सकता है। क्यों? क्योंकि दूसरे की निंदा से उसके अहंकार को भरण—पोषण मिलता है। तो वह कहता है अच्छा! तो यह भी चरित्रहीन है! इससे तो हम ही भुले हैं।
तुम ध्यान रखना, निंदा का एक मनोविज्ञान है। क्यों लोग निंदा पसंद करते हैं? तुम अगर किसी से कहो कि अ नाम का आदमी संत हो गया है, कोई मानेगा नहीं। पच्चीस दलीलें लोग लाएगे—कि नहीं, संत नहीं है। सब धोखा— घडी है। सब पाखंड है। और तुम किसी के संबंध में कहो कि फला आदमी चोर हो गया है; तो कोई विवाद न करेगा। वह कहेगा. हमें पहले से ही पता है। वह चोर है ही। क्या हमें बता रहे हो! वह महाचोर है। तुम्हें अब पता चला! तुम्हारी आंखें अंधी थीं।
तुमने कभी देखा : निंदा जब तुम किसी की करो, तो कोई प्रमाण नहीं मांगता। और प्रशंसा जब करो, तो हजार प्रमाण मांगे जाते हैं। और, और भी एक कठिनाई है कि प्रशंसा जिन चीजों की होती है, उनके लिए प्रमाण नहीं होते। और निंदा जिन चीजों की होती है, उनके लिए प्रमाण होते हैं। क्योंकि निंदा तो क्षुद्र जगत की बात है, उसके लिए प्रमाण हो सकते हैं।
समझो किसी आदमी की तुम निंदा कर रहे हो कि उसने चोरी की। तो चार आदमी गवाह की तरह खड़े किए जा सकते हैं कि इन्होंने उसे चोरी करते देखा। लेकिन तुम कहते हो कि कोई आदमी जाग गया, प्रबुद्ध हो गया, इसके लिए कहां गवाह खोजोगे! कहां से गवाह मौजूद करोगे? कौन कहेगा कि हां, मैंने इसको बुद्ध होते देखा! यह बात तो देखने की नहीं है। यह तो बुद्ध ही कोई हो, तो देख सके, जो स्वयं बुद्ध हो, वह देख सके। दूसरा तो कोई इसका गवाह नहीं हो सकता।
मजे की बात देखना। जो प्रशंसा—योग्य तत्व हैं, उनके लिए प्रमाण नहीं होते। और उनके लिए लोग प्रमाण पूछते हैं। और जो निंदा है, उसके लिए हजार प्रमाण होते हैं, लेकिन कोई प्रमाण पूछता ही नहीं। प्रमाण के बिना ही स्वीकार कर लेते हैं लोग। लोग निंदा स्वीकार करना चाहते हैं। लोग तैयार ही हैं कि निंदा करो।
तुम्हारे अखबार निंदा से भरे होते हैं। तुम अखबार पढ़ते ही इसीलिए हो कि आज किस—किस की बखिया उधेडी गयी। अखबार में जिस दिन निंदा नहीं होती, उस दिन तुम उसे उदासी से सरकाकर एक तरफ रख देते हो—कि कुछ खास बात ही नहीं है। जब अखबार में हत्या की खबर होती है, चोरी की, किसी की स्त्री के भगाने की, तलाक की, आत्महत्या की, तब तुम एकदम चश्मा ठीक करके एकदम अखबार पर झुक जाते हो कि एक शब्द चूक न जाए! इसलिए बेचारा अखबार छापने वाला आदमी निंदा की तलाश में घूमता रहता है।
पत्रकारों की दृष्टि ही मिथ्या हो जाती है, क्योंकि उनका धंधा ही खराब है। उनके धंधे का मतलब ही यह है कि जनता जो चाहती है, वह लाओ खोजबीन कर। अच्छे से अच्छे आदमी में कुछ बुरा खोजो। सुंदर से सुंदर में कोई दाग खोजो। चांद की फिकर छोड़ो। चांद पर वह जो काला धब्बा है, उसकी चर्चा करो। क्योंकि लोग धब्बे में उत्सुक हैं, चांद में उत्सुक नहीं हैं। चांद की बात करो, तो कोई अखबार खरीदेगा ही नहीं।
इसलिए जो पत्रकारिता है, वह मूलत: निंदा के रस की ही कला है। कैसे खोज लो—कहीं से भी कुछ गलत कैसे खोज लो! और जब तुम खोजने का तय ही किए बैठे हो, तो जरूर खोज लोगे। क्योंकि जो आदमी जो खोजने निकला है, उसे मिल जाएगी।
यह दुनिया विराट है। इसमें अंधेरी रातें हैं और उजाले दिन हैं। इसमें गुलाब के फूल हैं और गुलाब के काटे हैं। जो आदमी निंदा खोजने निकला है, वह कहेगा कि दुनिया बड़ी बुरी है। यहां दो रातों के बीच में एक छोटा सा दिन है। दो अंधेरी रातें, और बीच में छोटा सा दिन! और जो प्रशंसा खोजने निकला है, वह कहेगा कि दुनिया बड़ी प्यारी है। परमात्मा ने कैसी गजब की दुनिया बनायी है. दो उजाले दिन, बीच में एक अंधेरी रात!
