नित्य को समझो। नित्यता, इटर्निटी, इसे समझो। साधारणत: हम जीते हैं समय में। और जो समाधिस्थ हुआ, वह जीता है नित्यता में। समय में नहीं। फर्क क्या है? समय बदलता है, नित्यता नित्य है, बदलती नहीं। इसीलिए तो नित्य नाम दिया है। समय अनित्य है। आया, गया। आ भी नहीं पाया कि गया। अभी सुबह हुई, अभी दोपहर होने लगी, अभी दोपहर हो ही रही थी कि सांझ आ
गयी, कि रात आ गयी, कि फिर सुबह हो गयी—आया और गया। आना और जाना, आवागमन है समय। प्रवाह। लहरों की तरह।
मन तो जीता .है समय में। और अगर तुम्हें स्वयं को जानना है तो समय के पार हटना पड़े—। समय का विभाजन है. भूत—जो जा चुका, कभी था, अब नहीं है। भविष्य—जो कभी होगा, अभी हुआ नहीं है। और दोनों के बीच में वर्तमान का छोटा—सा क्षण। वह भी बड़ा कंपता हुआ क्षण है। वर्तमान का अर्थ हुआ, भविष्य भूत हो रहा है। वर्तमान का क्या अर्थ होता है? इतना ही अर्थ होता है कि जो नहीं था, फिर नहीं हो रहा है। एक नहीं से दूसरी नहीं में जाते हुए जो थोड़ी—सी देर लगती है क्षण भर को, उसको हम वर्तमान कहते हैं। अभी नौ बजकर पांच मिनट हुए हैं, यह जो सेकेंड़ है, मैं बोल भी नहीं पाया और गया। सेकेंड़ कहने में जितनी देर लगती है? वह ज्यादा है, सेकेंड़ उससे जल्दी बीत गया है। आ भी नहीं पाता, एक क्षण पहले भविष्य में था—तब भी नहीं था, और एक क्षण बाद फिर अतीत में हो गया—फिर नहीं हो गया, एक नहीं से दूसरी नहीं में चला गया, और जरा—सी देर को इालक मारा, पलक मारा, इसीलिए तो पल कहते हैं। पत्न इसीलिए कहते हैं उसे कि पलक मारा, बस गया। एक झलक दी और गया।
यह समय की तीन स्थितियां हैं— भूत तो है ही नहीं, भविष्य तो है ही नहीं और वर्तमान भी क्या खाक है? जरा—सा है। न होने के बराबर है। इन तीनों के पार जो है, उसका नाम नित्य।
‘नित्य अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको कहां भूत है, कहा भविष्य है और कहां वर्तमान भी है?’ अब तुम थोड़ा सोचना, साधारणत: कहा जाता है, वर्तमान में जीओ। मैं भी तुमसे कहता हूं कि वर्तमान में जीओ। —क्योंकि इससे पार की बात तो तुम्हारी अभी समझ में न आ सकेगी। कृष्णमूर्ति भी तुमसे कहते हैं, वर्तमान में जीओ। लेकिन वर्तमान में कैसे जीओगे? भविष्य है, काफी बड़ा है, अभी हुआ नहीं है, मगर विस्तार है भविष्य का। अगर हाथ—पैर मारना चाहो तो मार सकते हो, थोड़ा जी सकते हो।
इसीलिए तो लोग भविष्य में जीते हैं, वर्तमान में नहीं जीते। क्योंकि थोड़ी सुविधा तो चाहिए चलने —फिरने की। या अतीत में जीते हैं, क्योंकि अतीत भी लंबा है। जो हो गया, उसकी भी धारा है। वर्तमान में कैसे जीओ, यह तो एक क्षण आया और गया। लेकिन कहते हैं तुमसे हम वर्तमान में जीने को, क्योंकि यह पहला कदम है नित्य में उतरने का। वर्तमान के क्षण में नित्य और समय का मिलन होता है। जर—सी देर को नित्यता समय में झांकती है, उतनी देर को समय सत्य हो जाता है।
इसको ठीक से समझना।
समय तो झूठ है। एक झूठ भविष्य, दूसरा झूठ अतीत। और दोनों के बीच में जो थोड़ा—सा सच मालूम होता है, वह भी समय के कारण सच नहीं है, वह नित्य उसमें झलक मारता है। वर्तमान का अर्थ हुआ, जहां समय और शाश्वत का थोड़ी देर को मिलन होता है। शाश्वत के प्रकाश में वर्तमान का क्षण चमक उठता है, एक क्षण को, फिर भागा, गया। इस शाश्वतता में उतरने के लिए वर्तमान में जीने की बात कही जाती है, लेकिन वह सिर्फ कामचलाऊ है। जब तुम उतरने लगोगे वर्तमान में तो तुम बहुत जल्दी पा जाओगे कि वर्तमान में उतरने का असली मतलब यह है कि वर्तमान के भी पार उतर जाना, समय के पार उतर जाना। न रह जाए अतीत, न भविष्य, न वर्तमान। यह काल की धारा न रह जाए। इसके पीछे छिपा है अ—काल।
