Monday 4 January 2016

यम्‍हि सच्‍चज्‍च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ।।
क्यों? धर्म सबके पास है। धर्म यानी तुम्हारा अंतरतम स्वभाव; तुम्हारा अंतरतम; तुम जो अपनी मूल प्रकृति में हो, वही है धर्म। धर्म सबके भीतर है। जिसे पता हो जाता है, उसके भीतर सत्य भी होता है।
धर्म तो सबके भीतर है। धर्म को जिसने जागकर देख लिया, वह सत्य को उपलब्ध हो गया।
ब्राह्मण सभी हैं, लेकिन बीज में हैं। जब बीज फूटकर वृक्ष बन जाता है, तो सत्य। स्वभाव को जान लिया, पहचान लिया भर आंख। आमने—सामने खड़े होकर देख लिया; साक्षात कर लिया स्वभाव का, तो सत्य।
इसलिए बुद्ध ने दो शब्दों का उपयोग किया, ‘जिसमें सत्य और धर्म है……।’
धर्म तो सबमें है। उतना ही तुममें है, जितना बुद्ध में है। लेकिन तुममें सत्य नहीं है। तुम्हें सत्य का पता नहीं है। तुमने अभी धर्म का साक्षात्कार नहीं किया है। धर्म को जागकर जान लेने का नाम सत्य का साक्षात्कार है। ऐसे साक्षात्कार से शुचिता पैदा होती है, स्वच्छता पैदा होती है। वही शुचिता ब्राह्मणत्व है।
‘हे दुर्बुद्धि, जटाओं से तेरा क्या बनेगा? मृगचर्म पहनने से तेरा क्या होगा? तेरा अंतर तो विकारों से भरा है, बाहर क्या धोता है?’
लोग बाहर ही धोने में लगे हैं! ऐसा नहीं कि बाहर धोना कुछ बुरा है। धोना तो सदा अच्छा है। कुछ न धोने से बाहर धोना भी अच्छा है। लेकिन बाहर धोने में ही समाप्त हो जाना अच्छा नहीं है। भीतर भी बहुत कुछ धोने को है। जब तुम गंगा में स्नान करते हो, तो बाहर ही साफ होते हो; भीतर नहीं हो सकते। जब तक ध्यान की गंगा में स्नान न करो, तब तक भीतर साफ न हो सकोगे। ऊपर—ऊपर साफ कर लोगे। बुराई कुछ नहीं है इसमें, लेकिन भलाई भी कुछ खास नहीं है।
भीतर कैसे कोई साफ होता है? भीतर किस जल से कोई साफ होता है? ध्यान के जल से। भीतर का विकार क्या है? विचार भीतर का विकार है। भीतर मल का मूल कारण विचार है। जितने ज्यादा विचार, उतना ही भीतर चित्त मलग्रस्त होता है। जब विचार क्षीण होते, विचार शांत हो जाते, कोई विचार नहीं रह जाता, भीतर सन्नाटा छा जाता है, उसी सन्नाटे का नाम है— भीतर धोना। और जो भीतर अपने को धो लेता है, वही ब्राह्मण है।
‘जो सारे संयोजनों को काटकर भयरहित हो जाता है, और संग और आसक्ति से विरत हो जाता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
‘जो सारे संयोजनों को काटकर……।’
हमने जीवन को जो बना रखा है, वह सब संयोजन है। किसी को पत्नी मान लिया है—यह एक संयोजन है। कोई तुम्हारी पत्नी है नहीं, न कोई तुम्हारा पति है। कैसे कोई पति—पत्नी होगा? तुम कहते हो. नहीं, आप भी क्या बात कहते हैं! पुरोहित के सामने, अग्नि की साक्षी में सात फेरे लिए हैं! सात नहीं, तुम सत्तर लो, फेरे लेने से कोई पति—पत्नी होता है?
