Thursday 25 December 2014

ओशो कहते है कि जीसस पूर्णत: संबुद्ध थे किंतु वे ऐसे लोगों में रहते थे जो संबोधि या समाधि के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। इसलिए जीसस को ऐसी भाषा का प्रयोग करना पडा जिससे यह गलतफहमी हो जाती है कि वे संबुद्ध नहीं थे। प्रबुद्ध नहीं थे। वे दूसरी किसी भाषा का प्रयोग कर भी नहीं सकते।

ओशो कहते है कि, ‘’मैं जब जीसस को देखता हूं तो मुझे वे गहरे ध्‍यान में डूबे दिखाई देते है। गहन संबोधि में है वे परंतु उनको ऐसी जाति के लोगों में रहना पडा जो धार्मिक या दार्शनिक नहीं थे; वे बिलकुल राजनीतिक थे। इन यहूदियों का मस्‍तिष्‍क और ही ढंग से काम करता है। इसलिए इनमें कोई दार्शनिक नहीं हुआ। इनके लिए जीसस अजनबी थे। और वे बहुत गड़बड़ कर रहे थे। यहूदियों की जमी-जमायी व्यवस्‍था को बिगाड़ रहे थे जीसस। अंत: उन्‍हें चुप कराने के लिए यहूदियों ने उनको सूली लगा दी। सूली पर वे मरे नहीं। उनके शरीर को सूली से उतार कर जब तीन दिन के लिए गुफा में रखा गया तो मलहम आदि लगाकर उसे ठीक किया गया। और वहीं से जीसस पलायन कर गए। इसके बाद वे मौन हो गए और अपने ग्रुप के साथ अर्थात अपनी शिष्‍य मंडली के साथ वे चुपचाप गुह्म रहस्‍यों की साधना करते रहे।"
ओशो कहते है कि ‘’मुझे ऐसा प्रतीत होता है। कि उनकी गुप्‍त परंपरा आज भी चल रही है।‘’
जीसस को समझने के लिए जरूरी है कि ईसाइयत द्वारा की गई उनकी व्‍याख्‍या को बीच में से हटाकर सीधे उनको देखा जाए—तब उनकी आंतरिक संपदा से हम समृद्ध हो सकत है।
जीसस फिर दोबारा काश्‍मीर आये और वहां पर 112 वर्ष की आयु तक जीवित रहे। और वहां पर अभी भी वह गांव है जहां वे मरे।

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