Friday 6 November 2015

अष्टावक्र ने जो सूत्र जनक को दिये, वे जागरण के अपूर्व सूत्र हैं। कोई समझ ले तो बस जाग गया। जनक जैसा शिष्य पाना भी बहुत मुश्किल है, दुर्लभ है। अष्टावक्र जैसा गुरु तो दुर्लभ होता ही

है, जनक जैसा शिष्य भी बहुत दुर्लभ है। और अष्टावक्र और जनक जैसे गुरु—शिष्य का मिलन पहले कभी हुआ, उल्लेख नहीं। बाद में भी कभी हुआ, ऐसा उल्लेख नहीं। शायद दुबारा यह बात घटी ही नहीं। करीब—करीब असंभव लगता है दुबारा घटना। जैसा गुरु, वैसा शिष्य। ठीक दो स्वच्छ दर्पण एक—दूसरे के सामने रखे हैं।

अष्टावक्र ने अपनी सारी बात कह दी। उंडेल दिया अपने पूरे हृदय को। जो कहा जा सकता था, कह दिया। जो नहीं कहा जा सकता था, उसे भी कहने की कोशिश की। जनक इस पूरी अपूर्व वर्षा के बाद धन्यवाद दे रहे हैं। गुरु को धन्यवाद कैसे दिया जाए? एक ही धन्यवाद हो सकता है कि गुरु ने जो कहा, वह व्यर्थ नहीं गया, समझ लिया गया। गुरु से उऋण होने का कोई और तो उपाय नहीं है। एक ही मार्ग है धन्यवाद का, आभार का कि जो वर्षा हुई, व्यर्थ नहीं गयी, मेरे हृदय की झील में भर गयी है। तुमने जो श्रम किया, वह नाहक नहीं हुआ। तुमने जो मोती बिखेरे, वह मूढ़ों के सामने नहीं फेंके। वे परख लिये गये हैं। संभाल लिये गये हैं। उन्हें मैंने अपने हृदय में संजो लिया है। वे मेरे प्राणों के अंग हो गये हैं। इस बात के सूचन के लिए जनक अंतिम संवाद का समारोप करते हैं।

ठीक भी है, इस संवाद का प्रारंभ भी जनक से हुआ था, और अंत भी जनक पर हो। जिशासा जनक ने की थी कि हे प्रभु, मुझे जीवन का सार क्या है, सत्य क्या है, वह बताएं। अंत भी जनक पर ही होना चाहिए। जो पूछा था, मिल गया। जितना पूछा था, उससे ज्यादा मिल गया। जो जानना चाहा था, वह जना दिया गया है। और जिसका स्वप्न में भी जनक को स्मरण न होगा, सुषुप्ति में भी जिसकी तरंग कभी न उठी होगी, वह सब भी उंडेल दिया गया। क्योंकि गुरु जब देता है, तो हिसाब से नहीं देता। शिष्य के मांगने की सीमा होगी, गुरु के देने की क्या सीमा है! शिष्य के प्रश्न की सीमा होगी, गुरु का उत्तर असीम है। और जब तक असीम उत्तर न मिले, तब तक सीमित प्रश्नों के भी हल नहीं होते हैं। सीमित प्रश्न भी असीम उत्तर से हल होता है।

थोड़ा—सा पूछा था जनक ने, अष्टावक्र ने खूब दिया है। दो बूंद से तृप्ति हो जाती जनक की, ऐसा उसका प्रश्न था, अष्टावक्र ने सागर उंडेल दिया है।

इस बात को भी समझ लेना कि यह जीवन का एक परम आधारभूत नियम है कि परमात्मा के इस जगत में कंजूसी नहीं है, कृपणता नहीं है। जहां एक बीज से काम चल जाए, वहां देखते हैं, वृक्ष पर करोड़ बीज लगते हैं। जहां एक फूल से काम चल जाए, वहां करोड़ फूल खिलते हैं। जहां एक तारा काफी हो, वहा अरबों—खरबों तारे हैं। जीवन का एक आधारभूत नियम है, कंजूसी नहीं है। वैभव है, महिमा है। इसीलिए तो हम परमात्मा को ईश्वर कहते हैं। ईश्वर का अर्थ होता है, ऐश्वर्यवान। जरूरत पर समाप्त नहीं है, जरूरत से ज्यादा है, तो ऐश्वर्य। जब हम कहते हैं किसी व्यक्ति के पास ऐश्वर्य है, तो इसका मतलब यह होता है कि आवश्यकता से ज्यादा है। आवश्यकता पूरी हो जाये तो कोई ऐश्वर्य नहीं होता। इतना हो कि तुम्हारी समझ में न पड़े कि अब क्या करें, आवश्यकताएं सब कभी की पूरी हो गयीं, अब यह जो पास में है इसका क्या उपयोग हो, तब ऐश्वर्य है। इस अर्थ में तो शायद कोई आदमी कभी ईश्वर नहीं होता है। ईश्वर ही बस ईश्वर है। परम ऐश्वर्य है। कहीं जरा भी कृपणता नहीं। और जब किसी आत्मा का इस परम ऐश्वर्य से मेल हो जाता है, तो इस परम ऐश्वर्य की ध्वनि उस आत्मा में भी झलकती है।