एक सज्जन अपनी पत्नी से छूटना चाहते थे। वे मेरे पास आए थे। वे कहने लगे. कैसे छूटूं! सात फेरे लिए हैं। मैंने कहा : उलटे सात फेरे ले लो। और क्या करोगे! छूटना ही हो तो छूट जाओ।
फेरे से कोई कैसे बंधेगा? यह सब संयोजन है। यह तरकीब है। ये फेरे, यह आग, ये मंत्र, यह पंडित, यह पुरोहित, यह भीड़— भाड़, यह बारात, यह घोड़े पर बैठना, ये बैंड—बाजे—ये सब तरकीबें हैं, ये संयोजन हैं तुम्हारे मन में यह बात गहरी बिठाने के लिए कि अब तुम पति हो गए; यह पत्नी हो गयी।
मगर ये सब संयोजन हैं।
‘जो सारे संयोजनों को काटकर भयरहित हो जाता है.।’
संयोजन कटे, तभी कोई भयरहित होता है। नहीं तो मेरी पत्नी है, कहीं चली न जाए; मेरा पति है, कहीं छोड़ न दे, मेरा बेटा है, कहीं बिगड़ न जाए—तो हजार चिंताएं और हजार भय उठते हैं। मेरा शरीर है, कहीं मौत न आ जाए; कहीं मैं का न हो जाऊं!
यहां कुछ भी मेरा नहीं है। जिसने सारे मेरे के संबंध तोड़ दिए, जिसने जाना कि यहां मेरा कुछ भी नहीं है, उसे एक और बात पता चलती है कि मैं भी नहीं हूं। मैं मेरे का जोड है। हजार मेरे को जुड़कर मैं बनता है। जैसे छोटे—छोटे धागों को बुनते जाओ, बुनते जाओ, मोटी रस्सी बन जाती है। ऐसे मेरे के धागे जोड़ते जाओ, जोड़ते जाओ, उन्हीं धागों से मैं की मोटी रस्सी बन जाती है।
सब संयोजनों को जो छोड़ देता है, उसका पहले मेरे का भाव छूट जाता है, ममत्व। और एक दिन अचानक पाता है कि मैं तो अपने आप मर गया! एक—एक धागा निकालते गए रस्सी से। रस्सी दुबली—पतली होती चली गयी।
निकालते—निकालते एक दिन जब आखिरी धागा निकल जाएगा, रस्सी नहीं बचेगी। फिर कोई भय नहीं है। मरने के पहले मर ही गए! फिर भय क्या? मैं हूं ही नहीं—इस भाव—अवस्था को बुद्ध ने अनत्ता कहा है। यह जान लेना कि मैं नहीं हूं शून्य है—यही निर्वाण है।
बुद्ध कहते हैं ऐसे निर्वाण को जो उपलब्ध हुआ—संग, आसक्ति से मुक्त, भयरहित—उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।
ब्राह्मण की जैसी प्यारी परिभाषा बुद्ध ने की है, वैसी किसी ने भी नहीं की है। ब्राह्मणों ने भी नहीं की है! ब्राह्मणों के शास्त्रों में भी ब्राह्मण की ऐसी अदभुत परिभाषा नहीं है। वहा तो बड़ी क्षुद्र परिभाषा है—कि जो ब्राह्मण के घर में पैदा हुआ!
ब्राह्मण के घर में पैदा होने से क्या होगा? इतना आसान नहीं है ब्राह्मण होना! ब्राह्मण होना बड़ी गहन उपलब्धि है। महान उपलब्धि है। निखार से होती है। जिंदगी को संवारने से होती है, स्वच्छ, शुद्ध करने से होती है। जिंदगी को आग में डालने से होती है, तपश्चर्या से होती है, साधना से होती है। ब्राह्मणत्व सिद्धि है, ऐसे जन्म में मुक्त नहीं मिलती है।
दूसरा दृश्य:
राजगृह में धनंजाति नाम की एक ब्राह्मणी स्रोतापति— फल प्राप्त करने के समय से किसी भी बहाने हो सदा नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स कहती रहती थी।
यह बुद्ध की प्रार्थना है। यह बुद्ध की अर्चना है। यह बुद्ध की उपासना का भाव है। नमो तस्स भगवतो—नमस्कार हो उन भगवान को; नमस्कार हो उन अर्हत को; नमस्कार हो उन सम्यकरूप से संबोधि प्राप्त को। यह बुद्ध के प्रति नमस्कार है। नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स।
