Tuesday 10 November 2015

एक जैन —मुनि के साथ मुझे एक दफे बोलने का मौका आया। उन्होंने आत्मज्ञान पर एक घंटा व्याख्यान दिया। सुनकर तो मुझे लगा कि उनको कुछ भी पता नहीं है। वह जो भी कह रहे हैं, सब उधार है, सब बासा है। जब मैंने यह कहा तो वह बड़े बेचैन हो गये। मगर आदमी भले थे। चुप रहे उन्होंने कुछ विवाद खड़ा न किया। सांझ एक आदमी को मेरे पास भेजा कि मैंने दिन भर सोचा आपने जो कहा और मुझे लगता है कि ठीक है, मुझे पता नहीं है। मैं चाहता हूं, आपसे मिलूं। तो मैंने कहा, मैं आऊंगा। इतना भला आदमी चाहे, तो उसे यहां मेरे पास आने की जरूरत नहीं, मैं आ जाऊंगा। तो मैं गया, वहां दस—बीस लोग इकट्ठे हो गये थे। लोगों को खबर मिल गयी। तो जैन—मुनि ने कहा कि मैं एकांत में बात करना चाहता हूं। मैंने कहा, अब इतनी हिम्मत तो करो! ईमानदारी है, तो इतनी हिम्मत और। इनके ही सामने करो। घबड़ाना क्या है? यही न, इन लोगों को पता चल जाएगा आप अभी आत्मज्ञानी नहीं हैं। चल जाने दो पता। यह भी आत्मज्ञान की यात्रा पर पहला कदम होगा। सत्तर साल आपकी उम्र हुई, मैंने उनसे कहा, आप कहते हैं कोई पचास साल हो गये आपको संन्यास लिये, बीस साल के जवान थे तब संन्यास लिया, आपकी बडी खयाति है, हजारों आपके शिष्य हैं जो आप कह रहे हैं उसमें से कुछ भी आपको पता नहीं है, क्यों कह रहे हैं?

उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था। उन्होंने कहा, मैंने कभी इस तरह सोचा ही नहीं। आज आप पूछते हैं तो बड़ा किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गया हूं। यह मैंने कभी सोचा ही नहीं कि क्यों कह रहा हूं। कह रहा हूं? यह बेहोशी में चलता रहा है। संन्यस्त हुआ था, शास्त्र पढ़ने शुरू किये, शास्त्र पढ़ने से प्रवचन शुरू हुआ, लोग पूछने आने लगे, मैं सलाह देने लगा, यह तो भूल ही गये कि ये पचास साल कैसे बीत गये इसी सलाह में। और जो सलाहें मैंने दी हैं, उनका मुझे कुछ पता नहीं।

दुनिया में इतना परामर्श है, इतनी सलाहें दी जा रही हैं, उनकी वजह से बड़ी कीचड़ तुम्हारे पेट में मची हुई है।

नानाविधपरामर्श।

यह जो न मालूम कितने—कितने तरह के परामर्श, मत—मतांतर, सिद्धात, शास्त्र लोगों ने समझा दिये हैं, उन सबको आपने खींच लिया। आपने मेरी शल्य—चिकित्सा कर दी, सर्जरी कर दी, जनक ने कहा। मैं मुक्त हुआ 1 आपने काट लिया।

‘अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको कहां धर्म है, कहा काम है, कहां अर्थ; कहां द्वैत और कहां अद्वैत?

और अब, अब जब जागकर मैं अपने को देखता हूं तो पाता हूं —

क्‍व धर्म: क्‍व च वा काम: क्‍व चार्थ क्‍व विवेकिता।

क्‍व द्वैत क्‍व च वाउद्वैतं स्वमहिम्नि स्थितस्य में।।

अब जब जागकर देखता हूं तो एक ही बात दिखायी पड़ती है—अपनी महिमा के सिंहासन पर विराजमान हूं। कुछ करने को नहीं है। अपने गौरव में प्रतिष्ठित हो गया हूं। स्वमहिमा को उपलब्ध

