Wednesday 31 December 2014

आमतौर से लोग कहते हैं कि जब कोई नदी में डूबकर मरता है, तो आखिरी डुबकी में अपनी पूरी जिंदगी को फिर से देख लेता है। देख सकता है, इसमें कोई बहुत कठिनाई नहीं है। समय अलग है स्वप्न का, जागने का समय अलग है। लेकिन जागने में भी समय का स्केल चौबीस घंटे एक—सा नहीं रहता। उसमें पूरे वक्त बदलाहट होती रहती है, वह फ्लिकर करता है।
जैसे जब आप दुख में होते हैं तो समय लंबा हो जाता है, और जब सुख में होते हैं तो छोटा हो जाता है। कोई प्रियजन पास आकर बैठ जाता है, घंटा बीत जाता है, लगता है, अभी तो आए थे, क्षणभर हुआ है। और कोई दुश्मन आकर बैठ जाता है, और क्षणभर भी नहीं बैठता है कि ऐसा लगता है, कब जाएगा! जिंदगी बीती जा रही है। घड़ी में तो उतना ही समय चलता है, लेकिन आपके मन के समय की धारणा पूरे वक्त छोटी—बडी होती रहती है।
आनंद के क्षण में समय नहीं होता। अगर कभी ध्यान का एक क्षण भी आपके भीतर उतरा है, कभी आनंद का एक क्षण भी आपको नचा गया है, तो उस वक्त समय नहीं होता, समय समाप्त हो गया होता है। इस संबंध में दुनिया के वे सारे लोग सहमत हैं—चाहे महावीर, चाहे बुद्ध, चाहे लाओत्से, चाहे जीसस, चाहे मोहम्मद, चाहे कोई और—वें सब राजी हैं कि वह जो क्षण है आत्म—अनुभव का, आनंद का, ब्रह्म का, वह टाइमलेस मोमेंट है; वह समयरहित क्षण है; वह कालातीत है।

No comments:

Post a Comment