Saturday 12 December 2015

भगवान, बुद्ध कहते हैं: अप्प दीपो भव। अपने दीए स्वयं बनो। और आपकी देशना है: रसमय होओ, रासमय होओ। क्या दोनों उपदेश मात्र अभिव्यक्ति के भेद हैं?

रेंद्र! मात्र अभिव्यक्ति का भेद नहीं है। भेद और थोड़ा गहरा है। बुद्ध का वक्तव्य साध्य के संबंध में, मेरा वक्तव्य साधन के संबंध में। मैं बुद्ध से राजी हूं; अप्प दीपो भव, अपने दीए बनो। दीए बनने का और तो कोई मार्ग भी नहीं। कोई दूसरा तुम्हारे लिए दीया हो सकता भी नहीं। खुद की आंख ही होगी तो देख सकोगे। खुद के पैर ही होंगे तो चल सकोगे।
तुमने वह कहानी जरूर सुनी होगी। जिन्होंने गढ़ी है, शायद सोचा होगा गहरी बात कह रहे हैं। संसार के संबंध में तो शायद सच भी हो, लेकिन अध्यात्म के संबंध में बिलकुल झूठ है। तुमने सुना होगा, एक जंगल में आग लगी। उस जंगल में एक अंधा आदमी और एक लंगड़ा आदमी रहते थे। लंगड़ा देख सकता था, चल नहीं। अंधा चल सकता था, देख नहीं। बात सीधी—साफ थी। दोनों ने समझौता किया। दोनों ने सौदा किया। अंधे ने लंगड़े को कंधे पर उठा लिया। लंगड़ा देखता है, अंधा चलता है। दोनों के साथ—सहयोग से जंगल की आग से बचकर वे बाहर निकल आए।
यह बात संसार के संबंध में सही हो सकती है। यहां अंधों में लंगड़ों में बहुत सौदे होते हैं, बहुत साझेदारी होती है। यहां अंधे और लंगड़े ही हैं। और किसको खोजोगे? दोस्ती उनसे, दुश्मनी उनसे! लेकिन जीवन के परम सत्य तक जाने का ऐसा कोई उपाय नहीं है। तुम किसी और की आंख से नहीं देख सकते हो वहां। अपनी ही आंख चाहिए। वहां उधार नहीं चलेगा। धर्म नगद है। तुम्हारे पास अपनी संपदा होगी तो ही कुछ हो सकेगा। परमात्मा के सामने तुम वेद का उच्चार करोगे, गीता गुनगुनाओगे, कुरान की आयतें पढ़ोगे, तो दो कौड़ी के सिद्ध होओगे। परमात्मा के सामने तो तुम्हें अपना गीत गाना होगा। अपना वेद जन्माना होगा। अपनी कुरान जगानी होगी। वहां तो केवल तुम्हारी अंतरात्मा से जो स्वर उठेंगे वे ही स्वीकृत हो सकते हैं। वहां किसी और के बजाए हुए गीत, किसी और के नाचे हुए नृत्य काम नहीं आएंगे। वहां तुम हिज मास्टर्स वाइस के रिकार्ड की तरह मत जाना। वहां रिकार्डों का कोई मूल्य नहीं है। वहां तो तुम्हारी परख होगी। वे आंखें तो तुम्हारे अंतस्तल में झांकेंगी। वे तो तुम्हारे अंतरतम को परखेंगी। वहां तो तुम्हें नग्न खड़े होना होगा। मांगे गए उधार वस्त्र द्वार पर ही छुड़ा लिए जाएंगे। इसलिए बुद्ध ने कहा: अप्प दीपो भव। अपने दीए बनो।
बुद्धों के पास यह खतरा खड़ा होता है। बुद्धों को इस बात के लिए बार—बार चौंकाना पड़ता है, चेताना पड़ता है। क्योंकि तुम हो आलसी। तुम्हारी आदत है कि कुछ मुफ्त मिल जाए तो क्यों श्रम करो! तुम्हारे जीवन—भर का हिसाब है: चोरी—चपाटी। सत्य भी तुम चुरा लेना चाहते हो। वह भी किसी की जेब काट लो, ऐसी तुम्हारी आकांक्षा है। सत्य तक पहुंच जाने के लिए भी कोई सुगम—सस्ता मार्ग मिल जाए; मुफ्त मिल जाए तो बहुत बेहतर; कुछ न चुकाना पड़े तो धन्यभाग; ऐसी तुम्हारी अभीप्सा