Friday 26 December 2014

साधारण आदमी वासना से बोलता है; बुद्ध पुरूष करूणा से बोलते है। साधारण आदमी इसलिए बोलता है कि बोलने से शायद कुछ मिल जाए; बुद्ध पुरूष इसलिए बोलते है। कि शायद बोलने से कुछ बंट जाए। बुद्ध इसलिए बोलते है कि तुम भी साझीदार हो जाओ उनके परम अनुभव में। पर पहले शर्त पूरी करना पड़ती है—मौन हो जाने की, शुन्‍य हो जाने की।
जब ध्‍यान खिलता है, जब ध्‍यान की वीणा पर संगीत उठता है, जब मौन मुखर होता है, तब शास्‍त्र निर्मित होते है, जिनको हमने शास्‍त्र कहा है, वह ऐसे लोगों की वाणी है, जो वाणी के पार चले गये थे। और जब भी कभी कोई वाणी के पार चला गया, उसकी वाणी शस्‍त्र हो जाती है। आप्‍त हो जाती है। उससे वेदों का पुन: जन्‍म होने लगता है।
पहले तो मौन को साधो, मौन में उतरो; फिर जल्‍दी ही वह घड़ी भी आएगी। वह मुकाम भी आएगा। जहां तुम्‍हारे शून्‍य से वाणी उठेगी। तब उसमें प्रामाणिकता होगी सत्‍य होगा। क्‍योंकि तब तुम दूसरे के भय के कारण न बोलोगे। तुम दूसरों से कुछ मांगने के लिए न बोलोगे। तब तुम देने के लिए बोलते हो, भय कैसा। कोई ले तो ठीक,कोई न ले तो ठीक। ले-ले तो उसका सौभाग्‍य,न ले तो उसका दुर्भाग्‍य तुम्‍हारा क्‍या है? तुमने बांट दिया। जो तुमने पाया तुम बांटते गए। तुम पर यह लांछन न रहेगा। कि तुम कृपण थे। जब पाया तो छिपाकर बैठ गए।

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