Monday 28 December 2015

यह छोटी सी कहानी समझ लें।
यह चंदाभ नाम का ब्राह्मण किसी अतीत जन्म में भगवान कश्यप बुद्ध के चैत्य में चंदन लगाया करता था।
कुछ और बड़ा कृत्य नहीं था पीछे। लेकिन बड़े भाव से चंदन लगाया होगा कश्यप बुद्ध के चैत्य में, उनकी मूर्ति पर। असली सवाल भाव का है। बडी श्रद्धा से लगाया होगा। तब से ही इसमें एक तरह की आभा आ गयी थी। जहां श्रद्धा है, वहां आभा है। जहां श्रद्धा है, वहां जादू है।
उस पुण्य के कारण, वह जो कश्यप बुद्ध के मंदिर में चंदन लगाने का जो पुण्य था, वह जो आनंद से इसने चंदन लगाया था, वह जो आनंद से नाचा होगा, पूजा की होगी, प्रार्थना की होगी, वह इसके भीतर आभा बन गयी थी। ज्योतिर्मय हो कर इसके भीतर जग गयी थी।
कुछ पाखंडी ब्राह्मण उसे साथ लेकर नगर—नगर घूमते थे। क्योंकि वह बड़ा चमत्कारी आदमी था। उसकी नाभि में से रोशनी निकलती थी। वे कपड़ा उघाड़—उघाड़कर लोगों को उसकी नाभि दिखाते थे। नाभि देखकर लोग हैरान हो जाते थे। और उन्होंने इसमें एक धंधा बना रखा था। वे कहते थे. जो इसके शरीर को स्पर्श करता है, वह जो चाहता है, पाता है। और जब तक लोग बहुत धन दान न करते, वे उसका शरीर स्पर्श नहीं करने देते थे। ऐसे वे काफी लोगों को लूट रहे थे।
भगवान जेतवन में विहरते थे, तब वे उसे लिए हुए श्रावस्ती पहुंचे। जेतवन श्रावस्ती में था। संध्या समय था और सारा नगर भगवान के दर्शन और धर्मश्रवण के लिए जेतवन की ओर जा रहा था। उन ब्राह्मणों ने लोगों को रोककर चंदाभ का चमत्कार दिखाना चाहा। लेकिन कोई रुकना नहीं चाहता था।
जिसने भगवान को देखा हो, जिसने किसी बुद्धपुरुष को देखा हो, उसके लिए सारी दुनिया के चमत्कार फीके हो गए। जिसने साक्षात प्रकाश देखा हो, उसके लिए किसी की नाभि में से थोड़ी—बहुत रोशनी निकल रही है—इसका कोई अर्थ नहीं है। बच्चों जैसी बात है। इस तरह की बातों में बच्चे ही उत्सुक हो सकते हैं।
कोई रुका नहीं। ब्राह्मण बड़े हैरान हुए। ऐसा तो कभी न हुआ था। उनके अनुभव में न आया था। जहां गए थे, वहीं भीड़ लग जाती थी। तो उन्हें लगा कि जरूर इससे भी बड़ा चमत्कार कहीं बुद्ध में घट रहा होगा, तभी लोग भागे जा रहे हैं। तो बुद्ध का अनुभाव देखने के लिए—कि कौन है यह बुद्ध! और क्या इसका प्रभाव है! क्या इसका चमत्कार है! वे ब्राह्मण चंदाभ को लेकर बुद्ध के पास पहुंचे। भगवान के सामने जाते ही चंदाभ की आभा लुप्त हो गयी।
हो ही जाएगी। क्योंकि जो आभा थी, वह ऐसी ही थी, जैसे कोई दीया जलाए सूरज के सामने। सूरज के सामने दीए की रोशनी खो जाए, इसमें आश्चर्य क्या! दीए की तो बात और; सुबह सूरज निकलता है, आकाश के तारे खो जाते हैं। अंधेरे में चमकते हैं, रोशनी में खो जाते हैं। सूरज की विराट रोशनी तारों की रोशनी छीन लेती है। तारे कहीं जाते नहीं; जहां हैं, वहीं हैं। मगर दिन में दिखायी नहीं पड़ते। जब सूरज ढलेगा, तब फिर दिखायी पड़ने लगेंगे।
यह चंदाभ की जो आभा थी, मिट्टी का छोटा सा दीया था। बुद्ध की जो आभा थी, जैसे महासूर्य की आभा।
लेकिन चंदाभ तो बेचारा यही समझा कि जरूर कोई मंत्र जानते होंगे। मेरी आभा को मिटा दिया। दुखी भी हुआ, चमत्कृत भी। उसने कहा. हे गौतम! मुझे भी आभा को लुप्त करने का मंत्र दीजिए। और उस मंत्र को काटने की विधि भी बताइए। तो मैं सदा—सदा के लिए आपका दास हो जाऊंगा, आपकी गुलामी करूंगा।
बुद्धपुरुष कभी मौका नहीं चूकते। कोई भी मौका मिले, किसी भी बहाने मौका मिले, संन्यास का प्रसाद अगर बांटने का अवसर हो, तो वे जरूरत बांटते हैं। बुद्ध ने यही मौका पकड़ लिया। इसी निमित्त चलो।
