Wednesday 2 December 2015

एक ही प्रश्न उठ रहा है हृदय में और वह भी पहली बार कि कौन है तू? क्या है, कहां पर है? अपने से पूरी—पूरी पहचान हो जाये ताकि एक जान हो जायें। तू तू न रहे, मैं मैं न रहूं। एक दूजे में खो जायें। और जब तक पहचान नहीं होती तब तक एक कैसे हो जायें? और उचित भी यही है कि तभी मैं आपके दरबार में आऊं। आने का मजा भी तभी रहेगा।

ऐसे अपने मन को धोखे मत देना। निरंतर आदमी बचने की नई—नई तरकीबें खोज लेता है। परमात्मा के द्वार में भी तुम तब जाओगे जब अपने को जान लोगे तो परमात्मा के द्वार में जाने की जरूरत क्या रह जायेगी? और यह अकड़ छोड़ो कि अपने को जानकर पहुंचेंगे, कुछ पात्रता लेकर पहुंचेंगे, कुछ योग्य बनकर पहुंचेंगे।
यह तुम्हारी योग्यता और तुम्हारी पात्रता का रोग ही तो तुम्हें भटका रहा है। कुछ होकर पहुंचेंगे। ऐसे कैसे चले जायें नंग—धड़ंग? कुछ साज—सामान से पहुंचेंगे। परमात्मा के दरबार में भी तुम जैसे हो वैसे ही नहीं जाओगे? आयोजन करोगे? पहले और तरह के आयोजन थे सिंहासनों के, अब यह नया सिंहासन खोजा—आत्‍मज्ञानी होकर पहुंचेंगे।
‘तभी तो मजा रहेगा।’
तुम परमात्मा के सामने भी निरीह, अकिंचन बनकर खड़े न हो सकोगे? तुम परमात्मा के सामने भी अज्ञानी बनकर खड़े न हो सकोगे? वहां भी अहंकार को ले जाओगे? अपने को जानकर जाओगे? बात बड़ी ऊंची तुमने कही ऐसा लगता, लेकिन ऊंची बातों में हम बड़ी नीची बातें छिपा लेते हैं। आदमी की कुशलता अपार है। वह रोगों के ऊपर बड़ी सुगंधिया छिड़क लेता है। भ्रांतियों को भी अच्छे—अच्छे नाम दे देता है। यह आत्मज्ञान भी अहंकार की ही सूक्ष्म घोषणा है।
वहां तो तुम ऐसे ही चले जाओ, जैसे हो। तैयार मत होओ। सजी मत। मजा इसमें ही है कि तुम जैसे हो ऐसे ही चले जाओ। तुम जैसे हो ऐसे ही वहां स्वीकार हो। जरा भी अन्यथा होने की जरूरत नहीं है। परमात्मा की कोई भी शर्त नहीं है तुम पर कि तुम ऐसे होओ, तब आ सकोगे। अगर किन्हीं ने शर्तें लगाई हैं तो परमात्मा ने नहीं, तुम्हारे महात्माओं ने लगाई हैं। कि पहले साधु बनो, पहले तपस्वी बनो, त्यागी बनो, आचरण, पुण्य—और इतनी शर्तें लगा दी हैं कि तुम जन्मों—जन्मों तक भी बनोगे तो बन न पाओगे।
मैं तुमसे कहता हूं तुम जैसे हो ऐसे ही—सब घावों से भरे, धूलि— धूसरित, गंदे, कुरूप, अज्ञानी, ऐसे ही पुकार उठो। ऐसे ही चल पड़ो। तुम अंगीकार हो। उसने तुम्हें अंगीकार किया ही है। तुम चोर हो तो भी अंगीकार हो। तुम बेईमान हो तो भी अंगीकार हो। क्योंकि तुम कैसे हो यह कोई शर्त ही नहीं है, तुम हो इतना काफी है। सच तो यह है, अगर उसने तुम्हें अंगीकार न किया होता तो तुम हो ही न सकते थे। उसके बिना सहारे के तुम कुछ भी न हो सकते। चोर भी न हो सकते।
