Sunday 27 December 2015

रेवत ने सोचा. कुछ लेकर जाऊं। कुछ हो मेरे पास, तब जाऊं। बड़ी ठीक बात थी। लेकिन फिर अड़चन में पड़ा। जब घटना घट गयी, तो चौंका। तो उसने सोचा अब जाकर क्या करूंगा! अब तो उन भगवान को मैं यहीं से देख रहा हूं। अब तो समय का और स्थान का फासला गिर गया। अब तो मैंने जान लिया कि न मैं देह हूं न वे देह हैं। अब तो मैं वहां पहुंच गया, जहां वे हैं। अब कहां जाना! अब कैसा आना—जाना?
तो फिर वह कहीं नहीं गया। बैठा रहा। और तब यह अपूर्व घटना घटी।
उसके अर्हत्व को घटा देख भगवान स्वयं सारिपुत्र आदि स्थविरों के साथ वहां गए।
यही है सत्य। जिस दिन तुम तैयार होओगे, भगवान स्वयं तुम्हारे पास आता है। तुम्हारे जाने की कहीं कोई जरूरत नहीं है। जिस दिन तुम्हारी तैयारी पूरी है, उस दिन परमात्मा उतरता है। यह अर्थ है इस कहानी का।
तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है। न मक्का, न काबा; न काशी, न कैलाश। तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है। न जेरूसलम, न गिरनार। तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है।
फिर तुम जाओगे भी कहां! कहां खोजोगे उसे? जब यहां नहीं दिखायी पड़ता, तो कैलाश पर कैसे दिखायी पड़ेगा? अंधा आदमी यहां अंधा है; कैलाश पर भी अंधा होगा। जब यहां नहीं मिलता, तो काशी में कैसे मिलेगा? मिलना तो तुम्हें है। नजर तुम्हारी निखरी होनी चाहिए। आंखें तुम्हारी खुली होनी चाहिए। हृदय तुम्हारा प्रफुल्लित होना चाहिए, फूल की तरह खिला हुआ। यहां नहीं खिल रहा है, काबा में कैसे खिलेगा?
तुम समझते हो, जो काबा में रहते हैं, वे परमात्मा को उपलब्ध हो गए हैं! तुम सोचते हो, काशी में रहने वाले परमात्मा को उपलब्ध हो गए हैं?
जो यहां घट सकता है, वही कहीं और भी घटेगा। और जो कहीं और घट सकता है, वह यहां भी घट सकता है। असली सवाल तुम्हारे भीतर का है।
बड़ी प्राचीन कहावत है कि जब शिष्य तैयार हो, तो गुरु उपस्थित हो जाता है। जब तुम तैयार हो, तो परमात्मा चुपचाप कब चला आता है, तुम्हें पता भी नहीं चलता।
उसके अर्हत्व को घटा देख भगवान स्वयं सारिपुत्र आदि स्थविरों के साथ वहां गए। वह जंगल बहुत भयंकर था। रास्ते ऊबड़—खाबड़ और कंटकाकीर्ण थे। जंगली पशुओं की छाती को कंपा देने वाली दहाड़े भरी दोपहरी में सुनायी पड़ती थीं। लेकिन भिक्षुओं को इस सब का कोई पता ही न चला।
जिन्हें भगवान का साथ है, उन्हें यह सब पता चलेगा ही नहीं। बुद्ध के साथ चलते थे। बुद्ध की छाया में चलते थे। बुद्ध की रोशनी में चलते थे। बुद्ध का एक वायुमंडल था, उसमें चलते थे। सुरक्षित थे। यह जंगल जैसे था ही नहीं। रास्ते ऊबड़—खाबड़ नहीं थे।
नजर बुद्ध पर लगी हो, तो कहा रास्ता ऊबड़—खाबड़! रास्तों में काटे पड़े थे। लेकिन नजर बुद्ध जैसे फूल पर लगी हो, तो किसको ये छोटे—मोटे काटे दिखायी पड़ते हैं! जंगल में जंगली आवाजें गंज रही होंगी जरूर, कोई जंगल के जानवर भिक्षुओं को देखकर चुप नहीं हो जाएंगे। लेकिन जिसका हृदय बुद्ध को सुनने में लगा हो, उनके पदचाप को सुनने में लगा हो, जो यहां एकाग्र —चित्त होकर डूबा हो, उसे सब खो जाता है।
तुमने देखा न। तुम जब कभी एकाग्र —चित्त हो जाओ, तो आकाश में बादल गरजते रहें और तुम्हें सुनायी न पड़ेंगे। ट्रेन गुजरे, हवाई जहाज निकले—तुम्हें सुनायी न पड़ेगा। तुम जब चित्त से शांत होते हो, एक दिशा में अनस्यूत होते हो, तो और सारी दिशाएं अपने आप खो जाती हैं।
बुद्ध के प्रेमी थे ये भिक्षु। बुद्ध थोड़े से चुने हुए व्यक्तियों को लेकर ही गए होंगे; सारिपुत्र आदि को। सारिपुत्र होगा, महाकाश्यप होगा; मोद्गल्यायन होगा; आनंद होगा। ऐसे चुने हुए लोगों को लेकर गए होंगे। थोड़े से लोगों को रेवत को दिखाने ले गए होंगे—कि देखो रेवत को। अकेला है। मुझे कभी मिला भी नहीं। दूर से ही श्रद्धा के फूल चढ़ाता रहा है। मुझे कभी देखा नहीं और पहुंच गया!