उन्होंने कहा देख, मंत्र दूंगा—मंत्र—वत्र है नहीं कुछ—मंत्र दूंगा। लेकिन पहले तू संन्यस्त हो जा।
मंत्र के लोभ में वह आदमी संन्यस्त हुआ।
लेकिन बुद्ध ने देखा होगा कि इस आदमी में क्षमता तो पड़ी है, बीज तो पड़ा है। वह जो कश्यप बुद्ध के मंदिर में चंदन लगाया था; वह जो भावदशा इसकी सघन हुई थी, वह आज भी मौजूद है। तड़फती है मुक्त होने को। उस पर ही दया की होगी। यह आदमी ऊपर से तो भूल— भाल चुका है। किस जन्म की बात! कहां की बात! किसको याद है! इस आदमी की बुद्धि में तो कुछ भी नहीं है। सब भूल— भाल गया है। इसकी स्मृति में कोई बात नहीं रह गयी है। इसे सुरति नहीं है। लेकिन इसके भीतर ज्योति पड़ी है।
कल एक युवक नावें से आया। मैंने लाख उपाय किया कि वह संन्यस्त हो जाए, क्योंकि उसके हृदय को देखूं र तो मुझे लगे कि उसे संन्यस्त हो ही जाना चाहिए। और उसके विचारों को देखूं, तो लगे कि उसकी हिम्मत नहीं है। सब तरह समझाया—बुझाया उसे कि वह संन्यस्त हो जाए। तरंग उसमें भी आ जाती थी। बीच—बीच में लगने लगता था कि ठीक। हृदय जोर मारने लगता, बुद्धि थोड़ी क्षीण हो जाती। लेकिन फिर वह चौंक जाता।
दो हिस्सों में बंटा है। सिर कुछ कह रहा है। हृदय कुछ कह रहा है। और हृदय की आवाज बड़ी धीमी होती है; मुश्किल से सुनायी पड़ती है। क्योंकि हमने सदियों से सुनी नहीं है, तो सुनायी कैसे पड़े! आदत ही चूक गयी है। खोपड़ी में जो चलता है, वह हमें साफ—साफ दिखायी पड़ता है। हम वहीं बस गए हैं। हमने हृदय में जाना छोड़ दिया है।
तो यह आदमी तो चाहता था मंत्र। मंत्र के लोभ में संन्यस्त हुआ। इसे पता नहीं कि बुद्धों के हाथ में तुम अंगुली दे दो, तो वे जल्दी ही पहुंचा पकड़ लेंगे! पकड़े गए कि पकड़े गए। फिर छूटना मुश्किल है।
बुद्ध ने उसको समझाया होगा कि अब तू ध्यान कर—तो मंत्र। समाधि लगा—तो मंत्र! ऐसे धीरे— धीरे कदम—कदम उसको समाधि में पहुंचा दिया। जब वह समाधिस्थ हो गया, तो वह तो भूल ही गया मंत्र की बात। कौन न भूल जाएगा! महामंत्र मिल गया। अब तो उसे खुद भी दिखायी पड़ गया होगा कि वह बात ही —मूढ़ता की थी कि मैं मंत्र मांगता था। न तो उन्होंने काटा था, न कोई मंत्र था। बड़ी रोशनी के सामने आकर छोटी रोशनी अपने आप लुप्त हो गयी थी। किसी ने कुछ किया नहीं था। बुद्ध कुछ करते नहीं हैं। बुद्ध कोई मदारी नहीं हैं।
जब ब्राह्मण उसे लेने के लिए आए, तो वह हंसा और बोला कि तुम लोग जाओ। मैं तो अब नहीं जाने वाला हो गया हूं। मैं तो ऐसी जगह ठहर गया हूं, जहां से जाना इत्यादि होता ही नहीं। मैं समाधिस्थ हो गया हूं।
जाना कैसे हो? जाना तो विचार के घोड़ों पर होता है। जाना तो वासनाओं पर होता है। जाना तो तृष्णाओं के सहारे होता है। वे सब तो गए सहारे। अब मेरी कोई दौड नहीं, क्योंकि मेरी कोई चाह नहीं। अब मुझे कहीं जाना नहीं, कहीं पहुंचना नहीं, क्योंकि मुझे जहां पहुंचना था, वहा मैं पहुंच गया हूं। मेरा तो आना—जाना सब मिट गया। आवागमन मिट गया। तुम कहां की बातें कर रहे हो! अब तो इस जमीन पर भी मैं लौटकर आने वाला नहीं। मुझे महामंत्र मिल गया है।
ब्राह्मण तो चौंके ही चौंके कि यह क्या हो गया! लेकिन भिक्षु भी चौंके, जो ज्यादा सोचने जैसी बात है। आदमी इतना राजनैतिक प्राणी है! वह यह बर्दाश्त नहीं कर सकता। धार्मिक आदमी भी, भिक्षु भी ईर्ष्या से भर गए होंगे कि यह अभी— अभी तो आया चंदाभ, और अभी—अभी ज्ञान को उपलब्ध हो गया! और हम इतने दिन से बैठे हैं! हम कपास ही ओट रहे हैं। और यह आए देर नहीं हुई, अभी नया—नया सिक्सडू, सिद्ध होने का दावा कर रहा है!
