Saturday 27 December 2014

मैं अध्यात्म को ऐसी अनुभूति कहता हूं, जो अभिव्यक्त नहीं हो सकती। इशारे दिए जा सकते हैं, लेकिन इशारे अभिव्यक्तिया नहीं हैं। चांद को अंगुली से बताया जा सकता है, लेकिन अंगुली चांद नहीं है।
गीता को जब मैंने कहा कि मनोविज्ञान है, तो मेरा अर्थ ऐसा नहीं है, जैसे कि फ्रायड का मनोविज्ञान है। फ्रायड का मनोविज्ञान मन पर समाप्त हो जाता है; उसका कोई इशारा मन के पार नहीं है। मन ही इति है, उसके आगे और कोई अस्तित्व नहीं है। गीता ऐसा मनोविज्ञान है, जो इशारा आगे के लिए करता है। लेकिन इशारा आगे की स्थिति नहीं है।
गीता तो मनोविज्ञान ही है, लेकिन आत्मा की तरफ, अध्यात्म की तरफ, परम अस्तित्व की तरफ, उस मनोविज्ञान से इशारे गए हैं। लेकिन अध्यात्म नहीं है। मील का पत्थर है; तीर का निशान बना है; मंजिल की तरफ इशारा है। लेकिन मील का पत्थर मील का पत्थर ही है, वह मंजिल नहीं है।
कोई भी शास्त्र अध्यात्म नहीं हैं। हा, ऐसे शास्त्र हैं, जो अध्यात्म की तरफ इशारे हैं। लेकिन सब इशारे मनोवैज्ञानिक हैं। इशारे अध्यात्म नहीं हैं। अध्यात्म तो वह है जो इशारे को पाकर उपलब्ध होगा। और वैसे अध्यात्म की कोई अभिव्यक्ति संभव नहीं है; आशिक भी संभव नहीं है। उसका प्रतिफलन भी संभव नहीं है। 

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