Thursday 5 November 2015

मैं सदा स्वयं में स्थित, कूटस्थ, मैं सदा निर्विभागस्य —कोई विभाजन मैं नहीं, कोई खंड़ मैं नहीं—न प्रवृत्ति है कोई, न निवृत्ति है; न किसी से लगांव, न दुराव, गये सब द्वंद्व के जाल। इतना भी कि न कुछ बंधन, न कुछ मुक्ति—तभी मुक्ति।
इसे तुम समझना। यह अपूर्व घोषणा है। इसका अर्थ है कि अगर तुम ठीक से समझो तो गलती कभी हुई ही नहीं है। गलती हो ही नहीं सकती। गलती होने का उपाय ही नहीं है। अगर तुम ठीक से समझो तो पाप कभी हुआ नहीं, पाप हो ही नहीं सकता। पाप होने का उपाय नहीं है। और न पुण्य हो सकता है। और न पुण्य कभी किया गया है। पाप हो कि पुण्य, भूल हो कि ठीक, दोनों में कर्ताभाव है। और तुमने कभी कुछ नहों किया है। तुम सदा एकरस, अकर्ता, साक्षी हो। सिर्फ देखनेवाले हो। कभी तुमने देखा कि चोरी हो रही है और कभी तुमने देखा कि दान दे रहे हो, मगर दोनों हालत में तुम द्रष्टा हो। न तुमने चोरी की है, न तुमने दान दिया है। दान भी हुआ है, चोरी भी हुई है, सच! पर तुमने न दान दिया है, न चोरी की है।
इसको खयाल में ले लेना। साधारणत: धार्मिक गुरु लोगों को समझाते हैं—चोरी छोडो, दान करो। वह साधारण धर्म है। यह असाधारण धर्म है। यह धर्म की आत्यतिक घोषणा है। तुम चोरी भी छोड़ो, तुम दान भी छोड़ो, तुम कर्ता होना छोड़ो। न तुम पापी बनो, न पुण्यात्मा। तुम कर्ता न रहो, तुम साक्षी हो जाओ।
अब तुम समझना। अगर कोई पापी पुण्यात्मा बनना चाहे तो बड़ी कठिनाई है। पहले तो पाप इतनी आसानी से छूटता नहीं, इतनी आसानी से कोई आदत नहों जाती। जन्मों —जन्मों में बनायी है, लाख —लाख उपाय करो, नहीं जाती। तुम जरा सोचो, छोटी—मोटी आदतें नहीं छूटती। किसी आदमी को पान चबाने की आदत है, वहो नहीं छूटती और क्या तुम खाक छोड़ोगे! किसी को तमाखू….।
एक सज्जन मेरे पास आते थे, बंगाली सज्जन। यूइनवर्सिटी मे प्रोफेसर थे। वह मुझसे पूछते कि यह पाप कैसे छूटे, वह पाप कैसे? उटे, और जब भी वह आते तो ‘नास’ अपनी नाक में भरते रहते। बैठे रहते, थोड़ी— थोड़ी देर में ‘नास’! मैंने उनसे कहा कि पाप इत्यादि को तो छोड़ो, पहले तुम यह ‘नास’ तो छोड़ो। उन्होंने कहा, यह न छूटेगी। यह बहुत मुाrSएकल है, इसके बिना तो मैं जी ही नहीं सकता। मैंने कहा, मैं जी रहा हूं, सारी दुनिया जी रही है इसके बिना। तुम ‘नास’ कै बिना न जी सकोगे! उन्होंने कहा, नहीं जी सकता। इससे ही तो ‘मुझे ताकत बनी रहती है, नहीं तो सब ढीला—डाला हो जाता है, सब सुस्त हो जाता है। ले ली ड़टकर ‘नास’, आ गयी अच्छी छींक, ताजे हां गये। तो जीवन में ताजगो मालूम पड़ती है। यह नहीं छूटेगी, यह तो बात ही मत उठाना। मैंने कहा कि अगर यह नहीं छूटना, तो क्या छूटना है! आदतें नहीं छूटती साधारण, तो जन्मों—जन्मों को आदतें कैसे छूटेगी? पाप नहों छूट सकता।
और अगर कोई पापी किसी तरह पाप को छोड़ने का उपाय भी करे, तो पाप पीछे के दरवाजों से प्रवेश कर जाता है। ऐसा भी हो सकता है कि तुम, चलो दान करें, पुण्य करें, मगर तुम पुण्य करोगे कहां से? तुम और चोरी करने लगोगे।