कर दिया आपने मुझे। सिर्फ कहकर, सिर्फ हिलाकर, सिर्फ आवाज देकर।

जीसस के जीवन में उल्लेख है कि उनका एक भक्त लजारस मर गया। वह बाहर थे गांव के। लजारस की बहनों ने खबर भेजी कि लजारस मर गया, आप जल्दी आएं। वे आये तो भी चार दिन लग गये। तब तक तो लाश को संभालकर रखा उन्होंने—स्व कब में रख दिया था। एक गुफा में छिपा दी थी लाश। जब जीसस आए तो वे दोनों बहनें मेरी और मार्था रोने लगीं और उन्होंने कहा कि अब तो क्या हो सकेगा! अब तो बदबू भी आने लगी। जीसस ने कहा, तुम फिकिर छोड़ो। अगर मैं पुकारूंगा तो लजारस सुनेगा।

किसी को भरोसा न था। पर भीड़ इकट्ठी हो गयी। जब वे गये उस गुफा के द्वार पर और उन्होंने जोर से आवाज दी कि लजारस बाहर आ! तो कहते हैं, लजारस अपनी अर्थी से उठा, चलकर बाहर आ गया। और जब बाहर आ गया तो लोग घबड़ा गये, लोग भागने लगे। जीसस ने कहा, भागो मत। मैंने तुमसे कहा था न, अगर मैं पुकारूंगा तो वह सुनेगा! क्योंकि वह मुझे सुन ही चुका है। और जब उसने जिंदा रहते हुए मेरी आवाज सुन ली, तो कोई कारण नहीं है कि मुर्दा रहते मेरी आवाज क्यों न सुनेगा! तुम न मुझे जिंदा रहकर सुने हो, न तुम मुझे मुर्दा रहकर सुन पाओगे —तुम जिंदा में भी नहीं सुन पाए तो तुम मुर्दा में कैसे सुनोगे?

ऐसी घटना घटी हो, न घटी हो, ये घटनाएं प्रतीक घटनाएं हैं। लेकिन बात तो सच है, गुरु जब पुकारता है शिष्य को कि लजारस उठ, बाहर आ, तो लजारस उठकर बाहर आ जाता है। श्रवणमात्रेण। फिर ना—नुच नहीं करता है। फिर यह नहीं कहता है कि अभी कैसे आऊं, अभी तो अंधेरा है, अभी तो रात बहुत है, अभी थोड़ी देर और सो लेने दें, कि मैं तो मरा पड़ा हूं —लजारस ने यह भी न कहा कि यह कोई वक्त की बात है, मैं इधर मरा पड़ा हूं, इधर कब में रखने की मेरी तैयारी चल रही है —जब लजारस बाहर आया तो उसके ऊपर कफन बंधा था—उसने यह भी न कहा कि अब कफन में बंधे से तो मत उठाओ, लोग क्या कहेंगे! कुछ तो औपचारिकता बरतो। नियम बिलकुल तो मत तोड़ो, मर्यादा तो रखो। मैं इधर मरा पड़ा हूं, अर्थी पर कसा पड़ा हूं, तुम बुलाते हो? नहीं, आ गया। सुनना आ जाए!

तो अगर तुम गौर से देखो तो तुम भी अर्थी पर रखे हो। यह शरीर जिसको तुम अपना कह रहे हो, अर्थी से ज्यादा नहीं है। और जिनको तुम वस्त्र कह रहे हो, यह कफनी से ज्यादा नहीं हैं। इसीलिए तो फकीर के वस्त्र को कफनी कहते हैं। कफन से बनाया कफनी। है तो कफनी ही। कफन कहो, कफनी कहो, क्या फर्क पड़ता है? इस शरीर पर जो भी वस्त्र पड़े हैं, सभी कफनी हैं। और यह शरीर खुद तो तुम्हारी अर्थी है। इसी पर चढ़े —चढ़े तो तुम मौत की तरफ जा रहे हो। यही शरीर तो तुम्हें एक दिन ले जाएगा चिता पर। इस मुर्दा शरीर के भीतर तुम जीवित पड़े हो, मगर तुम्हें सुनना नहीं आया। जनक ने आवाज सुन ली। उसने कहा कि धन्य है! मैं किन शब्दों में धन्यवाद दूं?