है। लेकिन सत्य मुफ्त नहीं मिलता। सत्य को तो प्राणों से खरीदना होता है। सत्य कुर्बानी मांगता है। सत्य कहता है: अपने सिर को काटो और चढ़ाओ। अपने अहंकार को मिटाओ। इतनी कीमत न दे सको तो फिर झूठ में ही जीना होगा। रोशनी कहती है: तुम मिटो तो मैं होऊं। अंधेरा कहता है, तुम मजे से रहो; तुम्हारे रहने में ही मेरा रहना है। अहंकार और अंधेरे में सांठ—गांठ है। प्रकाश के आते जैसे अंधकार चला जाता है, ऐसे ही अंतरात्मा में प्रकाश के उदय होते ही आध्यात्मिक अंधकार टूट जाता है, छूट जाता है।
अप्प दीपो भव सभी बुद्धों को कहना पड़ता है; क्यों? क्योंकि बुद्धों का जलता हुआ दीया देखकर तुम्हें लगता है, अब हमें क्या करना? भगवान, आप तो जानते हैं, आप हमें जना दें! आपको मिल गया, आप हमें सुझा दें! आपने रास्ता पा लिया, अब हम क्यों रास्ते की तलाश करें? हम तो अनुसरण करेंगे। हम तो आपके पीछे—पीछे चलेंगे। हम तो आपकी छाया बनेंगे। कहने वाले शायद सोचते होंगे, बड़ी श्रद्धा की बात कह रहे हैं! कहने वाले शायद सोचते होंगे—और समर्पण क्या होगा! लेकिन आदमी का मन बहुत बेईमान है। यह समर्पण नहीं है, न श्रद्धा है। यह तो श्रद्धा से बिलकुल विपरीत है। यह तो अहंकार का ही उपाय है, आयोजन है। अपने को बचाने की अंतिम तरकीब है, अंतिम व्यवस्था है। अब तुम बुद्ध के वस्त्र ओढ़ लो, तो बुद्ध हो जाओगे! कि बुद्ध का कमंडल उठा लो तो बुद्ध हो जाओगे? कि बुद्ध जैसे उठो, बैठो, तो बुद्ध हो जाओगे!
बुद्ध का चचेरा भाई था: देवदत्त। बचपन से बुद्ध के साथ खेला, बड़ा हुआ। लड़े भी होंगे, झगड़े भी होंगे, एक—दूसरे को कभी मारा भी होगा, एक—दूसरे को कभी पटका भी होगा—सब कुछ हुआ होगा, दोनों बराबर उम्र के थे, साथ—साथ बड़े…एक ही महल में बड़े हुए। फिर बुद्ध तो तथागत हो गए, परम ज्ञान को उपलब्ध हुए, देवदत्त के मन में बड़ीर् ईष्या जगी। उसने कहा: जो बुद्ध कर सकते हैं, वह मैं भी कर सकता हूं। तो वह आ कर बुद्ध से दीक्षित हुआ। लेकिन दीक्षित होने में काइयांपन था; चालबाजी थी, दुकानदारी थी। वह दीक्षित हुआ कि जरा ठीक से देख लूं, आखिर बुद्ध की प्रतिष्ठा का राज क्या है? क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, क्या पहनते हैं; कब सोते, कब उठते; क्या—क्या करते हैं, ठीक से जांच कर लूं, साल—छह महीने में सब मेरी समझ में आ जाएगा; फिर मैं भी वही करूंगा। मैं भी बुद्ध हो जाऊंगा।
और साल—छह महीने में…देवदत्त बुद्धिमान आदमी था…उसने बुद्ध की ठीक से जांच—पड़ताल कर ली। ठीक से निरीक्षण कर लिया: ऐसे उठते, ऐसे बैठते, ऐसे चलते। वैसे ही उठने लगा, वैसे ही बोलने लगा, वैसे ही चलने लगा—बुद्ध की बिलकुल ही अनुकृति हो गया। और तब कुछ लोग उससे प्रभावित भी होने लगे। अंधों की दुनिया है! इस अंधों की दुनिया में काने भी राजे हो जाते हैं। अंधों की दुनिया में काना ही राजा हो सकता है। आंखवालों को तो अंधे बर्दाश्त ही नहीं करते। अंधा समझौता कर लेता है काने से कि चलो, तुम आधे—आधे, आधे हम जैसे। कम—से—कम आधे तो हम जैसे!