देखते नहीं रोज? जो दान देते हैं वह दान देते ही तब हैं, जब वह दस हजार देते हैं अगर वह दस लाख का इंतजाम कर लेते हैं, तब दस हजार देते हैं। देते ही तब हैं जब निकालने का इंतजाम हो जाता है। जब वह देख लेते हैं कि कोई हर्जा नही, सौदा करने जैसा है। तो अभी चुनाव आ रहा है तो वह पार्टियों को दान देंगे। देश कै हित में दान देते हैं। कोई लोकतंत्र के हित में दान देगा, कोई समाजवाद के हित में दान देगा। सच तो यह है कि जो होशियार हैं वे दोनों को दान देंगे। समाजवादियों को भी और लोकतंत्रियों को भी, क्योंकि पता नहीं कौन आ जाए! होशियार तो दोनों नाव पर सवार रहता है। कि इंदिरा हों कि मोरारजी, दोनों को दान देगा। जो आ जाए।
मेरे एक मित्र हैं, ज्योतिषी हैं। ज्योतिष उनका चलता—करता नहीं। आदमी भले हैं ओर झूठ भी नहीं बोल पाते हैं, इसलिए। ज्योतिष तो धंधा ही झूठ का है। उसमें अगर सच इत्यादि बोले तो वह चलेगा ही नहीं। वह तो झूठ का ही मामला है। वह तो सारा काम ही पूरा बेईमानी का है। तो वह मुझसे कहने लगे कि क्या करूं, कुछ सर्टिफिकेट भी नहीं है मेरे पास कि किसी. तो मैंने कहा, तुम एक काम करो। राष्ट्रपति का चुनाव हो रहा था। मैंने कहा, तुम चले जाओ और दो आदमी खड़े हैं, तुम दोनों को जाकर कह आओ कि आपकी जीत बिलकुल निश्चित है, लिखकर दे सकता हूं। तुम लिखकर ही दे आना। उन्होंने कहा, फिर पीछे फंसेंगे! मैंने कहा, तुम फिक्र छोड़ो। एक ही जीतेगा, दोनों तो जीतनेवाले नहीं हैं। जो हारा उसकी तुम फिकर ही छोड़ देना। और वह कोई तुम्हारे पीछे मुकदमे थोड़े ही चलाएगा—कौन फिक्र करता है!
यही हुआ। वह दोनों राष्ट्रपतियों को जाकर दे आए। एक जीत गया। जो जीत गया, उसके पास वह पहुंच गये बाद में। वह बड़ा प्रसन्न, उसने फोटो भी साथ उतरवाए, फिर सर्टिफिकेट भी लिखकर दिया। तबसे उनका ज्योतिष बहुत चल रहा है। जब राष्ट्रपति तक की घोषणा कर दी!
तो होशियार दोनों नाव पर सवार हो जाते हैं। वह दोनों को दान दे देंगे। जो भी आएगा कल ताकत में, दस हजार दिया तो दस लाख निकल लेंगे। लाइसेंस है और हजार उपाय हैं। चोर अगर दे, तो भी चोरी का इंतजाम पहले कर लेता है। अहंकारी अगर विनम्र भी बने, तो विनम्रता में भी अहंकार को ही पोषित कर लेता है। भागने का इतना सुगम उपाय नहीं है। पाप से पुण्य में जाने का कोई उपाय नहीं है। पापी और पुण्यात्मा एक ही खेल के हिस्सेदार हैं, साझीदार हैं।
परम धर्म कहता है, अकर्ता भाव—न पुण्य, न पाप। दोनों मैंने नहीं किये। और अगर दोनों हुए, तो परमात्मा जाने। वह परम ऊर्जा जाने। यही तो कृष्ण से निकला अर्जुन के लिए गीता में कि तू निमित्तमात्र हो जा। उपकरणमात्र। जो हो, होने दे। जैसा हो, वैसा ही होने दे। तू अपने को बीच में मत ला। वही अष्टावक्र का सूत्र है —कहां प्रीति, कहां विरति; कहां जीव, कहां ब्रह्म? सर्वदा स्वस्थ, कूटस्थ, अखंड़ रूप मुझको कहां प्रवृत्ति है, कहां निवृत्ति है, कहां मुक्ति है, कहां बंध है?