उन्होंने जाकर बुद्ध को कहा कि भंते! चंदाभ भिक्षु अर्हत्व होने का दावा कर रहा है। और इस तरह झूठ बोल रहा है। आप उसे चेताइए।
लेकिन बुद्ध ने चंदाभ को नहीं चेताया। चेताया उन भिक्षुओं को, कि भिक्षुओ! तुम चेतो। तुम ईर्ष्या से भरे हो। तुम देख नहीं रहे हो जो घट रहा है। तुम अहंकार से भरे हो। मेरे पुत्र की तृष्णा क्षीण हो गयी है। और वह जो कर रहा है, पूर्णत: सत्य है। वह जो कह रहा है, पूर्णत: सत्य है। वह ब्राह्मणत्व को उपलब्ध हो गया है।
‘जो चंद्रमा की भांति विमल, शुद्ध, स्वच्छ और निर्मल है तथा जिसकी सभी जन्मों की तृष्णा नष्ट हो गयी, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
और चंदाभ ब्राह्मण हो गया है भिक्षुओ। वह ठीक चंद्रमा की भाति अब हुआ। तब तो नाम ही था। तब जो जरा सी ज्योति थी उसकी नाभि में। अब ज्योति सब तरफ फैल गयी। अब वह ज्योति स्वरूप हो गया। अब चंदाभ चंद्रमा ही हो गया है। तुम फिर से देखो भिक्षुओ! उसमें तृष्णा नहीं बची। उसमें मांग नहीं रही। उसकी वासना भस्मीभूत हो गयी है। वह ब्राह्मण हो गया है।
‘जो मानुषी बंधनों को छोड़ दिव्य बंधनों को भी छोड़ चुका है।’
उसने मनुष्यों से ही बंधन नहीं छोड़ दिए हैं, उसने दिव्यता से भी बंधन छोड़ दिए हैं। आया था मंत्र मांगने, अब वह कुछ भी नहीं मांगता, मोक्ष भी नहीं मांगता है।’सभी बंधनों से जो विमुक्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
‘जो पूर्व—जन्म को जानता है……..।’
और अब उसे याद आ गयी है कि वह जो आभा उसकी नाभि में थी—क्यों थी। उसे याद आ गयी, कश्यप महाबुद्ध के चैत्य में चंदन लगाया था’ आनंद से। उतनी सी छोटी बात भी इतना फल लायी थी! उसे याद आ गए हैं अपने सब पिछले जीवन के रास्ते। और चूंकि उनकी याद आ गयी है, इसलिए अब उसके आगे के सब रास्ते टूट गए हैं।
अब उसने देख लिया कि मैं व्यर्थ ही भटक रहा था। बाहर जो भटकता है, व्यर्थ भटकता है। जन्मों—जन्मों यही वासनाएं, यही कामनाएं, यही तृष्णाएं, और इन्हीं—इन्हीं के सहारे दौड़ता रहा और कहीं नहीं पहुंचा।
अब मेरा पुत्र पहुंच गया है। अब वह वहां पहुंच गया है, जहां जन्म—मरण शांत हो जाते हैं। उसने स्वर्ग—नर्क का सब रहस्य जान लिया है। उसका पूर्व —जन्म क्षीण हो गया है। अब वह दुबारा नहीं आएगा। वह अनागामी हो गया है।
‘जिसकी प्रज्ञा पूर्ण हो चुकी है, जिसने अपना सब कुछ पूरा कर लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
बुद्ध ने ब्राह्मण की जो परिभाषा की, वही भगवत्ता की परिभाषा है। बुद्ध ने ब्राह्मण को जैसी ऊंचाई दी, वैसी किसी ने कभी नहीं दी थी। ब्राह्मणों ने भी नहीं। ब्राह्मणों ने तो ब्राह्मण शब्द को बहुत क्षुद्र बना दिया—जन्म से जोड़ दिया। बुद्ध ने आत्म— अनुभव से जोड़ा। बुद्ध ने निर्वाण से जोड़ा।