देवदत्त का और सब व्यवहार तो अज्ञानी का था, मूर्च्छित का था, लेकिन उठता था, बैठता था, चलता था, बोलता था…बड़े सुभाषित बोलता था। वचन, परिमार्जित थे। भाषा, सुगठित थी, सुडौल थी। उद्धरण देता था परम शास्त्रों के। व्याख्या, अनूठी थी! विश्लेषण, गहरा था! तर्क, प्रतिष्ठित, प्रतिभापूर्ण। अंधे साथ होने लगे! देवदत्त को भी पांच सौ शिष्य मिल गए। और जब पांच सौ शिष्य मिल गए, तो देवदत्त का असली अहंकार प्रकट हुआ जो अब तक छिपा था। उसने घोषणा कर दी: मैं भी बुद्ध हूं।
बुद्ध को खबर मिली, बुद्ध बहुत हंसे। बुद्ध ने कहा, मेरे जैसा चलना, मेरे जैसा उठना, मेरे जैसा बोलना—ऐसे कोई बुद्ध होता है! दो बुद्ध कभी एक—जैसे उठते हैं, एक—जैसे बैठते हैं, एक—जैसे चलते हैं! इस तरह तो पाखंड पैदा होता है।
और देवदत्त पागल है, ठीक, मगर ये पांच सौ लोग जो बुद्ध को छोड़कर देवदत्त के साथ हो लिए, इनके लिए क्या कहो?
देवदत्त बुद्ध को छोड़ कर अलग हो गया। उसने अपने अलग धर्म की घोषणा कर दी। मगर जल्दी ही वे लोग बिखर गए। और देवदत्त जब मरा तो पछताता हुआ मरा। बहुत पीड़ा में मरा। एक महा अवसर खो गया। मरते वक्त उसे समझ आई बात, बड़ी देर से समझ में आई बात, कि मैं ऊपर—ऊपर का आचरण सीख लिया, अंतस का दीया तो जला ही नहीं।
आचरण कितना ही तुम सुव्यवस्थित कर लो, इससे अंतस का दीया नहीं जलेगा। आचरण को सुव्यवस्थित करना ऐसा ही है जैसे कोई दीए की तसवीर बना ले…सुंदर तसवीर बना ले, प्यारे—प्यारे रंग भर दे, फिर उस तसवीर को ले जाकर अपने कमरे में टांग ले—अंधेरा उस तसवीर से प्रभावित नहीं होगा। अंधेरा उस तसवीर से डरेगा नहीं। तस्वीरों से कहीं अंधेरा भगा है? तसवीर टंगी रहेगी और अंधेरा कुंडली मार कर बैठा रहेगा। असली दीया चाहिए। फिर चाहे असली दीया मिट्टी का हो और तसवीर सोने की बनी हो। असली दीया चाहिए। फिर चाहे असली दीया दो कौड़ी का हो और तसवीर पर हीरे—जवाहरात जड़े हों। तो भी अंधेरा असली दीए को पहचानेगा। असली दीए को पहचानते ही बाहर हो जाएगा। बाहर हो जाना ही पड़ेगा। असली दीए के पास आने का उपाय नहीं है।
मनुष्य ने बहुत से बुद्धों को जाना है। महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट, जरथुस्त्र, लाओत्सु, नानक, कबीर, पलटू, फरीद। सदियों में ये जलते हुए दीए हुए। मगर फिर हम इनसे चूक क्यों गए? कहां भूल होती रही? इतने दीए जले, अंधेरा कम क्यों नहीं होता? अंधेरा इतना ज्यादा है कि शक होने लगता है कि दीए कभी जले भी कि नहीं! बुद्ध कभी हुए भी कि नहीं! कहीं महावीर और कृष्ण और क्राइस्ट सब कपोल—कल्पनाएं तो नहीं हैं!