‘उपाधिरहित शिवरूप मुझको कहां उपदेश है अथवा कहां शास्त्र है रम कहा शिष्य है और कहा गुरु है और कहां पुरुषार्थ है?’
यह शिखर के बिलकुल करीब आने गो।
क्योपदेश क्‍व वा शास्त्रं क्‍व शिष्य: क्‍व च आ गुरु:।
क्‍व चास्ति पुरुषार्थो वा निरुपाधे शिवस्य में।।
मैं निरुपाधि में ठहर गया। न ऐसा हूं न वैसा हूं। मैं नेति —नेति में पहुच गया। न साधु, न असाधु, न पापी, न पुण्यात्मा; न बुरा, न भला; न आत्मा, न ब्रह्म, मैं ऐसी उपाधिरहित दशा में आ गया हूं। अब यहां मेरे ऊपर कोई भी वक्तव्य लागू नहीं होता।
‘उपाधिरहित शिवरूप मुझको कहा उपदेश?’
अब किससे तो मैं उपदेश लूं और किसको मैं उपदेश दूं? उपदेश में तो स्वीकार कर ली गयी
बात कि दो होने चाहिए। गुरु —शिष्य तभी तो बन सकते हैं न, जब दो हों। कोई कहे, कोई सुने, कोई दे, कोई ले। जनक कहते हैं, अब कैसा उपदेश? न तो मैं ले सकता उपदेश, क्योंकि दूसरा कोई है नहीं जिससे ले लूं और न मैं दे सकता, क्योंकि दूसरा कोई है नहीं जिसको मैं दे दूं। यह परम घड़ी आ रही, यह परम सौभाग्य का क्षण है जब कोई व्यक्ति ऐसी दशा में आता है जहां उपदेश देना—लेना भी संभव नहीं।
‘मुझको कहां उपदेश है अथवा कहां शास्त्र है?’
और जब उपदेश ही न हो तो शास्त्र नहीं बनता। शास्त्र तो उपदेश का ही संग्रहीत रूप है। फिर कोई वेद, कुरान, बाइबिल, गीता कुछ अर्थ नहीं रखते।
‘फिर कहां शिष्य, कहां गुरु?’
जब उपदेश ही नहीं हो सकता तो कौन होगा गुरु और कौन होगा शिष्य?