रेवत ने भगवान को ध्यान में आते देख……।
जब बुद्धि शांत हो जाती है और विचारों का ऊहापोह मिट जाता है, तो ध्यान की आंख खुलती है। ध्यान की आंख के लिए कोई बाधा नहीं है। ध्यान की आंख सब देख पाती है।
बुद्ध के आने को देख सुंदर आसन बनाया।
प्रभु आते हैं! जिनके पास जाने की कितनी—कितनी तमन्नाएं थीं, और कितनी—कितनी अभीप्साएं थीं, और कितने—कितने सपने थे! जिनके पास जाने के लिए सात साल अथक मेहनत की थी कि पात्र हो जाऊं तो जाऊं। आज वे स्वयं आते हैं। उसका आह्लाद तुम समझो। उसकी प्रतीक्षा तुम समझो। उसका आनंद! आज स्वर्ग टूटने को है!
वह तो भूल ही गया होगा कि मैं यह क्या कर रहा हूं! ये पत्थर, और ये ईंटें, और जंगल से कुछ भी उठाकर आसन बना रहा हूं! इसकी फिक्र ही न रही होगी। प्रेम ऐसा जादू है कि पत्थर को छुए, सोना हो जाए। और तुमने अगर बेमन से सोने की ईंटें लगाकर भी आसन बनाया, तो मिट्टी हो जाती है। असली सवाल प्रेम का है। बुद्ध प्रेम को देखते हैं।
भगवान रेवत के पास एक माह रहे।
कहानी कुछ नहीं कहती। कहानी बडी महत्वपूर्ण है। कहानी यह नहीं कहती कि भगवान ने रेवत को कुछ कहा कि रेवत ने भगवान से कुछ कहा। बस इतना ही कहती है कि भगवान रेवत के पास एक माह रहे।
नहीं; कुछ कहा नहीं होगा। कहने की अब कोई बात ही न थी। रेवत वहां पहुंच ही गया, जहां पहुंचाने के लिए भगवान कुछ कहते। और रेवत तो क्या कहे! जो चाह थी, वह बिना मांगे पूरी हो गयी। भगवान उसके द्वार पर आ गए।
मेरी अपनी दृष्टि यही है कि वे बैठे होंगे चुपचाप पास—पास। कोई कुछ न बोला होगा। बोलने को कुछ बचा न था। दो अर्हत बोल भी क्या सकते हैं! दो ज्ञानियों के पास बोलने को कुछ नहीं होता।
दो अज्ञानियों के पास बहुत होता है बोलने को। बोलने से ही काम नहीं चलता, सिर खोलकर मानेंगे। दो अज्ञानी एक—दूसरे की गरदन पकड़ लेते हैं।
दो ज्ञानी मिलें, तो चुप हो जाते हैं। हां, एक अज्ञानी हो और एक ज्ञानी, तो कुछ बोलने को हो सकता है।
बुद्ध सदा बोलते हैं; रोज बोलते हैं। लेकिन इस एक माह कुछ बोले, इसकी कोई खबर नहीं है। यह एक माह जैसे चुप्पी में बीता होगा। जिनको साथ ले गए होंगे, वे भी ऐसे लोग थे, जो अर्हत्व को पा गए हैं। रेवत भी अर्हत था।
यह सन्नाटे में बीता होगा महीना। यह महीना बड़ा प्यारा रहा होगा। यह महीना इस पृथ्वी पर अनूठा रहा होगा। इतने बुद्धपुरुष एक साथ बैठे चुपचाप! खूब बरसा होगा अमृत वहा। खूब घनी बरसा हुई होगी। मूसलाधार बरसा होगा अमृत वहा। सारा वन आनंदित हुआ होगा। पशु—पक्षियों तक की आत्माएं मुक्त होने के लिए आतुर हो उठी होंगी। वृक्षों के प्राण सुगबुगाकर जग गए होंगे। ऐसी गहन चुप्पी रही होगी।
फिर रेवत को साथ लेकर वे वापस लौटे।
और जब भगवान तुम्हारे पास आएं, तो एक ही प्रयोजन होता है कि तुम्हें अपने पास ले आएं। और तो कोई प्रयोजन नहीं हो सकता। गुरु शिष्य के पास आता है, ताकि शिष्य को गुरु अपने पास ले आए। गुरु की किरण तुम्हें टटोलती आती है—खोजती।
