Wednesday, 31 December 2014

आमतौर से लोग कहते हैं कि जब कोई नदी में डूबकर मरता है, तो आखिरी डुबकी में अपनी पूरी जिंदगी को फिर से देख लेता है। देख सकता है, इसमें कोई बहुत कठिनाई नहीं है। समय अलग है स्वप्न का, जागने का समय अलग है। लेकिन जागने में भी समय का स्केल चौबीस घंटे एक—सा नहीं रहता। उसमें पूरे वक्त बदलाहट होती रहती है, वह फ्लिकर करता है।
जैसे जब आप दुख में होते हैं तो समय लंबा हो जाता है, और जब सुख में होते हैं तो छोटा हो जाता है। कोई प्रियजन पास आकर बैठ जाता है, घंटा बीत जाता है, लगता है, अभी तो आए थे, क्षणभर हुआ है। और कोई दुश्मन आकर बैठ जाता है, और क्षणभर भी नहीं बैठता है कि ऐसा लगता है, कब जाएगा! जिंदगी बीती जा रही है। घड़ी में तो उतना ही समय चलता है, लेकिन आपके मन के समय की धारणा पूरे वक्त छोटी—बडी होती रहती है।
आनंद के क्षण में समय नहीं होता। अगर कभी ध्यान का एक क्षण भी आपके भीतर उतरा है, कभी आनंद का एक क्षण भी आपको नचा गया है, तो उस वक्त समय नहीं होता, समय समाप्त हो गया होता है। इस संबंध में दुनिया के वे सारे लोग सहमत हैं—चाहे महावीर, चाहे बुद्ध, चाहे लाओत्से, चाहे जीसस, चाहे मोहम्मद, चाहे कोई और—वें सब राजी हैं कि वह जो क्षण है आत्म—अनुभव का, आनंद का, ब्रह्म का, वह टाइमलेस मोमेंट है; वह समयरहित क्षण है; वह कालातीत है।

Tuesday, 30 December 2014

ध्यान रहे, मनुष्य के चित्त में जब तक अहंकार है, तब तक भय होता है। भय और अहंकार एक ही ऊर्जा के नाम हैं। तो जितना भयभीत आदमी, उतना अहंकारी। जितना अहंकारी, उतना भयभीत। आप सोचते होंगे कि अहंकारी बहुत निर्भय होता है, तो आप बहुत गलती में हैं। अहंकारी अत्यंत भयातुर होता है। यद्यपि अपने भय को प्रकट न होने देने के लिए वह निर्भयता के कवच ओढ़े रहता है। तलवारें लिए रहता है हाथ में कि संभलकर रहना। महावीर कहते हैं— अभय तो वही होता है जो अहंकारी नहीं होता। क्योंकि फिर भय के लिए कोई कारण नहीं रहा। भयभीत होनेवाला भी नहीं रहा। इसलिए महावीर कहते हैं कि जो निर्भय अपने को दिखा रहा है, वह तो भयभीत है ही। अभय… अभय का अर्थ? वही हो सकता है अभय, जो समर्पित, शरणागत; जिसने छोड़ा अपने को। अब कोई भय का कारण न रहा।
यह सूत्र शरणागति का है। इस सूत्र के साथ नमोकार पूरा होता है। नमस्कार से शुरू होकर शरणागति पर पूरा होता है। और इस अर्थ में नमोकार पूरे धर्म की यात्रा बन जाता है। उस छोटे से सूत्र में पहले से लेकर आखिरी कदम तक सब छोड़ दें कहीं किसी चरण में, छोड़ दें। यह बात प्रयोजनहीन है— कहां छोड़ दें। महत्वपूर्ण यही है कि छोड़ दें।
तो शरणागति का पहला तो संबंध है— आंतरिक ज्यामिति से कि वह आपके भीतर की चेतना की आकृति बदलती है। दूसरा संबंध है— आपको प्रकृति के साधारण नियमों के बाहर ले जाती है। किसी गहन अर्थ में आप दिव्य हो जाते हैं, शरण जाते ही।

