Sunday 8 November 2015

‘मैंने आपके तत्त्वज्ञान रूपी ससी को लेकर हृदय और उदर से अनेक तरह के विचार रूपी वाण को निकाल दिया है।’

बात खतम ही कर दी। जनक ने कहा कि शल्यक्रिया हो गयी.। शल्योद्धार:। चिकित्सा हो चुकी। आपने जो शब्द कहे, वे शस्त्र बन गये। और शास्त्र जब तक शस्त्र न बन जाएं तब तक व्यर्थ हैं।

आपने जो शब्द कहे वे शस्त्र बन गये और उन्होंने मेरे पेट और मेरे हृदय में जो—जो रुग्ण विचार पड़े थे, उन सबको निकालकर बाहर फेंक दिया। बात खतम हो गयी।

तत्वविज्ञानाय।

वह जो आपने सत्य की निर्दर्शना की, वह जो तत्त्व का इशारा किया, वह तो ससी बन गयी, उसने तो मेरे भीतर से सब खींच लिया जहर, उसने तो सब काटे निकाल लिये।

यह बात खयाल रखना कि दो शब्दों का उपयोग करते हैं जनक—हृदयोदरात्। हृदय और पेट से। उदर और हृदय से। यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है। यह पांच हजार साल पुरानी बात है। अब कहीं जाकर पश्चिम में मनोविज्ञान इस बात को समझ पा रहा है कि मनुष्य जो भी दमन करता है, विचारों का, वासनाओं का, वृत्तियों का, वह सब दमित वृत्तियां पेट में इकट्ठी हो जाती हैं। यह तो अभी नवीनतम खोज है, इधर पिछले बीस वर्षों में हुई है। लेकिन यह सूत्र पांच हजार साल पुराना है। उदर? तुम भी थोड़े चौंके होओगे कि अगर कहते कि मेरे मस्तिष्क से सारे विचार निकाल लिये हैं, तो बात ज्यादा तर्कसंगत मालूम पड़ती। लेकिन कहते हैं जनक, मेरे उदर से, मेरे पेट से। यह बात ही जरा बेहूदी लगती है कि पेट से! पेट में क्या विचार रखे हैं? लेकिन आधुनिक मनोविज्ञान भी इससे सहमत है। अंग्रेजी में तो जो शब्दावली है’, लोग कहते हैं न कि इस बात को पेट में न ले सकूंगा, ‘आइ विल नाट बी एबल टू स्टमक इट।’ इसको उदरस्थ न कर सकूंगा।

यह बात महत्वपूर्ण है। हम जो भी दबाते हैं वह पेट में चला जाता है। इसीलिए चिंतित आदमी के पेट मैं अल्सर हो जाते हैं। चिंता के वाण अल्सर बन जाते हैं। सिर में नहीं होते अल्सर, मस्तिष्क में नहीं होते अल्सर, तुमने देखा? होने चाहिए मस्तिष्क में लेकिन होते पेट में। कृपण आदमी कब्जियत से भर जाता है। वह जो कंजूसी है, वह पेट में उतर जाती है। कंजूस आदमी और कब्जियत का शिकार न हो, बडा मुश्किल है। क्योंकि वह जो हर चीज को कंजूसी से देखने की आदत है, वह धीरे— धीरे उदरस्थ हो जाती है। फिर पेट मल को भी पकड़ने लगता है, उसको भी छोड़ता नहीं। सब चीजें पकड़नी हैं तो मल को भी पकड़ना है।

हमारे चित्त के जितने रोग हैं, सब अंततः गिरते जाते हैं, पेट में इकट्ठे होते जाते हैं। असल में पेट ही एकमात्र खाली जगह है जहां चीजें इकट्ठी हो सकती हैं। इसलिए उदर जनक कहते हैं। कि जितने — जितने उपद्रव मैंने अपने पेट में इकट्ठे कर रखे थे, आपके तत्वविज्ञान की संसी से खींच ही लिये आपने। खींचने को कुछ बचा नहीं है। मेरा पेट हल्का हो गया है। मेरा पेट निर्भार हो गया है। एक बात।

दूसरी बात कही कि और हृदय से। मस्तिष्क की तो बात ही नहीं उठायी है। इसका कारण है। तीन तल हैं हमारे जीवन के। एक है शरीर का तल, एक मन का तल और एक है आत्मा का तल। पूर्वीय अनुसंधानकर्ताओं ने अनुभव किया कि शरीर के तल पर जो भी दबाया जाता, वह पेट में चला जाता है। चित्त के तल पर, मन के तल पर जो भी दबाया जाता है, वह हृदय में अवरुद्ध हो जाता है। और आत्मा के तल पर तो दमन हो ही नहीं सकता। और आत्मा का स्थान है मस्तिष्क के अंतस्तल में—सहस्रार। तो यह तीन स्थान हैं। पेट में शरीर का जोड़ है। हृदय में मन का जोड़ है। और सहस्रार में आत्मा का जोड़ है।