और जो लोग ऐसे संदेह करते हैं, उनके संदेह में सत्य का थोड़ा—सा अंश है। क्योंकि अंधेरा इतना ज्यादा है; हम कैसे मानें कि दीए जले और अंधेरा मिटा नहीं। पृथ्वी वैसी—की—वैसी गर्हित, वैसी की ही वैसी नर्क में डूबी है! इतने उबारने वाले हुए, उबरे लोग क्यों नहीं? कहां चूक होती है? कहां मूल में भूल होती है?
चूक यहां होती है कि जब भी कोई जाग्रतपुरुष होता है, कोई दीया जलता है, हम बाह्य आचरण का अनुकरण करने लगते हैं। हम उसी जैसे कपड़े पहन लेते हैं, उसी जैसे उठते—बैठते, वही जो भोजन करता है करने लगते हैं। वह सब सोता है, सोते, सब उठता, तब उठते। हम सोचते हैं, ऐसे बाहर से जब बुद्धि जैसे हो जाएंगे तो भीतर भी बुद्ध जैसे हो जाएंगे। नहीं, ऐसा नहीं है। जीवन का गणित ऐसा नहीं है। भीतर बुद्ध जैसे हो जाओ तो बाहर जरूर बुद्ध जैसे हो जाओगे। लेकिन बाहर बुद्ध जैसे हो जाओ, इससे भीतर के बुद्ध का कोई संबंध नहीं है। तुम्हारे केंद्र को मानकर चलती है तुम्हारी परिधि, लेकिन तुम्हारी परिधि को मान कर तुम्हारा केंद्र नहीं चलता है।
इस मौलिक भूल ने आदमी को खूब भटकाया है। और अब समय है कि हम जागें—बहुत देर हो गई! शायद बहुत समय भी नहीं बचा है जागने को। अगर यह नींद जारी रही तो यह आदमियत जल्दी ही समाप्त हो जाएगी। क्योंकि अंधों के हाथ में एटम बम, हाइड्रोजन बम हैं। मूर्च्छित लोगों के हाथ में बड़े खतरनाक अस्त्र—शस्त्र हैं।
निक्सन ने अपने संस्मरणों में कहा है कि जब आखिरी घड़ी आ गई और मुझे ऐसा लगा कि अब मुझे राष्ट्रपति का पद छोड़ ही देना पड़ेगा, तो मैं यह बात छिपा नहीं सकता, मैं यह बात कह देना चाहता हूं कि एक क्षण को मेरे मन में भी यह विचार आया था कि क्यों न अपने साथ सारी दुनिया को नष्ट कर दूं! निक्सन के हाथ में ताकत तो थी सारी दुनिया को नष्ट करने की। चाभी तो थी। चाहता तो तीसरा महायुद्ध छेड़ देता। सब भस्मीभूत हो जाता। निक्सन का धन्यवाद करना होगा। निक्सन का सम्मान करना होगा। निक्सन ने अपने पर काबू रखा। मेरे लिए तो हजार वाटरगेट हुए होते तो भी दो कौड़ी के हैं और निक्सन मूल्यवान है। क्योंकि निक्सन ने बड़ा संयम रखा। ऐसी घड़ियों में संयम रखना मुश्किल हो जाता है। जब आदमी खुद डूब रहा हो, तो क्यों न सबको डुबा ले! और निक्सन इस भांति मूढ़ों की दुनिया में कम—से—कम थोड़ी—सी समझ वाला आदमी साबित होता है। छोड़ दिया राष्ट्रपति का पद। हाथ में चाभी थी, घड़ी—भर में सारी दुनिया आग की लपटों से डूब जाती!