‘ और कहं। पुरुषार्थ है त्र: ‘
फिर न कुछ पाने को बचा तो पुरुषार्थ का भी कोई सवाल नहीं है। समझो।
जनक बोल तो रहे हैं। यह वचन तो बोल ही रहे हैं। अष्टावक्र ने इतना लंबा उपदेश भी दिया है और जनक भी कुछ कंजूसी नहीं कर रहे हैं बोलने में। फिर भी वह कहते हैं, कहां उपदेश? तो बात कुछ समझ लेनी चाहिए।
बुद्धपुरुष बोलते हैं, ऐसा कहना ठीक नहीं, बुद्धपुरुषों से बोला जाता है, ऐसा कहना ठीक है। फूल खिलते हैं जैसे, सुगंध झरती है जैसे, बादल उमड़—घुमड़ कर आते हैं जैसे, और वर्षा होती है जैसे, दीया जलता है तो प्रकाश झरता है जैसे, ऐसे बुद्धत्व से रोशनी झरती है, सुगंध झरती है। मगर उपदेश देने की आकांक्षा नहीं है।
इसलिए बुद्ध ने चालीस साल बोलने के बाद कहा है कि मैं कभी भी नहीं बोला। मैं बोला ही नहीं। कठिन हो जाती है बात। क्योंकि बुद्ध के वचन इतने हैं, सैकड़ों शास्त्र निर्मित हुए। जितने वचन बुद्ध के हैं उतने किसी के भी नहीं हैं। बाइबिल और कुरान सब बहुत छोटी —छोटी किताबें रह जाती हैं। बुद्ध के अगर सारे वचन संग्रहीत होते हैं तो पूरा एक पुस्तकालय निर्मित होता है, एक पूरा एनसाइक्लोपीडिया—इतना बोले हैं —और आखिर में कहते हैं कि मैं बोला नहीं। बात फिर भी ठीक कहते हैं। बोले नहीं, क्योंकि बोलना किससे, दूसरा कोई है नहीं।
लेकिन कभी—कभी तुमने ऐसी घड़ी जानी है, जब तुम अकेले बैठे हो और गीत गुनगुनाते हो? तब तुम किसी को कह नहीं रहे, अपनी मौज में कह रहे हो। बुद्ध से वचन निकले हैं, झरे हैं, जैसे झरनों से जल बह रहा है, जैसे वृक्षों से फूल निकल रहे हैं, ठीक ऐसे। जैसे पक्षी गीत गुनगुना रहे हैं, ठीक ऐसे। इसमें कुछ चेष्टा नहीं है, प्रयोजन नहीं है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। दीया जल जाएगा तो रोशनी निकलेगी। और फूल खिलेगा तो गंध भी उड़ेगी। ऐसे ही बुद्ध से वचन उड़े हैं।
ठीक वही जनक कह रहे हैं, कहा उपदेश, कहां शास्त्र? कहां शिष्य, कहां गुरु? कैसा पुरुषार्थ? और अंतिम सूत्र—
क्‍व चास्ति क्‍व च व नास्ति क्यास्ति चैक क्‍व च द्वयम्।
बहुनात्र किमुक्तेन किंचित्रोत्तिष्ठते मन।।
‘कहां अस्ति है, कहां नास्ति है, अथवा कहां एक है और कहां दो हैं? इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन, मुझको तो कुछ भी नहीं प्रकाश करता है।’
यह आखिरी बात।
गुरु —शिष्य के गिर जाने के बाद कुछ बचा नहीं गिरने को। सिर्फ एक छोटा—सा वक्तव्य.
बहुनात्र किमुक्तेन।
अब क्या कहूं? अब कहने को कुछ भी नहीं है। न तो कुछ है और न कुछ नहीं है। न आस्तिकता का कुछ अर्थ है, न नास्तिकता का। न अस्ति का कोई अर्थ है, न नास्ति का।
क्‍व चास्ति क्‍व च व नास्ति क्यास्ति चैकं क्‍व च द्वयम्।
अब तक कहा कि एक है, एक है, अद्वय है, अद्वैत है, अब कहा कि अब एक भी कहना व्यर्थ और दो भी कहना व्यर्थ। गयीं सब वे बातें, गया सब वह गणित। और अब कुछ कहने जैसा नहीं है।
किंचिन्नोत्तिष्ठते मम।
यह वचन बड़ा अदभुत है। इसका अर्थ होता है —कुछ भी नहीं उठता अब मुझमें।
किंचित्रोत्तिष्ठते मम।