Monday, 29 December 2014

अहंकार आत्‍मबोध का आभाव है। आत्म स्मरण का आभाव है। अहंकार अपने को न जानने का दूसरा नाम है। इसलिए अहंकार से मत लड़ों। अहंकार और अंधकार पर्यायवाची है। हां, अपनी ज्‍योति को जला लो। ध्‍यान का दीया बन जाओ। भीतर एक जागरण को उठा लो। भीतर सोए-सोए न रहो। भीतर होश को उठा लो। और जैसे ही होश आया, चकित होओगे, हंसोगे—अपने पर हंसोगे। हैरान होओगे। एक क्षण को तो भरोसा भी न आएगा कि जैसे ही भीतर होश आया वैसे ही अहंकार नहीं पाया जाता है। न तो मिटाया,न मिटा,पाया ही नहीं जाता है।
इसलिए मैं तुम्‍हें न तो सरल ढंग बता सकता हूं। न कठिन; न तो आसान रास्‍ता बता सकता हूं, न खतरनाक; न तो धीमा, न तेज। मैं तो सिर्फ इतना ही कह सकता हूं: जागों और जागने को ही मैं ध्‍यान कहता हूं।
आदमी दो ढंग से जी सकता है। एक मूर्च्‍छित ढंग है, जैसा हम सब जीते है। चले जाते है। यंत्रवत,किए जाते है काम यंत्रवत, मशीन की भांति। थोड़ी सी परत हमारे भीतर जागी है। अधिकांश हमारा अस्‍तित्‍व सोया पडा है। और वह जो थोड़ी सी परत जागी। वह भी न मालूम कितनी धूल ध्वांस, कितने विचारों, कितनी कल्पनाओं, कितने सपनों में दबी है।

Sunday, 28 December 2014

जो हम खाते है, उससे भी ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण यह है कि हम उसे किस भाव-दशा में खाते है। उससे भी ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है। आप क्‍या खाते है। यह उतना महत्‍वपूर्ण नहीं है। जितना यह महत्‍वपूर्ण है कि आप किस भाव-दिशा में खाते है। आप आनंदित खोते है, या दुखी खाते है, उदास खाते है, चिंता में खाते है, या क्रोध से भरे हुए खाते है, या मन मार कर खाते है। अगर आप चिंता में खाते है, तो श्रेष्‍ठतम भोजन के परिणाम भी पायजनस होंगे। ज़हरीले होंगे। और अगर आप अपने आनंद में खाते रहे है, तो कई बार संभावना भी है कि जहर भी आप पर पूरे परिणाम न ला पाये। बहुत संभावना है। आप कैसे खाते है। किस चित की दशा में खाते है?
भाव दशा—आनंदपूर्ण, प्रसाद पूर्ण निशचित ही होनी चाहिए।
लेकिन हमारे धरों में हमारे भोजन की जो टेबल है या हमारा चौका है, वह सबसे ज्‍यादा विषादपूर्ण अवस्‍था में है। पत्‍नी दिन भर प्रतीक्षा करती है कि पति कब घर खाने आ जाये। चौबीस घंटे का जो भी रोग और बीमारी इकट्ठे हो गयी है। वह पति की थाली पर ही उसकी निकलती है। और उसे पता नहीं कि वह दुश्‍मन का काम कर रही है। उसे पता नहीं, वह जहर डाल रही है। थाली में।