मैं तुमसे कहता हूं,जब तुम चोरी करने जा रहे हो तब भी वही तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है। जब तुम पाप करने गये हो तब भी उसके ही सहारे गये हो। अपने सहारे तो तुम कहीं भी नहीं जा सकते। तुम अपंग हो। तुम सदा उसके ही धनुष पर तीर बनकर चढ़े हो। तुमने कोई भी लक्ष्य भेदे हों, सभी लक्ष्यों में उसकी ही ऊर्जा है।
ऐसा जिस दिन जानोगे, उस दिन फिर ये बातें न करोगे। फिर आदमी का तर्क! आदमी सोचता है, पहले कुछ इंतजाम तो कर लूं। व्यवस्था जुटा लूं। सब भांति योग्य हो जाऊं। इसलिए तो तुम दरबार कह रहे हो। यह दरबार नहीं है परमात्मा का। दरबार! तो तुम फिर राजाओं की, सम्राटों की बातें भीतर ले आये। वहां तैयारी चाहिए। वहां तुम्हें स्थान नहीं मिलता, तैयारी को स्थान मिलता है।
मिर्जा गालिब के जीवन में उल्लेख है। बहादुरशाह ने निमंत्रण दिया है। और भी नगर के प्रतिष्ठित लोग आमंत्रित हुए हैं। गालिब को भी निमंत्रित किया है। लेकिन गरीब है गालिब। उधारी में दबा है। कपड़े —लत्ते पास नहीं। बड़ा संकोच से भरा है। फिर सोचने लगा मन ही मन कि मुझे निमंत्रण दिया है तो अब जैसा हूं वैसा जाऊंगा। मित्रों ने कहा कि नहीं, ऐसे मत जाओ। मित्र कोट—कमीज मांग लाये, जूते माग लाये, सब सामान इकट्ठा कर दिया कि यह पहनकर चले जाओ। गालिब का मन सोच में पड़ गया, ये कपड़े पहनूं न पहनूं? अपने कपड़े अपने हैं, दूसरे के दूसरे के हैं। कितने ही सुंदर हों, उधार हैं। यह झूठ क्यों आरोपण करूं?
हिम्मत करके अपने ही मैले —कुचैले पुराने कपड़े पहने चला गया। पर वही हुआ जो मित्रों ने कहा था। द्वारपाल ने भीतर प्रविष्ट ही न होने दिया। उसने कहा, भाग यहां से। द्वारपाल तो उसके हाथ में जो निमंत्रण—पत्र था वह भी छुड़ाने लगा। उसने कहा, तू किसी का चुरा लाया होगा। ऐसे आदमियों को सम्राट का कहीं निमंत्रण मिलता है? तू किसका निमंत्रण चुरा लाया? भाग यहां से। दुबारा लौटकर यहां मत आना।
गालिब तो बहुत परेशान और अपमानित हुआ, लेकिन समझ भी खूब आई। खूब हंसा भी मन ही मन। घर गया, वह जो उधार कपड़े थे, पहनकर टीम—टाम करके वापिस आ गया। वही द्वारपाल झुक—झुककर नमस्कार किया। कहा, मीर साहब, आइये। वह बड़ा हैरान हुआ कि क्या यह आदमी इतना भी नहीं देख सकता. कि मैं वही हूं। लेकिन आदमी तो मुखौटे देखते हैं। आदमी आत्मायें थोड़े ही देखते हैं। आदमी तो पशुओं से भी गये—बीते हैं।
ईसप की कहानी है एक, कि एक लोमड़ी को एक मुखौटा मिल गया। किसी नाटक कंपनी के पास घूम रही होगी, एक मुखौटा मिल गया। तो उसने उल्टा—पलटा, खूब उल्टा—पलटा। उसको कुछ समझ में न आये कि पीछे तो कोई है ही नहीं। उल्टती—पलटती गई, आखिर उसने कहा, हद हो गई। इतना बड़ा चेहरा और भेजा बिलकुल नहीं! भीतर कुछ है ही नहीं? यह जो ईसप की लोमड़ी है, यह भी ज्यादा समझदार रही होगी उस बहादुरशाह के द्वारपाल से।