अगर शरीर और मन की गांठ खुल जाए, कुछ भी दबा हुआ न रह जाए, तो जो ऊर्जा पेट में अटकी है, जो ऊर्जा हृदय में उलझी है, वह मुक्त हो जाती है। वह मुक्त हुई ऊर्जा वह जो कमल का फूल तुम्हारे मस्तिष्क में प्रतीक्षा कर रहा है जन्मों —जन्मों से, उसे ऊर्जा मिल जाए तो वह खिल जाए। ऊर्जा के मिलते ही वह खिल जाता है। वही मुक्ति है।

अगर बंधन कहीं है तो पेट और हृदय में है। अगर तुमने कुछ भी दबाया है, तो या तो वह पेट में पड़ गया होगा या हृदय में पड़ गया होगा। अधिकतर तो पेट में पड़ता, क्योंकि चित्त का दबाने योग्य लोगों के पास कुछ होता ही नहीं। जैसे समझो, तुमने अगर कामवासना दबायी तो पेट में पड़ जाएगी। तुमने क्रोध दबाया, तो पेट में पड़ जाएगा। तुमने ईर्ष्या, घृणा, हिंसा दबायी, तो पेट में पड़ जाएगी। यह सब शरीर के तल की घटनाएं हैं, बड़ी छुद्र। पहले तल की घटनाएं हैं।

किस आदमी ने अगर प्रेम दबाया, तो हृदय में पड़ेगा। गीत दबाया तो हृदय में पड़ेगा। संगीत दबाया तो हृदय में पड़ेगा। करुणा दबायी—फर्क समझ लेना, क्रोध दबाया तो पेट में पड़ता है, करुणा दबायी तो हृदय में पड़ती है। उठी थी करुणा, देने का मन हो गया था कि दे दें और दबा ली, तो हृदय

अवरुद्ध हो जाएगा। उठा था क्रोध और दबा लिया छ, तो पेट अवरुद्ध हो जाएगा। क्रोध नीचे तल की बात है, करुणा जरा ऊंचे तल की बात है। हम तो अधिकतर सौ में नब्बे मौके पर बिलकुल नीचे तल पर जीते हैं। इसलिए हमारा उपद्रव .सब पेट में होता है। और फिर पेट की विकृतियां हजार तरह की बाधाएं, व्याधियां पैदा करती हैं। शरीर के तल पर जो बीमारियां पैदा होती हैं, उनमें भी सत्तर प्रतिशत तो पेट में दबाए गये मानसिक विकारों का ही हाथ होता है।

योग में बड़ी प्रक्रियाएं हैं पेट को शुद्ध करने की। लेकिन वे तो लंबी प्रक्रियाएं हैं। और फिर भी किसी योगी का कोई छुटकारा होता दिखता है, ऐसा बहुत कठिन होता है। लंबी यात्रा है। जन्मों —जन्मों तक योग के द्वारा कोई पेट का शोधन करता रहता है, तब कहीं कुछ हल हो पाता है।

लेकिन जनक कहते हैं कि आपने तो अपने शब्दों के वाणों से मेरे भीतर चुभे वाणों को निकाल लिया। मैं खाली हो गया। मैं रिक्त हो गया। मैं हल्का हो गया। मैं स्वस्थ हो गया हूं।

‘हृदय और उदर से अनेक तरह के विचार रूपी वाण को निकाल दिया है।’

नानाविध परामर्श।

यह भी शब्द समझने जैसा है। तुम्हारी जिंदगी में इतनी सलाहें दी हैं लोगों ने तुम्हें, उन्ही सलाहों के कारण तुम झंझट में पड़े हो।

नानाविध परामर्श।

जो देखो वही सलाह दे रहा है, जिसको कुछ पता नहीं वह भी सलाह दे रहा है। सलाह दैने में लोग बडे बेजोड़ हैं। तुम किसी से भी सलाह मांगो, वह यह तो कहेगा ही नहीं कि भई, इसका मुझे अनुभव नहीं है। यह तो कभी कहेगा ही नहीं कि इस संबंध में मैं कुछ नहीं कह सकता। तुम क्रोधी से क्रोधी आदमी से सलाह मांगो कि क्रोध के संबंध में क्या करूं, तो तुम्हें सलाह देगा कि क्या करो। शराबी भी तुम्हें सलाह देगा कि शराब कैसे छोड़ो। चोर तुम्हें चोरी के विपरीत सलाह दे सकता है। शायद देगा ही। क्योंकि उसी सलाह देने के आधार से वह तुम्हारे मन में एक प्रतिमा पैदा करेगा कि कम से कम यह आदमी चोर तो नहीं हो सकता, जो चोरी के खिलाफ सलाह दे रहा है। बेईमान ईमानदारी की बातें करेगा। जिनको कुछ भी पता नहीं है, वे परम सत्य की बातें करेंगे। किताबों से उधार ले लिया होगा। शब्दजाल सीख लिया होगा। उसी को दूसरों पर फेंके जाते हैं। बुद्ध ने कहा है, अगर दुनिया में इतनी भी निष्ठा आ जाए कि आदमी वही कहे जितना जानता है, तो दुनिया में से आधा अंधकार दूर हो जाए। लेकिन लोग जो नहीं जानते वह भी कहे चले जाते हैं।


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