कोई भी बहाना मिले तो वह चूकतीं नहीं थी ब्राह्मणी धनजाति नाम की। छींक आ जाए, खांसी आ जाए, फिसलकर गिर पड़े, तो वह तत्कण कहती. नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स।
एक दिन उसके घर भोज था। काम की भागा— भागी में उसका पैर फिसल गया। ब्राह्मणी थी; भोज में सारे ब्राह्मण इकट्ठे थे सारा परिवार इकट्ठा था। पति था पति के सब भाई थे; रिश्तेदार थे। सम्हलते ही उसने तत्‍क्षण भगवान की वंदना की. नमो तस्स भगवतों अरहतो सम्मासंबुद्धस्स— नमस्कार हो उन भगवान को नमस्कार हो उन अर्हत को नमस्कार हो उन सम्मासंबुद्धस्स को।
इसे सुनकर उसके पति के भाई भारद्वाज ने उसे बहुत डांटा नष्ट हो दुष्टा! जहां नहीं वहां ही उस मुंडे श्रमण की प्रशंसा करती है। और फिर बोला. आज मैं तेरे उस श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ करूंगा और सदा के लिए उसे समाप्त करूंगा; उसे हराकर लौटूंगा।
ब्राह्मणी हंसी और बोली. नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स। नमस्कार हो उन भगवान को नमस्कार हो उन अर्हत को नमस्कार हो उन सम्यक संबोधि प्राप्त को। जाओ ब्राह्मण शास्त्रार्थ करो। यद्यपि उन भगवान के साथ शास्त्रार्थ करने में कौन समर्थ है! फिर भी तुम जाओ। इससे कुछ लाभ ही होगा। ब्राह्मण क्रोध और अहंकार और विजय की महत्वाकांक्षा में जलता हुआ बुद्ध के पास पहुंचा। वह ऐसे था जैसे साक्षात ज्वर आया हो। उसका सब जल रहा था। लपटें ही लपटें उसमें उठ रही थीं। लेकिन भगवान को देखते ही शीतल वर्षा हो गयी। उनकी उपस्थिति में क्रोध बुझ गया। उनकी आंखों को देख उस व्यक्ति को जीतने की नहीं उस व्यक्ति से हारने की आकांक्षा पैदा हो गयी। उसका मन रूपांतरित हुआ। उसने कुछ प्रश्न पूछे— विवाद के लिए नहीं मुमुक्षा से। और भगवान के उत्तरों को पा वह समाधान को उपलब्ध हुआ। समाधि लग गयी। फिर घर नहीं लौटा। बुद्ध का ही हो गया। बुद्ध में ही खो गया। वह उसी दिन प्रव्रजित हुआ और उसी दिन अर्हत्व को उपलब्ध हुआ।
ऐसी घटना बहुत कम घटी है कि उसी दिन संन्यस्त हुआ और उसी दिन समाधिस्थ हो गया। उसी दिन संन्यस्त हुआ और उसी दिन बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ। ऐसी घटना बहुत मुश्किल से घटती है। जन्मों—जन्मों में भी बुद्धत्व फल जाए, तो भी जल्दी फल गया। यह तो चमत्कार हुआ।
फिर उसके भाई ब्राह्मणी के पति को भी बुद्ध पर भयंकर क्रोध आया जब उसे खबर लगी कि उसका छोटा भाई संन्यस्त हो गया। वह भी भगवान को नाना प्रकार से आक्रोशन करता हुआ गाली देता हुआ असभ्य शब्दों को बोलता हुआ वेणुवन गया। और वह भी भगवान के पास जा ऐसे बुझ गया जैसे जलता अंगारा जल में गिरकर बुझ जाता है।
ऐसा ही उसके दो अन्य भाइयों के साथ भी हुआ।
भिक्षु भगवान का चमत्कार देख चकित थे वे आपस में कहने लगे. आवुसो! बुद्ध— गुण में बड़ा चमत्कार है। ऐसे दुष्ट अहंकारी और क्रोधी व्यक्ति भी शांतचित्त हो संन्यस्त हो गए हैं और ब्राह्मण— धर्म को छोड़ दिए हैं।
भगवान ने यह सुना तो कहा भिक्षुओ! भूल न करो। उन्होंने ब्राह्मण धर्म नहीं छोड़ा है। वस्तुत: पहले वे ब्राह्मण नहीं थे और अब ब्राह्मण हुए हैं।

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