वह जो पीछे छिपा है इस धारा के और जिसकी रोशनी के कारण, जिसकी पुलक के कारण जिसके प्राण के कारण थोड़ी देर को वर्तमान जीवित हो जाता है, उस जीवंत में उतर जाना, उसका नाम है नित्य, इटर्निटी।
अब ऐसा समझो कि ये मेरी तीन अंगुलियां तुम्हारे सामने हैं। एक का नाम भविष्य, एक का नाम वर्तमान, एक का नाम अतीत। लेकिन तीन अंगुलियों के बीच में तुम्हें दो खाली जगह भी दिखायी पड़ रही हैं। वर्तमान, अतीत, भविष्य, इनके बीच में जो दो खाली जगह हैं, उन्हीं खाली जगहों में उतरकर नित्यता का अनुभव होता है। समय के दो क्षण के बीच में जो अ— क्षण होता है, जो नो मोमेंट होता है, वही नित्यता का है। एक क्षण गया, दूसरा आ रहा है, इन दोनों के बीच में जो थोड़ा—सा अंतराल है, इंटरवल है, रिक्त जगह है, शून्य है, उसी में शाश्वत का निवास है।
‘नित्य अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको कहां भूत, कहां भविष्य, कहां वर्तमान और कहां देश?’ आइंस्टीन ने तो अभी इस सदी में जाकर यह पता लगाया कि समय और देश एक ही घटना के पहलू हैं। समय और देश, टाइम और स्पेस अलग— अलग चीजें नहीं हैं, दोनों जुड़े हैं। यह अष्टावक्र की गीता में, जनक के इस वचन में जोड़ है। यह आकस्मिक नहीं है कि एक साथ कहा—
क्व देश:…..।
क्व भूतं क्व भविष्यद्वा वर्तमानमपि क्व वा क्व देश:।
न भूत, न भविष्य, न वर्तमान, और कोई देश भी नहीं, कोई ‘स्पेस’ भी नहीं।
यह दोनों एक सूत्र में कहे, बात जाहिर है कि दोनों का संबंध स्मरण में होगा। दोनों का संबंध अनुभव में होगा। देश और काल एक ही घटना के दो पहलू हैं। आइंस्टीन ने तो एक अलग ही शब्द बना लिया, स्पेसियोटाइम; अलग— अलग जिसमें न कहना पड़े। क्योंकि दोनों इकट्ठे हैं। समय को आइंस्टीन ने कहा, स्पेस का ही चौथा आयाम। समय और देश एक—साथ हैं। जैसे ही समय गया वैसे ही देश चला जाता है। कठिन होगा समझना, क्योंकि बुद्धि तो समय और देश में जीती है। बुद्धि के पार एक ऐसी जगह है, जहां जगह भी मिट जाती है।
इसलिए तुम अगर मुझसे पूछो कि आत्मा किस जगह है, तो मैं उत्तर न दे सकंगूा। किसी ने कभी उत्तर नहीं दिया, क्योंकि आत्मा जगह के बाहर है। शरीर किस जगह है, बताया जा सकता है। पूना में है, कि कलकत्ता में है, कि न्यूयार्क में है। अक्षांश—देशांश पर कहां है, तो नक्शे पर बताया जा सकता है कि इतने अक्षांश, इतने देशांश पर है। अभी तुम यहां बैठे हो, कौन कहां बैठा है, बताया जा सकता है। लेकिन आत्मा कहां है, उत्तर नहीं दिया जा सकता। लोग पूछते हैं, आत्मा कहां है, हृदय में है नाभि में है, मस्तिष्क में है, कहां है? तुम जब प्रश्न पूछते हो, तुम्हें पता नहीं है कि तुम एक गलत प्रश्न पूछ रहे हो जिसका कोई उत्तर नहीं हो सकता है। आत्मा स्थान के बाहर है। तुम पूछो, आत्मा कब है? सुबह छ: बजे है, कि दोपहर बारह बजे है, कि शाम तीन बजे है, आत्मा कब है? भविष्य में, वर्तमान में, अतीत में? नहीं, आत्मा के लिए फिर भी उत्तर नहीं दिया जा सकता है, आत्मा समय और स्थान के बाहर है। समय और स्थान आत्मा में हैं, आत्मा समय और स्थान में नहीं है। आत्मा ने सबको घेरा है। उस आत्मा में सब शून्य हो जाता है।
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