Saturday, 27 December 2014

मैं अध्यात्म को ऐसी अनुभूति कहता हूं, जो अभिव्यक्त नहीं हो सकती। इशारे दिए जा सकते हैं, लेकिन इशारे अभिव्यक्तिया नहीं हैं। चांद को अंगुली से बताया जा सकता है, लेकिन अंगुली चांद नहीं है।
गीता को जब मैंने कहा कि मनोविज्ञान है, तो मेरा अर्थ ऐसा नहीं है, जैसे कि फ्रायड का मनोविज्ञान है। फ्रायड का मनोविज्ञान मन पर समाप्त हो जाता है; उसका कोई इशारा मन के पार नहीं है। मन ही इति है, उसके आगे और कोई अस्तित्व नहीं है। गीता ऐसा मनोविज्ञान है, जो इशारा आगे के लिए करता है। लेकिन इशारा आगे की स्थिति नहीं है।
गीता तो मनोविज्ञान ही है, लेकिन आत्मा की तरफ, अध्यात्म की तरफ, परम अस्तित्व की तरफ, उस मनोविज्ञान से इशारे गए हैं। लेकिन अध्यात्म नहीं है। मील का पत्थर है; तीर का निशान बना है; मंजिल की तरफ इशारा है। लेकिन मील का पत्थर मील का पत्थर ही है, वह मंजिल नहीं है।
कोई भी शास्त्र अध्यात्म नहीं हैं। हा, ऐसे शास्त्र हैं, जो अध्यात्म की तरफ इशारे हैं। लेकिन सब इशारे मनोवैज्ञानिक हैं। इशारे अध्यात्म नहीं हैं। अध्यात्म तो वह है जो इशारे को पाकर उपलब्ध होगा। और वैसे अध्यात्म की कोई अभिव्यक्ति संभव नहीं है; आशिक भी संभव नहीं है। उसका प्रतिफलन भी संभव नहीं है। 

Friday, 26 December 2014

साधारण आदमी वासना से बोलता है; बुद्ध पुरूष करूणा से बोलते है। साधारण आदमी इसलिए बोलता है कि बोलने से शायद कुछ मिल जाए; बुद्ध पुरूष इसलिए बोलते है। कि शायद बोलने से कुछ बंट जाए। बुद्ध इसलिए बोलते है कि तुम भी साझीदार हो जाओ उनके परम अनुभव में। पर पहले शर्त पूरी करना पड़ती है—मौन हो जाने की, शुन्‍य हो जाने की।
जब ध्‍यान खिलता है, जब ध्‍यान की वीणा पर संगीत उठता है, जब मौन मुखर होता है, तब शास्‍त्र निर्मित होते है, जिनको हमने शास्‍त्र कहा है, वह ऐसे लोगों की वाणी है, जो वाणी के पार चले गये थे। और जब भी कभी कोई वाणी के पार चला गया, उसकी वाणी शस्‍त्र हो जाती है। आप्‍त हो जाती है। उससे वेदों का पुन: जन्‍म होने लगता है।
पहले तो मौन को साधो, मौन में उतरो; फिर जल्‍दी ही वह घड़ी भी आएगी। वह मुकाम भी आएगा। जहां तुम्‍हारे शून्‍य से वाणी उठेगी। तब उसमें प्रामाणिकता होगी सत्‍य होगा। क्‍योंकि तब तुम दूसरे के भय के कारण न बोलोगे। तुम दूसरों से कुछ मांगने के लिए न बोलोगे। तब तुम देने के लिए बोलते हो, भय कैसा। कोई ले तो ठीक,कोई न ले तो ठीक। ले-ले तो उसका सौभाग्‍य,न ले तो उसका दुर्भाग्‍य तुम्‍हारा क्‍या है? तुमने बांट दिया। जो तुमने पाया तुम बांटते गए। तुम पर यह लांछन न रहेगा। कि तुम कृपण थे। जब पाया तो छिपाकर बैठ गए।

Thursday, 25 December 2014

ओशो कहते है कि जीसस पूर्णत: संबुद्ध थे किंतु वे ऐसे लोगों में रहते थे जो संबोधि या समाधि के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। इसलिए जीसस को ऐसी भाषा का प्रयोग करना पडा जिससे यह गलतफहमी हो जाती है कि वे संबुद्ध नहीं थे। प्रबुद्ध नहीं थे। वे दूसरी किसी भाषा का प्रयोग कर भी नहीं सकते।