वह जो मुक्त है, वह जो शून्य है, वह जो खो गया है बूंद की तरह सागर में और सागर हो गया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं—ऐसा बुद्ध ने कहा।
मैंने तुमसे कहा सभी लोग शूद्र की तरह पैदा होते हैं। और दुर्भाग्य से अधिक लोग शूद्र की तरह ही मरते हैं। ध्यान रखना, फिर दोहराता हूं—सभी लोग शूद्र की तरह पैदा होते हैं। ब्राह्मण की तरह कोई पैदा नहीं होता। क्योंकि ब्राह्मणत्व उपलब्ध करना होता है, पैदा नहीं होता कोई। ब्राह्मणत्व अर्जन करना होता है। ब्राह्मणत्व साधना का फल है।
शूद्र की तरह सब पैदा होते हैं, क्योंकि सभी शरीर के साथ तादात्म्य में जुड़े पैदा होते हैं। शूद्र हैं, इसीलिए पैदा होते हैं। नहीं तो पैदा ही क्यों होते? शूद्रता के कारण पैदा होते हैं। क्योंकि अभी शरीर से मोह नहीं गया। इसलिए पुराना शरीर छूट गया, तत्‍क्षण जल्दी से नया शरीर ले लिया। राग बना है, मोह बना है, तृष्णा बनी है—फिर नए गर्भ में प्रविष्ट हो गए। फिर पैदा हो गए।
तुम्हें कोई पैदा नहीं कर रहा है। तुम अपनी ही वासना से पैदा होते हो। मरते वक्त जब तुम घबडाए होते हो, और जोर से पकड़ते हो शरीर को, और चीखते हो और चिल्लाते हो, और कहते हो बचाओ मुझे। थोड़ी देर बचा लो। तब तुम नए जन्म का इंतजाम कर रहे हो।
जो मरते वक्त निश्चित मर जाता है, जो कहता है. धन्य है! यह जीवन समाप्त हुआ। धन्य—कि इस शरीर से मुक्ति हुई। धन्य—कि इस क्षणभंगुर से छूटे। जो इस विश्राम में विदा हो जाता है, उसका फिर कोई जन्म नहीं है।
तुम जन्म का बीज अपनी मृत्यु में बोते हो। जब तुम मरते हो, तब तुम नए जन्म का बीज बोते हो। और तुम जिस तरह की वासना करते हो, उस तरह के जन्म का बीज बोते हो। तुम्हारी वासना ही देह धरेगी। तुम्हारी वासना ही गर्भ लेगी।
बुद्ध ने कहा है तुम नहीं जन्मते, तुम्हारी वासना जन्मती है। तो जब वासना नहीं, तब तुम्हारा जन्म समाप्त हो जाता है।
सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं। लेकिन शूद्र की तरह मरने की कोई जरूरत नहीं है। स्मरणपूर्वक कोई जीए, होशपूर्वक कोई जीए; एकांत में, मौन और ध्यान में कोई जीए, तो ब्राह्मण की तरह मर सकता है। और जो ब्राह्मण की तरह मरा, वह संसार में नहीं लौटता है, वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है।
ये सारे धम्मपद के सूत्र, कैसे कोई ब्रह्म को उपलब्ध कर ले, कैसे कोई ब्राह्मण हो जाए, इसके ही सूत्र थे। धम्मपद का अर्थ होता है. ब्राह्मण तक पहुंचा देने वाला मार्ग, धर्म का मार्ग, जो तुम्हें ब्राह्मणत्व तक पहुंचा दे।
सुनकर ही समाप्त मत कर देना। जीना। इंचभर जीना, हजार मीलों के सोचने से बेहतर है। क्षणभर जीना, शाश्वत, हजारों वर्षों तक सोचने से बेहतर है। कणभर जीना, हिमालय जैसे सोचने से बेहतर है, मूल्यवान है।
जीओ—जागो और जीओ।

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