Monday 16 November 2015

क्‍व च आत्मा क्‍व च वानात्मा क्‍व शुभं क्याशुभं तथा।

क्‍व चिंता क्‍व च वाचिता स्वमहिम्नि स्थितस्य मे।

अपनी महिमा में बैठा, न कोई चिंता पकड़ती है, और ऐसा भी नहीं कह सकता कि अचिता की अवस्था है। ऐसा भी नहीं कह सकता कि चिंता मौजूद नहीं है। न तो चिंता मौजूद है, न गैर—मौजूद है। चिंता और अचिता दोनों एक—साथ तिरोहित हो गयी हैं। न यह कह सकता हूं कि मैं आत्मा हूं, न यह कह सकता हूं कि मैं अनात्मा हूं। दोनों शब्द अधूरे हैं, पूरे—पूरे नहीं। और घटना इतनी बड़ी है कि और कोई शब्द इसे कह नहीं पाता। अब न कुछ शुभ है और न कुछ अशुभ। न कोई पुण्य, न कोई पाप। न कोई स्वर्ग, न कोई नर्क। न कोई सुख, न दुख। गये सब द्वंद्व, गये सब द्वैत।

‘ अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको कहां स्वप्न, कहां सुषुप्ति, कहां जाग्रत’ —और सुनना— ‘कहां तुरीय?’

यह सूत्र छोड़ दिया था अष्टावक्र ने। कहा था, न स्वप्न, न जागृति, न सुषुप्ति। इन तीनों के पार जो है, तुरीय। लेकिन जनक कहते हैं, अब तुरीय भी कहां! चौथे को तो हम तभी गिन सकते हैं जब तीन हों। तीन के बाद ही चौथा अर्थवान हो सकता है। जब तीन ही गये तो अपने साथ चौथे को भी ले गये, तुरीय को भी ले गये। संख्या ही गयी। संख्यातीत में प्रवेश हुआ।

यह मैंने कहा कि थोड़ी—सी बात जैसे छोड़ दी थी अष्टावक्र ने, उसको जनक पूरा कर देते हैं। वे योग्य उतरते हैं कसौटी पर। वे अपने गुरु को कह रहे हैं कि आप मुझे धोखा मत दो। जब तीन चले गये तो चौथा कैसे बचेगा? मैं तुमसे कहता हूं, चौथा भी गया। गणना मात्र गयी।

क्‍व स्वप्न)— क्‍व सुमुप्तिर्वा क्‍व च जागरण तथा।

क्‍व तुरीय भयं वापि स्वमहिम्नि स्थितस्य में।।

और बड़ी अनूठी बात कहते हैं। स्वप्न गया, जागरण गया, निद्रा गयी, तुरीय भी गयी। और सब भय गया। अचानक भय को क्यों जोड़ देते हैं? भय से इसका क्या लेना—देना है?

गहरा संबंध है। ये सब तरंगें भय की ही हैं। ये सोना और जागना और स्वप्न और तुरीय, ये सब भय की तरंगें हैं। गहरे विश्लेषण पर पाया जाता है कि भय ही मन है। जब तक तुम भयभीत हो, तब तक मन है। जब भय गया, मन गया। जहां भय न रहा, मन न .रहा। और जहां मन न रहा, वहां सब गणना गयी। यह गणना करनेवाला हिसाब —किताब लगानेवाला मन है। तुमने देखा कभी? जितने तुम भयभीत होते हो उतना ही हिसाब—किताब लगाते हो।

मेरे गांव में मेरे सामने एक सुनार रहता है। उसकी बड़ी मुसीबत है। वह ताला लगाएगा, फिर देखेगा हिलाकर, फिर दो कदम चला जाएगा, फिर लौटकर आएगा, फिर ताला हिलाका और गांव भर उसको सताता। रास्ते पर मिल गया, कोई कह देता है, अरे, ताला ठीक से देख लिया है कि नहीं? तो पहले तो वह कहता है, देख लिया है, मुझे परेशान करने की जरूरत नहीं है। लेकिन दो कदम जाकर उसको शंका पैदा हो जाती है कि पता नहीं यह आदमी ठीक कह रहा हो! तो वह फिर लौटकर, आधे बाजार से लौटकर चला आएगा, फिर ताला हिलाकर देखेगा।