जो आदमी निंदा खोजने निकला है, वह गुलाब की झाड़ी में काटो की गिनती कर लेगा। और स्वभावत: काटो की गिनती जब तुम करोगे, तो कोई न कोई काटा हाथ में गड़ जाएगा। तुम और क्रोधाग्नि से भर जाओगे। अगर कांटा हाथ में गड़ गया और खून निकल आया, तो तुम्हें जो एकाध फूल खिला है झाड़ी पर, वह दिखायी ही नहीं पड़ेगा। तुम अपनी पीड़ा से दब जाओगे। तुम गालिया देते हुए लौटोगे।
जो आदमी फूल को देखने निकला है, वह फूल से ऐसा भर जाएगा कि उसे काटे भी प्यारे मालूम पड़ेंगे। वह फूल से ऐसा रस—विमुग्ध हो जाएगा कि उसे यह बात दिखायी पड़ेगी कि काटे जरूर भगवान ने इसीलिए बनाए होंगे कि फूलों की रक्षा हो सके। ये फूलों के पहरेदार हैं।
सब तुम पर निर्भर है, कैसे तुम देखते हो, क्या तुम देखने चले हो।
यह बुद्ध—विरोधी ब्राह्मण था। इसने तय ही कर रखा था। न यह कभी बुद्ध के पास गया था…..।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि विरोधी पास जाते ही नहीं। विरोधी दूर—दूर रहते हैं। विरोध करने के लिए यह जरूरी है कि वे दूर—दूर रहें। पास आएं तो खतरा है। पास आएं तो डर है कि कहीं ऐसा न हो कि हमारा विरोध गल जाए। तो विरोधी पीठ किए खड़ा रहता है, दूर—दूर रहता है। सुनी—सुनायी बातों में से चुनता है। फिर उन चुनी हुई बातों को भी बिगाड़ता है, अपना रंग देता है। फिर उनको विकृत करता है, विकृति को बढ़ाता है। फिर उस विकृति में जीता है और सोचता है कि मुझे तथ्यों का पता है।
ध्यान रखना, इस जगत में तथ्य होते ही नहीं। तथ्य झूठ बात है। इस जगत में सब व्याख्याएं हैं, तथ्य नहीं होते।
एक बड़ा इतिहासकार एडमंड बर्क विश्व का इतिहास लिख रहा था। उसने कोई तीस साल उस पर मेहनत की थी। और वह चाहता था कि दुनिया का ऐसा इतिहास लिखे, जैसा पहले कभी नहीं लिखा गया। तीस साल लंबा समय था। आधा जीवन उसने गंवा दिया था।
एक दिन उसके घर के पीछे एक हत्या हो गयी। वह भागा हुआ पहुंचा। भीड़ खड़ी थी। लाश पड़ी थी। हत्यारा पकड़ लिया गया था रंगे हाथों। उसने लोगों से पूछा कि क्या हुआ? लेकिन जितने लोग थे, उतनी बातें! जितने मुंह, उतनी बातें! कोई हत्यारे के पक्ष में था। कोई जिसकी हत्या की गयी उसके पक्ष में था। कोई इसका कसूर बता रहा था; कोई उसका कसूर बता रहा था।
एडमंड बर्क तो हैरान हो गया। उसके घर के पीछे हत्या हुई है, अभी हत्यारा मौजूद है, अभी लाश पड़ी है, अभी खून बह रहा है सडक पर। अभी सब ताजा है और नया है। अभी खून सूखा भी नहीं है। लोग मौजूद हैं, जो चश्मदीद गवाह हैं। लेकिन कोई दो चश्मदीद गवाह की बात एक सी नहीं है।
वह लौटकर आया और उसने तीस साल में जो इतिहास लिखा था, उसको आग लगा दी। उसने कहा कि मैं इतिहास लिखने बैठा हूं दुनिया का! बुद्ध के समय में क्या हुआ; और सिकंदर के समय में क्या हुआ; और कृष्ण के समय में क्या हुआ? यह मैं क्या कर रहा हूं! मेरे घर के पीछे एक हत्या हो जाए; मैं भागकर पहुंचूं। रंगे हाथ हत्यारा पकड। गया हो। चश्मदीद गवाह मौजूद हों। और निर्णय करना मुश्किल है कि क्या हुआ! तो मैं तीन हजार और पांच हजार साल पहले क्या हुआ—यह कैसे तय कर पाऊंगा! सब अफवाहें हैं और सब व्याख्याएं हैं।