मूर्च्छित आदमी के हाथ में भयंकर अस्त्र—शस्त्र हैं। इसलिए अब ज्यादा देर भी नहीं है, या तो आदमी को जागना पड़ेगा या मिटना पड़ेगा। अब हमारे पास समय खोने को है भी नहीं। शायद यह अच्छा है। शायद समय के इस दबाव में, शायद महाविनाश की इस संभावना में एक वरदान छिपा है। शायद आदमी ऐसे ही जाग सकता है। दुर्दिन में ही जागरण होता है। और इससे बड़े दुर्दिन कभी भी न थे।
लेकिन मौलिक भूल से अब सावधान रहना।
बुद्ध कहते हैं: अप्प दीपो भव। अपने दीए बनो, मेरा अनुसरण न करो, मेरी नकल न करो, मेरी कार्बन कापी न बनो। तुम खुद चैतन्य से भरपूर हो, अपने ही चैतन्य को झकझोरो, धूल से झाड़ो! तुम्हारे भीतर दर्पण है, उसे ही पोंछो, निखारो, नहलाओ। तुम भी वही हो जो मैं हूं। मुझ में और तुम में जरा भी भेद नहीं। तुम क्यों मेरे पीछे चलोगे?
यह साध्य है, यह लक्ष्य है कि प्रत्येक व्यक्ति अपना दीया बन जाए।
नरेंद्र! और जब मैं कहता हूं: रसमय होओ, रासमय होओ, तो मैं साधन सुझा रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं, कैसे अपने दीए बनोगे? रोते—रोते कोई अपना दीया नहीं बना। जो भी अपना दीया बना है, वह एक अपूर्व नाच से भर गया है तब दीया बना है! मुस्कुराहट, नाच, आनंदमग्नता, अस्तित्व के साथ एक रास—रस—विभोर हो जाओ तो अपने दीए बनोगे। जो रसविभोर है, लेकिन जिसने होश का कोई प्रयास नहीं किया है, उस दीए में तेल तो बहुत है लेकिन बाती नहीं है। और न तो अकेली बाती काम की है, न अकेला तेल काम का है।
फिर बाती भी हो, तेल भी हो और जिसने प्रयास नहीं किया, चकमक नहीं रगड़ी…चित चकमक लागै नहीं…जिसने ज्योति नहीं जगाई सोई हुई तो बाती भी पड़ी रहे, तेल भी पड़ा रहे!
तीन चीजें चाहिए।
दीया तो तुम हो! तुम्हारी देह तुम्हारा दीया है!…तुमने एक मजे की बात देखी? हमारी भाषा अनूठी भाषाओं में एक है। इसमें तेल का अर्थ तेल भी होता है और स्नेह भी होता है। स्नेह का अर्थ प्रेम भी होता है और तेल भी होता है। किसी ज्ञानी ने बात जोड़ दी, मालूम होता है। किसी जानने वाले ने इस शब्द में रहस्य भर दिया। स्नेह के दो अर्थ: तेल भी और प्रेम भी। शरीर तो तुम्हारे पास है, यह तो मिट्टी का दीया है। मिट्टी से बना, मिट्टी में गिर जाएगा और मिल जाएगा। प्यारा है! क्योंकि बिना दीए के तेल सम्हालोगे कहां? मिट्टी का है, मिट्टी का धन्यवाद करो, पृथ्वी का गुणगान करो! पृथ्वी की स्तुति करो! लेकिन अकेले दीए का क्या सार है? अकेले दीए को लिए अंधेरे में चलते रहो, क्या होगा?