‘अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको।’

एक क्षण में तुमने मुझे मेरी महिमा में स्थित कर दिया। ऐसा नहीं कि तुमने मुझे रास्ता बताया कि कैसे महिमा में स्थित हो जाऊं। तुमने रास्ता नहीं दिया, तुमने मार्ग नहीं दिया, तुमने मंजिल दे दी। अब कैसा धर्म? अब कैसा अर्थ? अब कैसा काम? कहां द्वैत है? कहां अद्वैत है? चकितभाव से—यह चकितभाव के उदघोषण हैं —इसलिए बार—बार यह शब्द आएगा।

क्‍व धर्म:।

कहा है धर्म?

क्‍व च वा काम:?

कहां गयी वासनाएं? कहां गयीं महत्वाकांक्षाएं?

क्‍व चार्थ?

कहां गयी अर्थ की प्रबल दौड़? आपाधापी र इतना कमा लूं र ऐसा कमा लूं र यह हो जाऊं, इस पद पर बैठ जाऊं। इतना ही नहीं

क्‍व विवेकिता?

जिस विवेक को बहुत मूल्य देता था, विचार को, समझ को, वह समझ भी अब किसी काम की न रही। वह समझ भी अंधे के हाथ की लकड़ी थी। आंख खुल गयी, लकड़ी की क्या जरूरत रही। हिंदू शास्त्र कहते हैं, ‘उत्तीणें तु यते पारे नौकाया किं प्रयोजनम्।’ जब पार हो गये नदी, तब फिर नौका की क्या जरूरत? अंधा आदमी लकड़ी का सहारा लेकर टटोल—टटोलकर चलता है। लंगड़ा आदमी बैसाखी के सहारे चलता है।

जीसस के जीवन में एक उल्लेख है, एक लंगड़ा आया जो बैसाखी पर चलता आया। और कहते हैं, जीसस ने उसे छुआ और लंगड़ा स्वस्थ हो गया। जब वह जाने लगा तो भी वह अपनी बैसाखी साथ ले जाने लगा, तो जीसस ने कहा, अरे पागल, बैसाखी तो छोड़! अब यह बैसाखी कहां ले जा रहा है? लोग हंसेंगे।

पुरानी आदत। न—मालूम कितने वर्षों से बैसाखी लेकर चलता था, आज ठीक भी हो गया तो भी बैसाखी लिये जा रहा है।

जनक कहने लगे—कहां बैसाखिया! ये सब जो ‘क्‍व धर्म:?’ धर्म की क्या जरूरत है दुनिया में? लाओत्सु ने कहा है, एक समय ऐसा था जब लोग धार्मिक थे, इतने धार्मिक थे कि धर्म का किसी को पता ही न था। जब अधर्म होता है, तब धर्म का पता होता है। लाओत्सु कहता है, जब लोग अधार्मिक हो गये, तब धर्म पैदा हुआ। तब धर्मगुरु आए।

एक हिंदू संन्यासी मेरे घर मेहमान थे और मुझसे कहने लगे, यह भारत— भूमि बड़ी धार्मिक है! मैंने कहा, कुछ शर्म करो, संकोच खाओ। वह कहने लगे, क्या मतलब आपका? संकोच, शर्म? सब तीर्थंकर, सब अवतार, सब बुद्धपुरुष यहीं पैदा हुए हैं। मैंने कहा कि फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि संकोच खाओ। ड़ब मरो चुल्ल भर पानी में। उन्होंने कहा, आपका मतलब क्या है? मेरी कुछ समझ में नहीं आता। यह तो महिमा की बात है।

मैंने कहा, महिमा की बात नहीं है। तुमसे ज्यादा अधार्मिक कोई नहीं होगा, तब तो इतने धर्मगुरु, अवतार, तीर्थंकर, इनको पैदा होना पड़ा। जिस घर में रोज डाक्टर आएं, उसका मतलब कोई बड़ी महिमा की बात है! कि सब बड़े —बड़े डाक्टर रोज हमारे यहां आते हैं, देखो कारें खड़ी रहती हैं डाक्टरों की! ऐसा कोई दिन नहीं जाता जिस दिन डाक्टर न आते हों। हमारे घर की महिमा! लोग कहेंगे, यह महिमा की बात नहीं, तुम बीमार हो। घर तो वह महिमावान है जहां डाक्टरों की कोई जरूरत नहीं।


No comments:

Post a Comment