ओशो कहते है कि, ‘’मैं जब जीसस को देखता हूं तो मुझे वे गहरे ध्‍यान में डूबे दिखाई देते है। गहन संबोधि में है वे परंतु उनको ऐसी जाति के लोगों में रहना पडा जो धार्मिक या दार्शनिक नहीं थे; वे बिलकुल राजनीतिक थे। इन यहूदियों का मस्‍तिष्‍क और ही ढंग से काम करता है। इसलिए इनमें कोई दार्शनिक नहीं हुआ। इनके लिए जीसस अजनबी थे। और वे बहुत गड़बड़ कर रहे थे। यहूदियों की जमी-जमायी व्यवस्‍था को बिगाड़ रहे थे जीसस। अंत: उन्‍हें चुप कराने के लिए यहूदियों ने उनको सूली लगा दी। सूली पर वे मरे नहीं। उनके शरीर को सूली से उतार कर जब तीन दिन के लिए गुफा में रखा गया तो मलहम आदि लगाकर उसे ठीक किया गया। और वहीं से जीसस पलायन कर गए। इसके बाद वे मौन हो गए और अपने ग्रुप के साथ अर्थात अपनी शिष्‍य मंडली के साथ वे चुपचाप गुह्म रहस्‍यों की साधना करते रहे।"
ओशो कहते है कि ‘’मुझे ऐसा प्रतीत होता है। कि उनकी गुप्‍त परंपरा आज भी चल रही है।‘’
जीसस को समझने के लिए जरूरी है कि ईसाइयत द्वारा की गई उनकी व्‍याख्‍या को बीच में से हटाकर सीधे उनको देखा जाए—तब उनकी आंतरिक संपदा से हम समृद्ध हो सकत है।
जीसस फिर दोबारा काश्‍मीर आये और वहां पर 112 वर्ष की आयु तक जीवित रहे। और वहां पर अभी भी वह गांव है जहां वे मरे।

Wednesday, 24 December 2014

 तुम अकेले नहीं रह सकते। तुम्हें कोई दूसरा चाहिए। अकेले में तुम डरते हो। कोई दूसरा, तब तुम निश्रित मालूम पड़ते हो; क्यों? दूसरे की मौजूदगी से आश्वासन मिलता है—दुख में, सुख में, कोई साथी है। जीवन में, मृत्यु में, कोई साथी है। लेकिन अकेलापन स्वभाव है। और जिस व्यक्ति ने यह अनुभव कर लिया कि आत्मा ही बस मेरी है, उसने अपने अकेलेपन को अनुभव कर लिया।
भागने की कोई भी जरूरत नहीं है, तो झंझट पीछे चली जायेगी। तुम जहां हो, वहीं रहना; रत्तीभर भी बाहर कोई फर्क करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन भीतर तुम अकेले हो जाना। भीतर तुम कैवल्य को अनुभव करना कि मैं अकेला हूं; कोई संगी—साथी नहीं है। और यह तुम दोहराना मत, क्योंकि दोहराने की कोई जरूरत नहीं कि रोज सुबह बैठकर तुम दोहराओ कि मैं अकेला हूं कोई संगी—साथी नहीं है। इससे कुछ भी न होगा। यह दोहराना तो सिर्फ यही बताएगा कि तुम्हें अभी खयाल नहीं हुआ। इसे समझना।

Tuesday, 23 December 2014

प्रेम में ईर्ष्या हो तो प्रेम ही नहीं है; फिर प्रेम के नाम से कुछ और ही रोग चल रहा है। ईर्ष्या सूचक है प्रेम के अभाव की। यह तो ऐसा ही हुआ, जैसा दीया जले और अँधेरा हो। दीया जले तो अँधेरा होना नहीं चाहिए। अँधेरे का न हो जाना ही दीए के जलने के जलने का प्रमाण है। ईर्ष्या का मिट जाना ही प्रेम का प्रमाण है। ईर्ष्या अँधेरे जैसी है; प्रेम प्रकाश जैसा है। इसको कसौटी समझना।

ऐसे ही तुम्हारे सब प्रेम के संबंध हैं। एक-दूसरे पर पहरा है। एक-दूसरे के साथ दुश्मनी है, प्रेम कहाँ! प्रेम में पहरा कहाँ? प्रेम में भरोसा होता है। प्रेम में एक आस्था होती है। प्रेम में एक अपूर्व श्रद्धा होती है। ये सब प्रेम के ही फूल हैं - श्रद्धा, भरोसा, विश्वास। प्रेमी अगर विश्वास न कर सके, श्रद्धा न कर सके, भरोसा न कर सके, तो प्रेम में फूल खिले ही नहीं। ईर्ष्या, जलन, वैमनस्य, द्वेष, मत्सर तो घृणा के फूल हैं। तो फूल तो तुम घृणा के लिए हो और सोचते हो प्रेम का पौधा लगाया है। नीम के कड़वे फल लगते हैं तुममें और सोचते हो आम का पौधा लगाया है। इस भ्रांति को तोड़ो।