एक अंधा फकीर विदा हो रहा था अपने गुरु से। रात अंधेरी थी। और उसने कहा कि रात अंधेरी है और जाने में मुझे डर लगता है, जंगल का रास्ता है। मैं अंधा आदमी, रात अंधेरी है! गुरु ने कहा, घबड़ाओ न; मैं एक दीया जला देता हूं। यह दीया ले लो और चल पड़ो। गुरु ने दीया जला दिया, अंधे के हाथ में दे दिया और अंधा जब सीढ़ियां उतर रहा था तब गुरु ने दीया फूंककर बुझा दिया। अंधे ने कहा, यह भी खूब मजाक हुई! फिर जलाया ही क्यों था जब बुझाना था? गुरु ने कहा, तुम्हें याद दिलाने को। मेरा जलाया हुआ दीया बाहर के अंधेरे में तो काम आ जाएगा, मगर बाहर के अंधेरे को तोड़ना—न तोड़ना सब बराबर है! भीतर के अंधेरे को तोड़ने में मेरा जलाया दीया काम नहीं आएगा। और खतरे वहां हैं। बाहर क्या खतरा है! खतरे तुम्हारे भीतर हैं—वासनाओं का, विचारों का जंगल तुम्हारे भीतर है। हिंसा के, क्रोध के, वैमनस्य के जानवर तुम्हारे भीतर हैं। खतरा उनसे है, मेरे भाई! बाहर के जानवर क्या करेंगे? ज्यादा—से—ज्यादा देह को छीन लेंगे। सो देह फिर मिल जाएगी। अनंत बार मिली है, अनंत बार मिलती रहेगी। और भीतर मेरा जलाया दीया काम नहीं आ सकता।
इस सदगुरु का दीया का बुझाना और ऐसा कहना और उस अंधे फकीर की भीतर की आंखें खुल गईं। वह हंसा, झुका, चरण छुए और उसने कहा, आपने भी खूब समय पर मुझे जगाया! रात कट गई, सुबह हो गई। अब मैं निश्चिंत जाता हूं। अब न मेरी मृत्यु है, अब न मेरा अंत है, अब न कोई भय है, अब न कोई जंगल है।
एक शराबी एक रात लौटा। जब गया था शराबघर तो लालटेन लेकर गया था। इस डर से कि लौटते—लौटते देर हो जाएगी और अंधेरी रात है। जब लौटा तो अपनी लालटेन उठाई और चल पड़ा। डगमगाते पैर, रास्ते पर खड़ी भैंस से टकरा गया, ट्रक से टकरा गया, नाली में गिर पड़ा…बड़ा हैरान! बीच—बीच कभी—कभी झोंका शराब का उतरे थोड़ा तो खयाल आए कि मामला क्या है, लालटेन मेरे हाथ में है, तो मैं टकराता क्यों हूं? तो रोशनी का हुआ क्या? फिर रोशनी का सार क्या है? अपने घर क्यों नहीं पहुंच पाता हूं? सुबह किसी ने उसे बेहोश वहां पड़ा देखा तो उठाकर घर पहुंचाया। दोपहर तक उसे होश आया।
शराबघर का मालिक दोपहर आया उसकी लालटेन लेकर और शराबी को कहा कि भाई, यह लालटेन तुम अपनी सम्हालो; रात तुम भूल से तोते का पिंजड़ा उठा कर चल दिए! अब बेहोश आदमी को क्या पता—क्या तोते का पिंजड़ा है, क्या लालटेन? तोते का पिंजड़ा उठाया होगा, समझ में आया कि चलो लालटेन उठा ली; चल पड़ा। और तोते के पिंजड़े से रोशनी नहीं मिलती।
जब तक तुम मूर्च्छित हो, तब तक तुम्हारे हाथों में तोतों के पिंजड़े हैं! फिर तुम उन्हें चाहे वेद कहो, गीता कहो, धम्मपद कहो, कुरान कहो, जो तुम्हें कहना हो, मगर वे तोते के पिंजड़े हैं। तुम्हारी बेहोशी के कारण तुम्हारे हाथ में लालटेन हो ही नहीं सकती। लालटेन हो तो बेहोशी नहीं हो सकती। और फिर कोई तुम्हें दे भी दे…मैं तुम्हें दीया दे भी दूं और समझो कि उस गुरु जैसा बुझाऊं भी न, तो भी कितनी देर तुम उस दीए को सम्हाल सकोगे?

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