कोई लहर नहीं उठती। कोई तरंग नहीं उठती, सब शून्य हुआ, या सब पूर्ण हुआ। अधूरे में उठाव है। पूरे में कैसा उठाव! अधूरे में गति है, पूरे में कैसी गति! आधी गागर आवाज करती है, अधभरी गागर आवाज करती है। पूरी भरी गागर आवाज नहीं करती या पूरी खाली गागर आवाज नहीं करती। जहां पूर्णता है, वहां आवाज नहीं, वहां शून्य है। वहां शून्य का परम संगीत है। जहां अधूरापन है, वहां आवाज है।
किचिन्नोत्तिष्ठते मम।
अब मुझमें कुछ भी नहीं उठ रहा है। सब परम विश्रांति को उपलब्ध हो गया है।
ऐसी घड़ी तुम्हारे जीवन में भी आ सकती है। तुम्हारे सहयोग की जरूरत है। ऐसा परम भाव तुम्हारा भी हो सकता है, तुम पर ही निर्भर है। एक छोटी—सी कहानी कहूंगा
एक संत था, बहुत वृद्ध और बहुत प्रसिद्ध। दूर—दूर से लोग जिज्ञासा लेकर आते, लेकिन वह सदा चुप ही रहता। हा, कभी—कभी अपने डंडे से वह रेत पर जरूर कुछ लिख देता था। कोई बहुत पूछता, कोई बहुत ही जिज्ञासा उठाता, तो लिख देता—संतोषी सुखी; भागो मत, जागो; सोच मत, खो; मिट और पा, इस तरह के छोटे —छोटे वचन। जिज्ञासुओं को इससे तृप्ति न होती, और प्यास बढ जाती। वे शास्त्रीय निर्वचन चाहते थे। वे विस्तारपूर्ण उत्तर चाहते थे। और उनकी समझ में न आता था कि यह परम संत बुद्धत्व को उपलब्ध होकर भी उनके प्रश्नों का उत्तर सीधे —सीधे क्यों नहीं देता। यह भी क्या बात है कि रेत पर डंडे से उलटबासिया लिखना! हम पूछते हैं, सीधा—सीधा समझा दो। वे चाहते थे कि जैसे और महात्मा जप —तप, यज्ञ —याश, मंत्र —तंत्र, विधि —विधान देते थे, वह भी दे। लेकिन वह मुस्काता, चुप रहता, ज्यादा से ज्यादा फिर कोई उसे खोदता—बिदीरता तो वह फिर लिख देता—संतोषी सदा सुखी, भागो मत, जागो, बस उसके बंधे —बंधाये शब्द थे। बड़े —बड़े पंडित आए और थक गये और हार गये और उदास होकर चले गये, कोई उसे बोलने को राजी न कर सका। कोई उसे ज्यादा विस्तार में जाने को भी राजी न कर सका।
लेकिन एक बात थी कि उसके पास कुछ था, ऐसी प्रतीति सभी को होती। उसके पास एक दैदीप्य प्रतिभा थी। उसके चारों तरफ एक प्रकाश था, एक अपूर्व शांति थी। उसके पास एक ठंडी, शीतल लहर थी, जो छूती। पंडितों तक को एहसास होता, क्योंकि पंडित तो सबसे अंधे लोग हैं इस पृथ्वी पर। उनको भी लगता कि कुछ है, कोई चुंबक। दूर—दूर काशी से आते, पर फिर उदास लौटते, क्योंकि वह ज्यादा कुछ बोलता न।
लेकिन एक दिन ऐसा हुआ, एक युवक आया और बजाय इसके कि वह कुछ पूछे, उसने के के हाथ से डंडा छीन लिया। उसकी आंखों में कुतूहल भी नहीं था, उसके चेहरे पर जिज्ञासा भी नहीं थी, उसके सिर पर पांडित्य का बोझ भी नहीं था, वह बड़ा भोला— भाला युवक था, बड़ा शात। एक गहरी मुमुक्षा थी। जीवन को दाव पर लगाने की आकांक्षा थी। खोजी था।