मैं उसे बैठा देखता रहता था, मैंने उससे कहा कि मामला क्या है? उसने कहा, यह पता नहीं मुझे क्यों आदत पड़ गयी है? मैंने कहा, यह ताले का सवाल नहीं है, तेरे भीतर कहीं भय होगा। ताले में क्या रखा है, तेरे भीतर कहीं भय होगा। कुछ. भय है। तूने कुछ छिपा रखा है घर में कि कोई चोरी चला जाए, या क्या हो जाए! इस गांव में इतने पैसेवाले लोग हैं, कोई ताला नहीं हिलाता, एक तू है —तेरी कोई हालत भी अच्छी नहीं है, दिन भर बमुश्किल मेहनत करके रुपये —दो रुपये कमा पाता है —तू छिपाए क्या है? वह थोड़ा घबड़ाया। वह कहने लगा, आपको पता कैसे चला? मैंने कहा, पता का सवाल ही नहीं है, इसमें पता चलने की क्या बात है, तेरा भय बता रहा है कि कुछ छिपा बैठा है। और तेरा यह ताला नहीं छूटेगा, क्योंकि तुझे लोग इतना सताते हैं। वह नदी में नहीं रहा है, और बीच में कह दो जरा कि अरे, सोनी जी! ताला! अब वह, पहले तो वह गाली देगा, नाराज होगा कि नहींने भी नहीं देते फुरसत से, मगर वह एक मिनट से ज्यादा नही रुक सकता है पानी में, वह निकला, भागा, वह ताला! उसका लाख लोग समझा चुके हैं कि तू ताला हिलाना छोड़, इसमें कुछ सार नहीं है, एक दफे देख लिया, हिला लिया, बहुत हो गया।

और जब मैंने उसको कहा कि ताला असली सवाल नहीं है, तू सोचता है कि ताले से तेरी उलझन है, यह बात गलत है, कुछ और मामला है। भय है कुछ। उस दिन से उसने ताला हिलाना छोड़ दिया। मैंने उससे पूछा कि मामला क्या है? गांव बड़ा चकित हुआ। क्योंकि लोग उससे कहें, सोनी जी, ताला! वह कहे कि तुम्हीं हिला लेना। जा रहे हो उसी तरफ, जरा हिला लेना। लोग बडे चौंके कि हुआ क्या? मामला क्या है? मामला कुछ भी न था। बड़ी छोटी—सी बात थी। एक भय था उसके मन में, पैसे उसने गड़ा रखे थे। वह उन्हीं में उलझा हुआ था। मैंने उससे कहा, तू पैसे निकाल ले,

कुछ बैंक में जमा कर आ। कुछ ज्यादा पैसे भी नहीं थे —ज्यादा —कम का कहां हिसाब है, आदमी एक पैसे को लेकर भयभीत हो सकता है। भय हो, तो हजार कंपन उठते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं हो जाएगा, कहीं वैसा तो नहीं हो जाएगा। कहीं कोई निकाल तो नहीं लेगा। भय हो तो मन कंपता है। कंपता है तो इंतजाम करना पड़ता है कैपने से रुकने का। लेकिन जहां भय गया, वहा सब कंपन चला जाता है।

भय क्या है? भय एक है कि मौत होगी। और तो कोई खास भय नहीं है। मरना पड़ेगा, यह भय है। जब तक तुम्हें लगता है कि मरना पड़ेगा, मरना होगा, मौत आएगी, तब तक तुम कंपते रहतो। कंपन से फिर सब पैदा होता है, लहरों पर लहरें उठती हैं—जागने की, सोने की, सपने की, नींद की, तुरीय की। लेकिन जिस दिन तुमने यह स्वीकार कर लिया कि जो है, वह कैसे मरेगा। और जो नहीं है, वह बचने से भी कैसे बचेगा। मैं तो मरूंगा, अहंकार की तरह—मरूंगा ही, क्योंकि अहंकार शाश्वत नहीं हो सकता, बनावटी है। लेकिन मैं रहूंगा शाश्वत में शाश्वत की तरह। वह मुझसे भी पहले था, वह मेरे बाद भी रहेगा। जो मेरे जन्म के पहले था, वह मेरे जन्म के बाद भी रहेगा। जो जन्म के कारण निर्मित हुआ है, मौत के साथ समाप्त हो जाएगा। जैसे ही तुम्हें बोध होना शुरू होता है कि तुम अहंकार नहीं हो, तुम्हारा मैं — भाव गिरता है, वैसे ही मृत्यु— भाव गिर जाता है। मृत्यु — भाव जहां गिरा, वहा सब गिरा। भय गिरा, मन गिरा। मन गिरा कि तुम जगे। और उस जागरण में जनक कहते हैं कि न तो स्वप्न है, न सुषुप्ति, न जागरण। इतना तो क्या, तुरीय भी कहां है? इसका भी मुझे पता नहीं चलता है।

इस आखिरी वक्तव्य से कि तुरीय भी नहीं है, जनक ने कह दिया, साक्षीभाव परिपूर्ण हो गया। पूर्ण हो गया।

‘अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको कहां दूर और कहां समीप? कहां बाह्य और कहां अंतस है? कहां स्थूल, कहां सूक्ष्म है?’


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