Monday, 22 December 2014

दुनिया में तीन तरह के लोग हैं। एक जो दुनिया के राग में पड़े हैं, वे उदास नहीं हैं। दूसरे–जो दुनिया के प्रति विरागी हो गए हैं, वे भी उदास नहीं है। प्रेम घृणा में बदल गया। मित्रता शत्रुता बन गई। जिस तरफ देखते थे, वहां पीठ कर ली। लेकिन उदासी नहीं है।
उदास तो वह है, जो दोनों से मुक्त हो गया–राग से, विराग से। जिसको महावीर ने वीतराग कहा है। जो उदास है। उदास का अर्थ तुम्हारी उदासी नहीं कि पत्नी नाराज है, तुम उदास बैठे हो। कि धंधा ठीक नहीं चल रहा है, तुम उदास बैठ हो। यह तो राग है, यह उदासी नहीं है। यह तो राग असफल हो रहा है, इसलिए तुम उदास हो।
तुम्हारा आनंद भी झूठा है। कि आज धंधा खूब चला, कि तुमने ग्राहकों को खूब लूटा, कि तुम बड़े प्रसन्न घर चले जा रहे हो। पैर पड़ते नहीं जमीन पर, आकाश में उड़ते हैं। यह आनंद भी आनंद नहीं है। यह भी राग है। राग और विराग दोनों जब छूट जाएं। न तो संसार के प्रतिराग रहे और न घृणा। न द्वेष रहे, न राग; तब उदास।
उदासी परम अनुभव है। उदासी से बड़ा इस जगत में कुछ भी नहीं है। उदासी सुख भी नहीं है ध्यान रखना, जैसे तुम्हारे शब्द कोषों में लिखा है। उदासी परम आनंद है। संसार के प्रति उदासी तब ही आती है जब अपने प्रति परमानंद आ जाता है। जब परमात्मा में नृत्य चलने लगते हैं तब संसार के प्रति उदासी आ जाती है।

Sunday, 21 December 2014

तिब्‍बत के कुछ मठो में बहुत ही प्राचीन ध्‍यान-विधियों में से एक विधि अभी भी प्रयोग की जाती है। यह विधि इसी सत्‍य पर आधारित है जो मैं आपसे कह रहा हूँ। वे सिखाते हैं कि कभी-कभी आप अचानक गायब हो सकते है। बगीचे में बैठे हुए बस भव करें कि आप गायब हो रहे है। बस देखें कि जब आप दुनिया से विदा हो जाते है, जब आप यहां मौजूद नहीं रहते, जब एकदम मिट जाते हैं। तो दुनिया कैसी लगती है। बस एक सेकेंड के लिए होने का प्रयोग करके देखें।
अपने ही घर में ऐसे हो जाएं जैसे कि नहीं है। यह बहुत ही सुंदर ध्‍यान है। चौबीस घंटे में आप इसे कई बार कर सकते है—सिर्फ आधा सेकेंड भी काफी है। आधे सेकेंड के‍ लिए एकदम खो जाएं आप नहीं है और दुनिया चल रही है। जैसे-जैसे हम इस तथ्‍य के प्रति और सजग होते है कि हमारे बिना भी बड़े मजे से चलती है, तो हम अपने अस्तित्‍व के एक और आयाम के प्रति सजग होते हैं, जो लंबे समय से, जन्‍मों-जन्‍मों से उपेक्षित रहा है। और बह आयाम है स्‍वीकार भाव का। हम चीजों को सहज होने देते हैं, एक द्वार बन जाते हैं। चीजें हमारे बिना भी होती रहती हैं।