और जब गालिब गया तो बहादुरशाह ने उसे बड़े सम्मान से अपने पास ही बिठाया। और भी मेहमान थे। बहादुरशाह के मन में बड़ी कद्र थी कविता की। खुद भी कवि था। कोई बहुत बड़ा कवि तो नहीं लेकिन फिर भी कवि था। और कविता का बड़ा आदर था मन में। लेकिन बड़ा हैरान हुआ जब भोजन परोसा गया और गालिब उठा—उठाकर मालपुण्न्दू, बर्फियां अपने कोट को छुलाने लगा पगड़ी को छुलाने लगा तो वह जरा चौंका। ऐसे तो कवि झक्की होते हैं मगर यह क्या कर रहा है? और न केवल इतना, गालिब कहने लगा, ले कोट, खा। ले पगड़ी, खा। खूब मन भरकर खा।
बहादुरशाह ने कहा, आप क्या कह रहे हैं? ज्यादा तो नहीं पी गये हैं? पियक्कड़ तो था। सोचा ज्यादा पी गया हो। वह यह क्या कर रहा है? गालिब ने कहा, नहीं, पीया बिलकुल नहीं हूं,लेकिन मैं आया ही नहीं हूं। ये कपड़े ही आये हैं। ये ही भोजन करें। निमंत्रण आप) भला मुझे भेजा हो द्वारपाल ने मुझे प्रविष्ट नहीं होने दिया है। ये कपड़े ही भीतर आये हैं। मैं तो आया ही नहीं। मैं तो अपमानित बाहर से घर लौटा दिया गया हूं।
ये आदमियों के दरबार हैं। तुम ईश्वर के दरबार को भी आदमियों का दरबार समझते हो? वहां तुम जैसे भी जाओगे वैसे ही स्वीकार हो जाओगे। यह अकड़ छोड़ो। यह बात ही व्यर्थ है कि पहले मैं अपने को जान लूं र फिर मजा रहेगा।
और दूसरी बात खयाल रखो कि तुम बिना उससे मिले अपने को जान न पाओगे। अब और थोड़ी अड़चन है। क्योंकि उससे मिलने का अर्थ क्या है? उससे मिलने का अर्थ ही यही है, स्वयं की आत्यंतिक सत्ता से मिलना। परमात्मा कुछ अलग थोड़े ही बैठा है। कि कहीं बैठा है, तुम चले गये द्वार पर दस्तक दे दी, भीतर बुला लिये गये। परमात्मा भीतर बैठा है। जब तुम स्वयं में जाओगे तभी उसमें जाओगे। वहीं उसका दरबार है —तुम्हारे स्वभाव में।
तो तुम स्वयं को जान लो और फिर परमात्मा के पास जाओ, यह तो बात हो ही नहीं सकती। स्वयं को जाना कि परमात्मा को जान लिया। परमात्मा को जान लिया कि स्वयं को जान लिया। स्वयं को जान लेना और परमात्मा को जान लेना दो बातें नहीं हैं, एक ही घटना है। एक ही घटना को कहने के दो ढंग हैं।
तो यह तो तुम बांधना ही मत खयाल अपने मन में कि पहले स्वयं को जान लेंगे, फिर जायेंगे। तो तुम स्वयं को भी न जान सकोगे और अभी तुमने स्वयं को जो समझा है कि यह मैं हूं, वह तो तुम हो ही नहीं। किसी ने समझा है मैं देह हूं,किसी ने समझा है मैं मन हूं,किसी ने समझा है कि हिंदू मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध। किसी ने समझा कि ब्राह्मण, शूद्र; किसी ने समझा गोरा, काला, किसी ने समझा जवान, का। यह तुम कुछ भी नहीं हो। यह तो मन और शरीर का ही सब जोड़ है। इनके पार तुम हो, साक्षी तुम हो। उस साक्षी में प्रवेश ही परमात्मा में प्रवेश है।