अष्टावक्र ने उंडेल दिया। तुम्हें कई बार लगा होगा, इतना अष्टावक्र क्यों कह रहे हैं, यह तो बात जरा में हो सकती थी। लेकिन जो जरा में हो सकता है, उसको भी परमात्मा बहुत रूपों में करता है। जो संक्षिप्त में हो सकता है, उसको भी विराट करता है। विस्तार देता है। ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है, विस्तार। जो विस्तीर्ण होता चला जाता है। ब्रह्मचर्चा भी ब्रह्म जैसी है। पत्ते पर पत्ते निकलते आते हैं। शाखाओं में प्रशाखाएं निकलती आती हैं। प्रश्न तो बीज जैसा था, उत्तर वृक्ष जैसा है। होना भी ऐसा ही चाहिए।

अब इस परम सौभाग्य के लिए जनक धन्यवाद कर रहे हैं। धन्यवाद शब्द ठीक नहीं। धन्यवाद शब्द से काम न चलेगा। धन्यवाद शब्द बहुत औपचारिक होगा। इसलिए कैसे धन्यवाद दें! तो एक ही उपाय है कि गुरु के सामने यह निवेदन कर दें कि जो तुमने कहा, वह व्यर्थ नहीं गया। तुम्हारा श्रम सार्थक हुआ है। तुम्हारा श्रम सृजनात्मक हुआ है। मैं भर गया हूं। यह सुगंध उठे जनक से कि अष्टावक्र के नासापुट सुगंध से भर जाएं। वह जो ध्वनि, जो गीत उन्होंने भेजा था, लौटकर आ जाए। और वे समझें कि जनक का हृदय भी गज गया है, प्रतिध्वनित हो उठा है। इसलिए यह अंतिम चरण में जनक निवेदन करते हैं। जनक निवेदन करते हैं कुछ ऐसी बातें भी, जो अष्टावक्र ने छोड़ दीं।

यह भी समझ लेने जैसा है इसके पहले कि हम सूत्र में जाएं।

कोई भी सदगुरु शिष्य की परीक्षा के लिए एक ही उपाय रखता है—वह सब कह देता है, लेकिन कहीं कुछ एकाध—दो मुद्दे की बातें छोड़ जाता है। अगर शिष्य उन्हें पूरा कर दे, तो समझो कि समझा। अगर उतना ही दोहरा दे जितना गुरु ने कहा, तो समझो कि तोतारटत है। समझ आयी नहीं। वह जो खाली जगह है, वह परीक्षा है। इतना सब कहा, लेकिन एकाध—दों बिंदु पर थोड़ी—सी जगह खाली छोड़ दी। अगर समझ में आ जाएगा शिष्य को, तो वह उन खाली जगहों को भर देगा। जो गुरु ने नहीं कहा था, सिर्फ इशारा करके छोड़ दिया था, शुरुआत की थी, पूर्णता नहीं की थी, वक्तव्य की सिर्फ झलक दी थी, लेकिन वक्तव्य पूरा का पूरा ठोस नहीं था। अगर शिष्य समझ गया है तो जो ठोस नहीं था वह ठोस हो जाएगा। जो अधूरा था वह पूरा कर दिया जाएगा। शिष्य अगर गुरु के खाली छोड़े गये रिक्त स्थानों को भर दे, तो ही समझो कि समझा। अगर उतना ही दोहरा दे जितना गुरु ने कहा, तो यह तो तोते भी कर सकते हैं, यह तो यांत्रिक होगा।

इसलिए एकाध—दो बातें अष्टावक्र छोड़ गये हैं। बुद्ध ने भी वह किया है। समस्त गुरुओं ने वही किया है, एकाध दो बात छोड़ देंगे। जो नहीं समझा है, वह उनको तो पूरा कर ही नहीं सकता। असंभव है। इसका कोई उपाय ही नहीं कि वह उन्हें पूरा कर सके। इसको किसी भी चालबाजी से पूरा नहीं किया जा सकता, किसी भी बौद्धिक व्यवस्था से पूरा नहीं किया जा सकता। अनुभव ही भर सकता है उन रिक्त स्थानों को। और जनक ने उनको भर दिया। वही धन्यवाद है।