Saturday, 20 December 2014

लाओत्‍से से कोई पूछता कि तुम्‍हारा सबसे श्रेष्ठतम वचन कौन सा है।
तो लाओत्‍से कहता है, यही। जो अभी-अभी बोल रहा हूं।
बान गॉग से कोई पूछता है,
तुम्‍हारी श्रेष्ठतम चित्र कृति कौन सी है,
तो वान गॉग पेंट कर रहा है और कहता है, यही।
जो मैं अभी पेंट कर रहा हूँ।
अभी जो हो रहा है, वही सब कुछ है,
इस अभी में जो सनातन को
स्‍मरण रख कर जीना शुरू कर देता है।
उसे रास्‍ता मिल गया, उसे सेतु मिल गया।
छोड़े अतीत को, छोड़े भविष्‍य को, पकड़े वर्तमान को।
धीरे-धीरे अतीत को विसर्जित करते जाएं।

Friday, 19 December 2014

एक हिटलर पैदा होता है, तो पूरी जर्मनी को अपना विचार दे देता है, और पूरे जर्मनी का आदमी समझता है कि ये मेरे विचार है।
ये उसके विचार नहीं है, एक बहुत डाइनेमिक आदमी अपने विचारों को विकीर्ण कर रहा है। और लोगो में डाल रहा है, और लोग उसके विचारों की सिर्फ प्रतिध्‍वनियां है।
और यह डाइनामिज्‍म इतना गंभीर और इतना गहरा है, की मोहम्‍मद को मरे हजार साल हो गए, जीसस को मरे दो हजार साल हो गए, क्रिश्चियन सोचता है कि मैं अपने विचार कर रहा हूं, वह दो हजार साल पहले जो आदमी छोड़ गया है, तरंगें, वे अब तक पकड़ रही है।
महावीर या बुद्ध या कृष्‍ण, कबीर, नानक, अच्‍छे या बुरे कोई भी तरह के डाइनेमिक लोग—जो छोड़ गए है वह तुम्‍हें पकड़ लेता है।
तैमूरलंग ने अभी भी पीछा नहीं छोड़ा है दिया है मनुष्‍यता का, और न चंगीजखां ने पीछा छोड़ा है, न कृष्‍ण, न सुकरात, न सहजो ने, न तिलोमा, न राम, न रावण, पीछा वे छोड़ते ही नहीं।
उनकी तरंगें पूरे वक्‍त होल रही है, तुम्‍हारी मन स्थिती जैसी हो, या जिस हालात में हो वहीं तरंग को पकड़ उसमें सराबोर हो जाती है, सही मायने में तुम-तुम हो ही नहीं, तुम एक मात्र उपकरण बन कर रहे गये हो, मात्र रेडियों।
जागना ही अपने होने की पहली शर्त है, ध्‍यान जगाने की कला का नाम है, ध्‍यान तुम्‍हारी आंखों को खोल पहली बार तुम्‍हें ये संसार दिखाता है।
सपने के सत्‍य में, जागरण के सत्‍य में क्या भेद है।
केवल—‘’ध्‍यान’’
–ओशो

Thursday, 18 December 2014

हमारे भीतर एक वृत्ति है जो हमें चौबीस घंटे लड़ाती है। उस वृत्ति के कारण हम हर घड़ी जैसे सचेत हैं कि कोई संघर्ष होने की तैयारी है। पति घर आता है, तैयार हो जाता है कि पत्नी क्या पूछेगी, वह क्या जवाब देगा; पत्नी क्या कहेगी, वह कैसे संघर्ष करेगा। आदमी बाजार जाता है तो संघर्ष की तैयारी है; घर आता है तो संघर्ष की तैयारी है। मित्रों से मिलता है तो भी तैयार होकर मिलता है, जैसे कि वहां भी कलह है। हमारे भीतर कोई सूत्र है–वह सूत्र अहंकार का है–जो हमसे कहता है कि सब तरफ लड़ाई चल रही है, सम्हल कर चलना, तैयार होकर चलना, इंतजाम करके चलना। क्योंकि जिन्होंने इंतजाम नहीं किया वे हार जाते हैं। और इसीलिए तो तुम्हारे जीवन में इतना तनाव है; तुम शांत नहीं हो सकते। क्योंकि संघर्ष जिसकी वृत्ति है वह शांत कैसे होगा?
असंघर्ष को जो अपनी वृत्ति बना ले, जीवन की शैली बना ले, कि कोई लड़ाई नहीं हो रही है, कोई दुश्मन नहीं है, सारा संसार मित्र है, यह सारा अस्तित्व परिवार है, यहां कोई तुम्हें मिटाने को उत्सुक नहीं है; जिसके मन में ऐसा भाव आ जाए, और अद्वैत की जो खोज में लगा हो, उसके लिए तो यह भाव धारा की तरह है जो सागर में ले जाएगा। कोई दुश्मन नहीं है; फूल-पत्ते, वृक्ष, आकाश, चांद, तारे, सब तुम्हारे लिए हैं। इन सबने तुम्हें सम्हाला हुआ है।