रेवत को साथ लेकर वापस लौटे। आते समय दो भिक्षुओं के उपाहन, तेल की फोंफी और जलपात्र पीछे छूट गए। सो वे मार्ग से लौटकर जब उन्हें लेने गए, तो जो उन्होंने देखा, उस पर उन्हें भरोसा नहीं आया। रास्ते बड़े ऊबड़—खाबड़ थे।
इस बार भगवान का साथ न था। वे ही रास्ते, भगवान साथ हों, तो प्यारे हो जाते हैं। वे ही रास्ते, भगवान साथ न हों, तो ऊबड़—खाबड़ हो जाते हैं।
दुनिया वही है। भगवान का साथ हो, तो स्वर्ग; भगवान का साथ चूक जाए, तो नर्क। सब वही है, सिर्फ भगवान के साथ से फर्क पडता है। तुम अकेले हो, भगवान का साथ नहीं; सब ऊबड़—खाबड़ होगा। जिंदगी एक दुख की कथा होगी। अर्थहीन, विषाद से भरी, रुग्ण। और भगवान का साथ हो, तो सब रूपांतरित हो जाता है जादू की तरह। तुम स्वस्थ हो जाते हो। कहीं कोई काटे नहीं रह जाते हैं। सब तरफ फूल खिल जाते हैं। कहीं कोई शोरगुल नहीं रह जाता। सब तरफ शाति बरसने लगती है।
उन्हें भरोसा न आया कि हो क्या गया! अभी— अभी हम आए थे, अभी— अभी हम गए; दो घड़ी में इतना सब बदल गया! ये वे ही रास्ते हैं? यह वही जंगल है? ये वे ही वृक्ष हैं? इतना ही नहीं, रेवत का जो निवास स्थान घड़ी दो घड़ी पहले इतना रम्य था कि स्वर्ग मालूम होता था, वह सिर्फ काटो से भरा था, और एक खंडहर था। और ऐसा लगता था, जैसे सदियों से वहां कोई न रहा हो।
श्रावस्ती लौटने पर महोपासिका विशाखा ने उनसे पूछा. आर्य रेवत का वास स्थान कैसा था?
मत पूछो, उपासिके! सारा काटो से भरा है और सांप—बिच्छुओं से भी। भूलकर भी भगवान न करे कि ऐसी जगह दुबारा जाना पड़े।
फिर विशाखा ने और भिक्षुओं से भी पूछा। उन्होंने कहा, आर्य रेवत का स्थान स्वर्ग जैसा सुंदर है, मानो ऋद्धि से बनाया गया हो! जैसे हजारों सिद्धों ने अपनी सारी सिद्धि उंडेल दी हो। चमत्कार है वह जगह। ऐसी सुंदर जगह पृथ्वी पर नहीं है।
इन विपरीत मंतव्यों को सुनकर स्वभावत: विशाखा चकित हुई। फिर उसने भगवान से पूछा भंते! आर्य रेवत के स्थान के विषय में पूछने पर आपके साथ गए भिक्षुओं में कोई कहता नर्क जैसा, कोई कहता स्वर्ग जैसा। बात क्या है? असली बात क्या है? आप कहें।
भगवान ने कहा. उपासिके! जब तक वहां रेवत का वास था, वह स्वर्ग जैसा था। जहां रेवत जैसे ब्राह्मण विहरते हैं, वह स्वर्ग हो जाता है। लेकिन उनके हटते ही वह नर्क जैसा हो गया। जैसे दीया हटा लिया जाए और अंधेरा हो जाए—ऐसे ही। मेरा पुत्र रेवत अर्हत हो गया है, ब्राह्मण हो गया है। उसने ब्रह्म को जान लिया है। धम्मपद ब्राह्मण की परिभाषा पर पूरा होता है—कि ब्राह्मण कौन! ब्राह्मण क्या! ब्राह्मण अंतिम दशा है—ब्रह्म को जान लेने की।
‘इस लोक और परलोक के विषय में जिसकी आशाएं नहीं हैं.।’
जो न तो यहां कुछ चाहता है, न वहा कुछ चाहता है। जो कुछ चाहता ही नहीं, जो अचाह को उपलब्ध हो गया है।
‘ऐसे निराशय और असंग को मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