उसने डंडा हाथ में ले लिया और उसने भी मौन का व्रत लिया था, वह मौन ही रहता था, उसने डंडे से रेत पर लिखा—आपकी ज्योति मेरे अंधेरे को कैसे दूर करेगी? उसने रेत पर लिखा। संत ने उत्तर में रेत पर लिखा—कैसा अंधेरा, अंधेरा है कहां? क्या तुम अंधेरे में खोए हो? यह पहला मौका था कि संत ने इतनी बात लिखी। भीड़ इकट्ठी हो गयी पृ गांव भर में खबर पहुंच गयी कि कोई आदमी आया है जिसने सोए संत को जगा लिया मालूम होता है। उसने कुछ लिखा है जैसा कभी नहीं लिखा था। उसने लिखा है, कैसा अंधेरा? अंधेरा है कहां? क्या तुम अंधेरे में खोए हो? वह युवक थोड़ा ठिठका और उसने फिर लिखा—क्या खो जाना वस्तुत: खो जाना है? क्या खो जाना मार्ग से वस्तुत: स्मृत हो जाना है? संत ने युवक की आंखों में झांका, अनंत प्रेम और करुणा और आशीष से और फिर रेत पर लिखा—नहीं, खो जाना भी खो जाना नहीं, बस विस्मृतिमात्र। याद भर खो गयी है और कुछ खो नहीं गया है। खो जाना भी खो जाना नहीं है, बस विस्मृति।
अब तक तो दर्शकों की बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। यह उत्तर पढ़ कर भीड़ में हंसी का फव्वारा फूट पड़ा। और संत ने जो लिखा था उसे तब्धण पोंछ डाला और पुन: लिखा—कौन सी इच्छा तुम्हें यहां ले आयी है, युवक? डंडा सतत हाथ बदलता रहा। युवक ने लिखा—इच्छा? इच्छाएं? नहीं मेरी कोई इच्छा शेष नहीं है। ऐसा सुनते ही संत उठकर खड़ा हो गया, दायां पैर उठाकर भूमि पर तीन बार थाप दी, फिर आंखें कंद करके सांस को रोककर मूर्तिवत खड़ा हो गया। सन्नाटा छा गया। भीड़ भी ग्रतइrवत हो गयी, युवक भी कुछ समझा नहीं, इस पर युवक भूल गया कि उसने मौन का व्रत लिया है और बोल उठा. यह आपने क्या किया और क्यों किया? संत हंसा’ और उसने पुन: रेत पर लिखा—कुतूहल इच्छा का ही एक रूप है। इस पर युवक चाख उठा मैंने सुना है कि एक ऐसा महामंत्र है जिसके उच्चार मात्र से व्यक्ति विश्व के साथ एक हो जाता है, ब्रह्म के साथ एक हो जाता है, मैं उसी मंत्र की खोज में आया हूं। ज्यादा मुझे कहना नहीं। और मुझे पता है कि वह मंत्र आपके पास है—मैं देख रहा हूं, उसकी ध्वनि मुझे सुनायी पड़ रही है।
संत ने शीघ्रता से लिखा—तत्वमसि। वह तू ही है। वह मंत्र तू ही है। और क्या तू एक क्षण को भी ब्रह्म से भिन्न हुआ है? और तब उस के संत ने अचानक डंडा उठाया और उस युवक के सिर पर दे मारा। युवक की आंखों के सामने तारे घूम गये। लेकिन वह किसी अनिर्वचनीय समाधि में भी डूब गया। उसकी आंखों से अविरल आनंद के आंसू बहने लगे। पल पर पल बीते, घडियां बीती, दिन
बीता, दिन बीते, वह युवक अपूर्व आनंद में डूबा रहा तो डूबा ही रहा।
और तब तीसरे दिन के संत ने न—मालूम किस अनिर्वचनीय क्षण में भूल गया कि मौन का व्रत लिया है, मौन टूट गया के संत का और उसने कहा. सो अंततः तुम घर वापिस आ ही गये! सो अंततः तुम घर वापिस आ ही गये? पर युवक बोला नहीं और बिना बोले ही अनंत कृतज्ञता से के की आंखों में देखता रहा और तब उसने डंडा उठाकर रेत पर लिखा —केवल स्मृति लौट आयी, कौन गया था, कौन लौटा? सिर्फ स्मृति लौट आयी।
बस इतना ही सारसूत्र है अष्टावक्र और जनक के इस परम संवाद का, इतना ही—स्मृति लौट आयी।
वही है मरकजे —काबा वही है राहे —बुतखाना
जहां दीवाने दो मिलकर सनम की बात करते हैं
इन दो दीवानों की बात तुमने सुनी। प्रभु करे तुम्हें भी दीवाना बनाये, तुम्हारे जीवन में भी वह अपूर्व अमृत बरसे। और देर जरा भी नहीं है, बस स्मृति की बात है।
हरि —ओंम तत्सत्।

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