Wednesday, 17 December 2014

नुष्य के जीवन की जटिलता एक बुनियादी बात से निर्मित होती है। और वह बुनियादी बात है कि तुम जो नहीं हो वह दिखाने की कोशिश में संलग्न हो जाते हो। फिर तुम सत्य तक कभी भी न पहुंच सकोगे। क्योंकि तुमने शुरुआत ही असत्य की कर दी; यात्रा का पहला कदम ही गलत पड़ गया।

जिसके जीवन में प्रेम नहीं है वह प्रेम को दिखाने की कोशिश करता है। जिसके जीवन में वीरता नहीं है वह वीरता दिखाने की कोशिश करता है। जिसके जीवन में साहस नहीं है वह साहस के मुखौटे ओढ़ लेता है।
जो नहीं है उसे तुमने बताने की कोशिश की कि तुम भटके। पहुंचने का रास्ता तो सीधा और साफ है कि तुम जो हो वही दिखाओ। वही प्रामाणिक जीवन का लक्षण है।

Tuesday, 16 December 2014

यदि आप अपने जीवन को संपूर्णता से जीना चाहते हैं तो पहले आपको अपनी संभावना के बारे में जानना होगा, यह जानना होगा कि आप कौन हैं। ध्यान इसी जानने की ओर एक कदम है। इस सजगता के विज्ञान की एक प्रक्रिया है।
 
आंतरिक विज्ञान का सौंदर्य यह है कि जो भी मार्ग तलाश रहा है, तथा अपने भीतर प्रयोग कर रहा है, यह उसे अपने एकांत में ऐसा करने में सहायता करता है। यह किसी भी बाह्य सत्ता पर निर्भरता, किसी संस्था के साथ जुड़ने की आवश्यकता को तथा किसी विचारधारा-विशेष को मानने की विवशता को समाप्त करता है। एक बार आपके कदम सध गये तो आप अपने, केवल अपने ढंग से अपने मार्ग पर चलने लगते हैं । 
कुछ ध्यान-विधियों में शांत व स्थिर बैठना आवश्यक है। परंतु हममें से अधिकतर लोगों के संग्रहीत मनोदैहिक तनाव के कारण ऐसा करना कठिन सा लगता है। इससे पहले कि हम अपनी चेतना के आंतरिक शक्ति-भंडार तक पहुंचने की आशा रखें, हमें पहले अपने तनावों से मुक्त होना होगा। ओशो ध्यान की सक्रिय -विधियोंTM का सृजन ऐसे वैज्ञानिक ढंग से हुआ है कि वे हमारे दमित भावों तथा भावनाओं को होशपूर्वक अभिव्यक्त करने तथा अनुभव करने में सहायता करती हैं व हमारी आदतों के ढांचों के प्रति सचेत होने के लिये एक नया ढंग देती हैं।

Monday, 15 December 2014

उस रास्ते पर मत चलो जो तुम्हे डर ले जाये ,
उस रास्ते पर चलो जो तुमे प्यार ले जाये,
उस रास्ते पर चलो जिसमे तुम्हे खुसी मिले .
——————–ओशो

“किसी के साथ किसी भी प्रतियोगिता की कोई जरूरत नहीं है. जेसे तुम हो , आप वही हो . और आप पूरी तरह से ठीक हो .. आप अपने आपको स्वीकार करो .”
——————–ओशो