रेवत ऐसा ब्राह्मण हो गया है।
‘जिसे तृष्णा नहीं है, जो जानकर वीतसंदेह हो गया है, जिसने डूबकर अमृत पद निर्वाण को पा लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
ऐसा मेरा पुत्र रेवत ब्राह्मण हो गया है।
‘जानकर वीतसंदेह हो गया…….।’
इस बात को समझना। लोग दो तरह से संदेह से बच सकते हैं। एक तो जबर्दस्ती किसी विश्वास को अपने ऊपर थोप लें और संदेह से बच जाएं। वह झूठा है संदेह से बचना। वह संदेह आज नहीं कल बदला लेगा; बुरी तरह बदला लेगा।
तुम दुनिया में इतने नास्तिक देखते हो, इतने नास्तिक नहीं हैं। दुनिया में नास्तिक बहुत ज्यादा हैं। क्योंकि जिन्हें तुम आस्तिक की तरह देखते हो, उनमें से शायद ही कोई आस्तिक है। वे सब नास्तिक हैं। भीतर तो नास्तिकता है, ऊपर से आस्तिकता की सिर्फ धारणा है। मान्यता है। मानते हैं कि ईश्वर है, जाना नहीं है। बिना जाने कैसे मानोगे? बिना जाने मानना नपुंसक है। उसमें कोई प्राण नहीं है।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, जानकर जो वीतसंदेह हो गया है, जिसने जानकर संदेह से मुक्ति पा ली, जिसने परमात्मा को पहचान लिया, सत्य को पहचान लिया। जो यह नहीं कहता है कि मानता हूं कि ईश्वर है। जो कहता है, मैं जानता हूं—ऐसा व्यक्ति ब्राह्मण है।
ब्रह्म को मानने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। ब्रह्म को जानने से कोई ब्राह्मण होता है।
‘जिसने यहां पुण्य और पाप दोनों की आसक्ति को छोड़ दिया है, जो विगतशोक, निर्मल और शुद्ध है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
और मेरा पुत्र रेवत ऐसा ही ब्राह्मण हो गया है। इस ब्राह्मण के कारण वहा स्वर्ग था। इस ब्राह्मण के कारण वहां ऋद्धि की वर्षा हो रही थी। इस ब्राह्मण की मौजूदगी ने उस जंगल को महल बना दिया था।
और तुम समझ लेना। अगर तुम्हारे भीतर आनंद नहीं है, तो तुम महलों में भी रहो, तो जंगल में रहोगे। और तुम्हारे भीतर आनंद है, तो तुम जहां रहो, वहीं महल है। वहीं महल खडा हो जाएगा। वहीं महल निर्मित हो जाएगा। तुम जहां रहो, जैसे रहो, वही महल है।
खयाल रखना, लोग कहते हैं कि जो आदमी पाप करेगा, उसे नर्क भेजा जाएगा। और जो पुण्य करेगा, उसे स्वर्ग भेजा जाएगा। यह गलत बात है। सच बात कुछ और है। .जो पाप करता है, वह नर्क में जीता है। भेजा जाएगा—ऐसा नहीं— भविष्य में। वह नर्क में जीता है—अभी और यहीं। और जो पुण्य करता है, वह स्वर्ग में जीता है—अभी और यहीं।
पाप और पुण्य प्रतिपल फल लाते हैं। कोई सरकारी काम थोड़े ही है कि फाइलों को सरकने में इतना समय लगे! कि तुमने पाप किया था पिछले जन्म में और अब तुम्हें फल मिलेगा! यह तुमने कोई भारतीय सरकार की व्यवस्था समझी है! कि फाइलें सरकती हैं एक टेबल से दूसरी टेबल। और सरकती ही रहती हैं और कभी कोई परिणाम नहीं होता।
तत्क्षण है फल। धर्म नगद है। यहां उधार कुछ भी नहीं है।

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