व्याख्या व्याख्या की बात है। तुम कैसे व्याख्या करते हो, इस पर सब निर्भर करता है।
मेरे एक संन्यासी ने—उमानाथ ने—नेपाल से मुझे पत्र लिखा है कि दक्षिण भारत में लोग राम को जलाकर क्या पाएंगे? जब मैं उनका पत्र पढ़ रहा था, तब मैंने सोचा कि जब ये उमानाथ आएंगे, तो मैं उनसे पूछूंगा. तुमने उत्तर में रावण को जलाकर क्या पाया? उस पर संदेह नहीं है उन्हें। उत्तर के हैं। उस पर संदेह नहीं है कि रावण को जलाने में कोई हर्जा है! रावण को तो जलाना ही चाहिए हर साल! लेकिन ये राम के पक्ष में जिन्होंने किताबें लिखी हैं, उनकी व्याख्या है। रावण के पक्ष में किताबें लिखी जा सकती हैं, तब व्याख्या बिलकुल बदल जाएगी। घटना वही है, लेकिन व्याख्या बदल जाएगी।
क्या सच है—मैं नहीं कह रहा हूं। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तथ्यों में सच होता ही नहीं; सब व्याख्या होती है। तय ही नहीं हो पाता दुनिया में। इतने युद्ध हो गए हैं, लेकिन कभी तय नहीं हुआ कि किसने हमला किया। तय हो ही नहीं सकता। क्योंकि एक पक्ष कहे चला जाता है कि दूसरे ने हमला किया। दूसरा पक्ष कहे जाता है कि उसने हमला किया। फिर जो जीत जाता है, वह इतिहास की किताबें लिखता है। जो जीत जाता है, वह अपने पक्ष को किताबों में डाल देता है।
जब स्टैलिन रूस का तानाशाह बना, तो उसने सारा इतिहास बदल दिया रूस का। सारा इतिहास बदल दिया! अपने विरोधियों की तस्वीरे निकाल दीं। अपने विरोधियों के नाम निकाल दिए। जहां तस्वीरें खुद की नहीं थीं, वहां फोटोग्राफी की कलाबाजी से अपनी तस्वीरें डलवा दीं। सब जगह अपना नाम डाल दिया, अपने पक्षपातियों का नाम डाल दिया।
जब तक स्टैलिन सत्ता में रहा, वही इतिहास रूस में चला। बच्चों ने वही पढ़ा। स्टैलिन के मरते ही बात बदल गयी। स्टैलिन के विरोधियों ने स्टैलिन का नाम फिर पोंछ दिया।
यही तो अभी हो रहा है दिल्ली में। कैप्‍शूल खोदा जा रहा है। इंदिरा ने एक कैझूल रखा था, वह एक व्याख्या है। स्वभावत:, उसमें कुछ नाम नहीं होंगे। जैसे सुभाष का नाम नहीं होगा। या होगा, तो कहीं टिप्पणी में होगा, पाद—टिप्पणी में। किसी मूल्य का नहीं होगा। स्वभावत:, उसमें सरदार पटेल का नाम नहीं होगा। या होगा भी, तो गौण होगा। और निश्चित ही उसमें मोरारजी भाई का नाम नहीं है।
उसे निकालना पड़ेगा। निकाला जा रहा है। खोदा जा रहा है। फिर से टाइम कैप्‍शूल बनाया जाएगा। उसमें इंदिरा विदा हो जाएगी। उसमें नेहरू सिकुड़कर छोटे हो जाएंगे। उसमें वल्लभभाई फैलकर कुप्पा हो जाएंगे! उसमें मोरारजी भाई बिलकुल बीच में विराजमान हो जाएंगे। उसमें जगजीवनराम और चरणसिह—सब बैठ जाएंगे।

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