एक और बात, अष्टावक्र के इन सारे सूत्रों का सार —निचोड़ है —श्रवणमात्रेण। जनक ने कुछ किया नहीं है, सिर्फ सुना है। न तो कोई साधना की, न कोई योग साधा, न कोई जप—तप किया, न यज्ञ—हवन, न पूजा—पाठ, न तंत्र, न मंत्र, न यंत्र, कुछ भी नहीं किया है। सिर्फ सुना है। सिर्फ सुनकर ही जाग गये। सिर्फ सुनकर ही हो गया—श्रवणमात्रेण।

अष्टावक्र कहते हैं कि अगर तुमने ठीक से सुन लिया तो कुछ और करना जरूरी नहीं। करना

पड़ता है, क्योंकि तुम ठीक से नहीं सुनते। तुम कुछ का कुछ सुन लेते हो। कुछ छोड़ देते हो, कुछ जोड़ लेते हो; कुछ सुनते हो कुछ अर्थ निकाल लेते हो, अनर्थ कर देते हो। इसलिए फिर कुछ करना पड़ता है। कृत्य जो है, वह श्रवण की कमी के कारण होता है, नहीं तो सुनना काफी है। जितनी प्रगाढ़ता से सुनोगे, उतनी ही त्‍वरा से घटना घट जाएगी। देरी अगर होती है, तो समझना कि सुनने में कुछ कमी हो रही है। ऐसा मत सोचना कि सुन तो लिया, समझ तो लिया, अब करेंगे तो फल होगा। वहीं बेईमानी कर रहे हो तुम। वहां तुम अपने को फिर धोखा दे रहे हो। अब तुम कह रहे हो कि अब करने की बात है, सुनने की बात तो हो गयी।

मेरे पास एक सर्वोदयी नेता आते हैं। के हैं, जिंदगी भर सेवा की है, भले आदमी हैं। एक—दो शिविरों में आए। फिर मुझे मिलने आए। मैंने पूछा कि अब दिखायी नहीं पड़ते? तो उन्होंने कहा, अब क्या करूं आकर? आपको सुना, समझा, अब जब तक उसको कर न लूं तब तक आने से क्या? अब करने में लगा हूं जब हो जाएगा.. .तो मैंने उनसे कहा, फिर सुना ही नहीं, समझा ही नहीं। सुन लिया, समझ लिया, करने को नहीं बचना चाहिए। करने की बात ही गड़बड़ है। मैंने तुमसे कहा, यह दीवाल है, यह दरवाजा है, तुमने सुन लिया, समझ लिया, अब करने को क्या है? जब निकलना हो, दरवाजे से निकल जाना, दीवाल से मत निकलना। अब तुम कहते हो, अभ्यास करेंगे।

अभ्यास करेंगे कि यह दीवाल है, अभ्यास करेंगे कि यह दरवाजा है, जब अभ्यास खूब हो जाएगा तब निकलेंगे। अभ्यास धोखा है। यह सारसूत्र है अष्टावक्र का। अष्टावक्र अभ्यास—विरोधी हैं। वे कहते हैं, अभ्यासमात्र, साधनामात्र धोखा है। तुमने करने की बात उठायी तो एक बात पक्की हो गयी कि तुमने सुना नहीं और अब तुम तरकीबें निकाल रहे हो। अब तुम अपने अहंकार को समझा रहे हो, कि सुन तो मैंने लिया। धोखा तुम दे रहे हो, सुना तुमने नहीं। सुन तो लिया, तुम कह रहे हो, अब करेंगे। करने से ही होगा न! सुनने से क्या होता है?

लेकिन सत्य की महिमा यही है कि सुन लिया तो हो गया। सत्य कोई साधारण घटना थोड़े ही है। तुम्हारे कृत्य पर थोड़े ही निर्भर है सत्य। तुम्हारे करने से सत्य थोड़े ही पैदा होता है। सत्य तो है, तुम्हारी आंख के सामने खड़ा है, तुम्हारे हृदय में धड़क रहा है, करना क्या है? एक हुंकार में, एक उदघोष में स्मरण आ सकता है। श्रवणमात्रेण।

लेकिन आदमी बड़ी तरकीबें निकालता है। वह सोचता है बड़ी दूर है मंजिल, परमात्मा तो बहुत दूर है, चलेंगे, खोजेंगे, भटकेंगे, जनम—जनम लगेंगे, अच्छे कर्म करेंगे, बुरे कर्मों को छोड़ेंगे, बुरे किये हुओं को अच्छों से काटेंगे, ऐसा धीरे— धीरे सम्हालते—सम्हालते पुण्य की संपदा, एक दिन पहुंचेंगे। नहीं, तुम फिर न पहुंच सकोगे। तुम खुद उसे दूर किये दे रहे हो जो पास है।


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