फिर एक बात और—इस जगत में जैसे नियम हैं, ठीक उससे विपरीत नियम हैं अंतर्जगत के। यहां अगर तुम्हें कुछ पाना हो — धन ., पद, प्रतिष्ठा, तो लड़ना पड़े, जूझना पड़े, छीन—झपट मचानी पड़े। गलाघोंट प्रतियोगिता है। और भी छीन रहे हैं; तुम्हें भी छीनना पड़े। क्योंकि बाहर की दुनिया में जो धन है उसे तुमने पा लिया तो दूसरा वंचित रह जायेगा। दूसरे ने पा लिया तो तुम वंचित रह जाओगे। यहां तो दो ही उपाय हैं, या तुम छीन लो या दूसरे को छीन लेने दो।
भीतर की दुनिया के नियम बिलकुल ही भिन्न हैं। वहां तुम ज्ञानी बन जाओ तो दूसरे को अज्ञानी नहीं बनना पड़ता। दूसरा ज्ञानी बन जाये तो तुम्हारा कुछ छिनता नहीं। वहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। वहां तो जो छीन—झपट करेगा, चूक जायेगा। वहां तो बिना छीन—झपट मिलता है। वहां तो बिना प्रयास मिलता है। बाहर जो बैठा रहा, चूकेगा। भीतर जो चलता रहा, चूकेगा। बाहर जो चलता रहा, पायेगा। भीतर जो बैठ गया, पायेगा।
ध्यान क्या है? बैठ जाना। ऐसी बैठक मार लेनी भीतर—यही तो आसन शब्द का अर्थ है। आसन का अर्थ है, ऐसी बैठक मार ली कि हिलते ही नहीं। चलना—जाना तो दूर रहा, कंपन भी नहीं होता। अकंप होकर भीतर बैठ गये, बस वहीं मिलना है।
बाहर की तो कोई भी मंजिल तुम्हें दिल्ली जाना तो यात्रा करनी पड़े। और तुम्हें स्वयं में आना तो सब यात्रा छोड़नी पड़े। बाहर खोजना, आंख खोलनी पड़े। भीतर खोजना, आंख बिलकुल बंद कर लेनी पड़े। बाहर कुछ करना है, शरीर का माध्यम लेना पड़ेगा। भीतर कुछ करना है, शरीर का माध्यम छोड़ देना पड़ेगा। उतरो घोड़े से। बाहर जाना है तो घोड़े की सवारी है। शरीर पर चढ़कर ही जाओगे और कोई उपाय नहीं है। भीतर जाना है तो शरीर की कोई आवश्यकता ही नहीं है। इस घोड़े को भीतर मत लिये चले जाना, नहीं तो भीतर जा न पाओगे। बाहर जाना है तो सोच—विचार। भीतर जाना है तो निर्विचार। ये बड़ी विपरीत बातें हैं।
इसका एक सूत्र मैं तुमसे निवेदन कर दूं। बाहर विज्ञान कहता है, कारण—कार्य का नियम; काज—इफेक्ट। पहले कारण फिर कार्य। पहले मां फिर बेटा। पहले बीज फिर वृक्ष। कारण पहले, कार्य पीछे। इससे अन्यथा बाहर नहीं होता।
भीतर की दुनिया में मामला उल्टा है। यहां कार्य पहले, कारण पीछे। पहले बेटा फिर मां। इसीलिए तो कबीर ने उलटबासियां लिखी हैं।

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